रोमांच के शौकीनों के लिए उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्र के ट्रैकिंग रूट हमेशा से ही आकर्षण का केंद्र रहे हैं। सरकार भी चाहती है कि सीमांत क्षेत्रों से पलायन की रोकथाम के मद्देनजर वहां साहसिक पर्यटन गतिविधियों को बढ़ावा दिया जाए। इसी के मद्देनजर वर्तमान में राज्य की 84 चोटियां पर्वतारोहण व ट्रैकिंग के लिए खुली हैं और अब इनमें 42 अन्य चोटियोंं को भी शामिल किया गया है। ट्रैकिंग के लिए व्यवस्था बनाई गई है, लेकिन इससे संबंधित नियमों का हर स्तर पर मखौल उड़ रहा है और जिम्मेदार एजेंसियां इसकी तरफ आंखें मूंदे हुए हैं।

केदारनाथ क्षेत्र ऐसे कई जोखिम वाले ट्रैक रूट मौजूद हैं, जिन पर बिना जानकारी व सुरक्षा उपायों के जाना खतरे से खाली नहीं। इनमें कई तो 18000 फीट से अधिक की ऊंचाई पर हैं। बावजूद इसके बड़ी संख्या में ट्रैकर नियमों को ताक पर रखकर बिना अनुमति के ही यहां पहुंच जाते हैं। इसकी खबर न तो प्रशासन को होती है और जिम्मेदार विभाग वन विभाग को ही। बीते आठ वर्षों की ही बात करें तो 12 से अधिक ट्रैकिंग दल मौसम का मिजाज बिगडऩे के कारण इन ट्रैक रूट पर फंस चुके हैं। इस दौरान आठ ट्रैकर को जान भी गंवानी पड़ी। लेकिन, इन घटनाओं से प्रशासन व वन विभाग ने सबक लिया हो, लगता नहीं है।

केदारनाथ व मध्यमेश्वर घाटी में आधा दर्जन ट्रैक रूट पीढिय़ों से चले आ रहे हैं, जो ग्लेशियरों के बीच दुर्गम क्षेत्र से होकर गुजरते हैं। यहां कब बर्फबारी हो जाए या बर्फीला तूफान उठ जाए कहा नहीं जा सकता। यहां अधिकांश ट्रैकर मैदानी या समुद्र तटीय क्षेत्र से आते हैं, जिन्हें पहाड़ के भूगोल की जानकारी तक नहीं होती। उस पर ये जिम्मेदार एजेंसियों को सूचना दिए बगैर ही ट्रैकिंग पर निकल पड़ते हैं। प्रशासन, पुलिस, पर्यटन विभाग व वन विभाग को इनके बारे में सूचना तब मिलती है, जब ये स्वयं किसी ट्रैक रूट पर फंसे होने या रास्ता भटक जाने की जानकारी देते हैं। लेकिन, सही लोकेशन पता न होने के कारण प्रशासन के लिए उन्हें रेस्क्यू करना भी चुनौती बन जाता है।

सितंबर 2018 में बंगाल के 21-सदस्यीय ट्रैकर दल में शामिल नौ ट्रैकर मध्यमेश्वर-पनपतिया ट्रैक पर फंस गए थे, जबकि एक सदस्य की मौत भी हो गई थी। सभी ट्रैकर भारतीय रेलवे के कर्मचारी थे। वायु सेना के प्रयासों से इनकी जान बच पाई। जून 2017 में भी 12-सदस्यीय एक दल इसी रूट पर फंस गया था। तब प्रशासन ने हेली रेस्क्यू कर दल के सदस्यों की जान बचाई। इसी वर्ष एक दल बिना पंजीकरण के नंदा देवी बायोस्फीयर रिजर्व में ट्रैकिंग पर गया और पांच सदस्यों को जान गंवानी पड़ी। इसी तरह वर्ष 2015 में केदारनाथ-बासुकीताल ट्रैक रूट पर छह ट्रैकर फंस गए थे। कई दिनों तक बर्फ में ही रहने के बाद इनमें से दो की मौत हो गई।

उच्च हिमालयी क्षेत्र में ट्रैकिंग के लिए जाने वाले व्यक्ति को वन विभाग से अनुमति लेने के बाद पर्यटन विभाग, प्रशासन व पुलिस को भी अपने ट्रैकिंग रूट की पूरी जानकारी देनी होती है। साथ ही उच्च हिमालयी क्षेत्र में जाने के लिए ट्रैकर के पास कुशल गाइड, पर्याप्त संसाधन, जरूरी कपड़े व दवाएं, टेंट आदि भी होने चाहिए। इसके बाद ही वन विभाग के कार्यालय में शुल्क जमा करने के बाद उसे ट्रैकिंग की अनुमति दी जाती है। उत्तराखंड में ट्रैकर की मौत के बाद उच्च हिमालयी क्षेत्र में ट्रैकिंग को लेकर चिंता के बादल मंडराने लगे हैं। ट्रैकिंग के लिए तय व्यवस्था होने के बावजूद इस तरह की घटनाओं का सामने आना सिस्टम पर भी सवाल खड़े कर रहा है।

