डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला (दून विश्वविद्यालय )
देहरादून , 20 दिसम्बर : कंदमूल जंगलों में पाए जाने वाले उन खाने योग्य खाद्य पदार्थों को कहा जाता है जो जड़ के रूप में होते हैं इन्हे उबालकर भी खाया जा सकता है तथा भूनकर भी। प्राचीन समय में आदिमानव कंद मूल खा कर ही गुजारा किया करते थे और क्योंकि जंगलों में इनकी बहुलता होती है तथा ये बहुत ही आसानी से मिल जाते हैं इसलिए ये आदिवासियों के भोजन का मुख्य हिस्सा होते हैं। आज भी जंगलों में निवास करने वाली कई प्रजातियां कंदमूल पर ही निर्भर है या कंदमूल को बहुत अधिक मात्रा में खाती हैं अपने आरंभिक काल में जब मनुष्य जंगल में रहा करता था उस समय उसका मुख्य भोजन कंद मूल ही हुआ करता था। प्राचीन काल के कंदमूलों का नाम आज दुर्लभ प्रजातियों में शामिल है।
कंदमूल का हिंदी में मतलब होता है ऐसा पौधा जिसकी जड़ भूनकर या उबाल कर खाई जा सकती हो। कंदमूल को अंग्रेजी में रूट वेजिटेबल्स कहा जाता है। कंदमूल की आधुनिक प्रजातियों में शकरकंद, आलू, गाजर, शलगम, मूली इत्यादि का नाम लिया जा सकता है हालांकि आदिवासी प्रजातियों में यह आधुनिक कंदमूल किस्में प्रचलित नहीं है यह प्रजातियां कंदमूल की प्राचीन किस्मों को ही प्राथमिकता देती हैं जमीन के नीचे पैदा होने वाला ये फल मीठा है। खास बात ये है कि इस फल को मधुमेह से ग्रसित लोग भी स्वाद लगाकर खा सकते हैं।
देखन में शकरकंदी और लंबे कंदमूल की तरह है। ऐसा हो सकता है कि बच्चों को यह पसंद आए नहीं, लेकिन स्वास्थ्यवर्धक गुणों से भरपूर ग्राउंड एपल प्रदेश के किसी भी हिस्से में पैदा हो सकता है। भूमिगत सेब (ग्राउंड एपल) भी लोगों की आर्थिकी का अहम हिस्सा बनने वाला है। प्रदेश के ठंडे रेगिस्तान के रूप में पहचान रखने वाले किन्नौर जिला के किसान सत्यजीत नेगी ने उत्तरी अमेरिका में पैदा होने वाले इस फल को ऊंचे पहाड़ों पर पैदा कर प्रदेश के किसानों के लिए जीविका का नया द्वार खोल दिया है। राजधानी शिमला के कनलोग में शकरकंदी या फिर कंदमूल जैसा दिखने वाला यह फल जमीन के नीचे से निकाला गया। स्वाद में मीठा लगने वाला ग्राउंड एपल आने वाले दिनों में किसानों का भाग्य बदल देगा।
सरकार यदि दिलचस्पी लें तो आने वाले दिनों में ग्राउंड एपल लोगों का सहारा बन सकता है। ये फल औषधीय गुणों से भरपूर है। इसकी पत्तियों को उबालकर चाय के तौर पर भी प्रयोग किया जा सकता है। देहरादून जिले के चकराता ब्लॉक की सुदूरवर्ती भरम खत के ग्राम कुनवा निवासी शूरवीर सिंह ने स्नातक तक की पढ़ाई की है। इसके बाद उसने गांव में ही रहकर कृषि-बागवानी में हाथ आजमाने का निर्णय लिया। शूरवीर ने देखा कि पहाड़ में मौसम की मार से सेब की फसल को भारी नुकसान पहुंचता है, सो तकनीकी खेती को बढ़ावा देने के लिए विशेषज्ञों से रायशुमारी कर प्रयोग के तौर पर ग्राउंड एप्पल की खेती शुरू की। इसके लिए उसने बीते वर्ष हिमाचल के रामपुर से बीज मंगाकर उसे अपनी करीब दो नाली जमीन में बोया। मार्च में बीज डालने के बाद दिसंबर में भूमिगत सेब की फसल तैयार भी हो गई।
ग्राउंड एप्पल के एक किलो बीज से एक क्विंटल उत्पादन आसानी से मिल जाता है। इसके पौधे की ऊंचाई तीन से पांच फीट और फल का वजन 200 ग्राम से लेकर एक किलो तक होता है। एक पौधे से चार से सात किलो फल मिल जाते हैं। बताया कि उसे पहले प्रयास में ही दो नाली जमीन से लगभग 80 किलो ग्राउंड एप्पल मिला। अब इस तकनीक को जानने के लिए अन्य किसानों में भी खासी उत्सुकता है। ग्राउंड एप्पल को छिलका उतारकर खाया जाता है। पौष्टिकता से भरपूर इस फल से जैम, जूस और चटनी भी बनाई जाती है। मार्च में इसका बीज बोने के बाद गोबर की खाद डालकर खेत को छोड़ दिया जाता है। कुछ समय बाद पौधा अंकुरित होकर दिसबंर में फसल तैयार हो जाती है, लेकिन उत्तराखंड में ग्राउंड एप्पल के विपणन की व्यवस्था न होने के कारण इसे बेचने के लिए अन्य जगह जाना पड़ता है।
जौनसार के सुदूरवर्ती गांव कुनवा के एक युवक ने शकरकंद की तरह दिखने वाले और स्वाद में सेब की तरह मीठे ग्राउंड एप्पल (भूमिगत सेब) की खेती का सफल प्रयोग किया है। जौनसार में ग्राउंड एप्पल की खेती करने वाला वह पहला किसान है। हालांकि, इसकी मार्केटिंग की व्यवस्था न होने से उसे खासी दिक्कतें पेश आ रही हैं। प्रगति किसान शूरवीर ने बताया कि ग्राउंड एप्पल को छिलका उतारकर खाया जाता है। पौष्टिकता से भरपूर इस फल से जैम, जूस और चटनी भी बनाई जाती है। औषधीय गुणों से युक्त एवं कम कैलोरीज वाले ग्राउंड एप्पल, जिन्हें ‘याकोन’ या ‘पेरूवियन ग्राउंड एप्पल’ के नाम से जाना जाता है नवंबर-दिसंबर में सेब फसल तैयार हो गई। उनका दावा है कि अगर सेब को जमीन से दो-चार महीने देरी से भी निकालते हैं तो ये खराब नहीं होता। हिमाचल खासकर किन्नौर-लाहौल और उत्तराखंड का मौसम इसके लिए अनुकूल है। सेवन करने से मोटापा कम हो जाता है। ये ब्लड प्रेशर को भी नियंत्रित करता है। शराब का सेवन करने वाले लोगों के लीवर को बचाने में यह सेब मदद करता है। इससे हाजमा ठीक रहता है। कैंसर को भी मात देने में सहायक है। इस सेब पर अमेरिका में कई शोध हुए हैं। सेब की पत्तियों का इस्तेमाल चायपत्ती के रूप में कर सकते हैं।लेकिन उत्तराखंड में ग्राउंड एप्पल के विपणन की व्यवस्था न होने के वजह से इसे बेचने के लिए अन्य जगह जगह फिरना पड़ता है।