समग्र रूप से देखें तो इसके पीछे सबसे बड़ी वजह मशीनरी से लेकर ट्रैकिंग दलों तक की बेपरवाही है। ट्रैकिंग के लिए अनुमति मिलने के बाद वन विभाग, पर्यटन व स्थानीय प्रशासन के साथ ही टूर आपरेटर की व्यवस्था बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है, लेकिन इनमें हर स्तर पर समन्वय का अभाव जोखिम का सबब बन रहा है। आलम ये है कि सिंगल विंडो सिस्टम से अनुमति जारी होने पर भी जिलों तक यह सूचना नहीं पहुंच पा रही कि किसे अनुमति दी गई है और ट्रैकिंग दल में शामिल सदस्य कौन-कौन हैं। ये हाल तब है जबकि, उत्तराखंड की सीमाएं चीन और नेपाल से सटी हैं।

आश्चर्यजनक यह कि उत्तराखंड ट्रैकिंग एवं हाइकिंग नियमावली भी अभी तक आकार नहीं ले पाई है। उत्तराखंड में ट्रैकिंग की तीन श्रेणियां हैं। इनमें हाइकिंग, ट्रैकिंग व हाई एल्टीट्यूड ट्रैकिंग शामिल हैं। हाइकिंग के तहत दिन-दिन में निश्चित दूरी तय कर वापस लौटना होता है, जबकि ट्रैकिंग व हाई एल्टीट्यूड टै्रकिंग के लिए ट्रैकिंग दलों को कैंप भी करना होता है। उन्हें अपने साथ प्रशिक्षित गाइड ले जाना अनिवार्य है। सामान ढोने के लिए वे दल की संख्या के हिसाब से पोर्टर अपने साथ ले जा सकते हैं। गाइड व पोर्टर का उत्तराखंड पर्यटन विकास परिषद (यूटीडीबी) में पंजीकरण आवश्यक है। टै्रकिंग के लिए सिंगल विंडो सिस्टम से अनुमति मिलने के बाद इसका पूरा ब्योरा इसी सिस्टम से जिलों तक पहुंचना चाहिए, लेकिन यह नहीं पहुंच पा रहा। इसके साथ ही ट्रैकिंग के मामले में संबंधित विभागों, स्थानीय प्रशासन, टूर आपरेटर व ट्रैकिंग दलों के मध्य समन्वय का अभाव है। स्थिति ये हो चली है कि अनुमति मिलने के बाद स्थानीय पुलिस, प्रशासन को सूचना दिए बगैर ही लोग ट्रैकिंग रूट पर निकल पड़ रहे हैं। यह बेपरवाही तब भारी पड़ती है, जब मौसम का मिजाज बिगडऩे अथवा रास्ता भटकने पर टै्रकर उच्च हिमालयी क्षेत्र में फंस जाते हैं। नतीजतन, उन्हें तलाशने के लिए मशीनरी को नाकों चने चबाने पड़ते हैं।

यही नहीं, बिना सूचना दिए ट्रैकिंग के नाम पर कोई सीमांत क्षेत्र में चला जाए तो इसे सुरक्षा के लिहाज से उचित नहीं माना जा सकता। नंदादेवी क्षेत्र नेशनल रिजर्व क्षेत्र है। यहां बिना वन विभाग की अनुमति के कोई भी ट्रैकर नहीं जा सकता है। वन विभाग खरकिया और खाती में पंजीकरण कार्यालय खोलेगा। जिला प्रशासन से समन्वयक स्थापित कर प्रस्ताव भी तैयार कर रहा है। बिना अनुमति के ग्लेशियरों की तरफ जाने वालों पर आने वाले दिनों में शिकंजा कसेगा। बिना पंजीकरण के जाने पर प्रशासन के पास रेस्क्यृ की स्थिति में कोई जानकारी नहीं होती। इससे रेस्क्यू कहां किसा दिशा में चलाएं कुछ पता नहीं होता और जान बचने की उम्मीद कम हो जाती है।

हिमालय की तरफ जाने वाले ट्रैकरों के लिए अभी आनलाइन पंजीकरण की सुविधा नहीं हैं। ट्रैकरों को कपकोट स्थित वन विभाग के पंजीकरण कार्यालय पर शुल्क अदा कर अनुमति लेनी होती है। चमोली, पिथौरागढ़ जिले से भी रास्ता होने के कारण ट्रैकरों की सटीक जानकारी विभाग के पास नहीं रहती है। सचिव पर्यटन ने बताया कि सिंगल विंडो सिस्टम को लेकर कुछ दिक्कतें हैं। जिलों तक सभी सूचनाएं नहीं पहुंच पा रही हैं, जबकि स्वाभाविक रूप से ये सूचनाएं मिल जानी चाहिए। इस दिक्कत को दूर कराया जा रहा है। यह सुनिश्चित किया जाएगा कि सभी संबंधित विभागों, स्थानीय पुलिस, प्रशासन के पास ट्रैकिंग दलों का पूरा ब्योरा हो। साथ ही ट्रैकिंग व पर्वतारोहण के लिए मानक प्रचालन कार्यविधि तैयार की जा रही है। अभियान दलों के लिए जीपीएस आधारित रिस्टबैंड की व्यवस्था करने की दिशा में भी काम चल रहा है।

यह लेखक के निजी विचार हैं !

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला (दून विश्वविद्यालय)

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