देश को आजादी 15 अगस्त 1947 में मिली, लेकिन टिहरी रियासत की जनता को आजादी के लिए दो साल इंतजार करना पड़ा था । टिहरी महाराज और भारत सरकार के बीच विलय पत्र पर 01 अगस्त 1949 को नरेंद्रनगर में हस्ताक्षर हुए। इसके बाद टिहरी रियासत विधिवत रूप में भारतीय संघ का हिस्सा बनी।
स्वाधीनता की 75वीं वर्षगांठ के अवसर पर चल रहे अमृत महोत्सव में टिहरी का स्मरण इसलिए आवश्यक हो जाता है क्योंकि वहां की जनता भले ही कभी ब्रिटानी सल्तनत के अधीन न रही हो, मगर सामंती अत्याचारों को उसने शेष भारत की जनता से कहीं ज्यादा सहा। टिहरी की आजादी के पीछे जो सबसे महत्वपूर्ण कारक मिलता है वह, वहां की जनता की साम्यवादी विचारधारा है, जिसने राजशाही के कठोर अत्याचारों के बावजूद क्रांति की मशाल को कभी भी बुझने नहीं दिया। हिंदुस्तान की आजादी के इतिहास में टिहरी अकेली ऐसी रियासत है, जिसकी जनता ने स्वयं के संघर्ष से आजाद होने के बाद अपनी विधानसभा व सरकार बनाई और फिर स्वेच्छा से भारत में अपने विलय के लक्ष्य को हासिल किया। अन्यथा अंग्रेजों ने तो 500 से ज्यादा देसी रियासतों के रजवाड़ों को अपनी इच्छा से भारत या पाकिस्तान में मिलने अथवा स्वतंत्र बने रहने की छूट दे दी थी। तब सरदार पटेल को कुछ रियासतों को विलय के लिए कार्रवाई का डर दिखा कर और कुछ पर कार्रवाई भी करनी पड़ी थी।
टिहरी राजशाही के अत्यचार और उनका विरोध
तिलाड़ी / रंवाई कांड : 30 मई 1930 को टिहरी राज्य में राजा नरेन्द्रशाह ने एक नया वन कानून लागू किया गया, जिसके तहत यह व्यवस्था की गई थी कि किसानों की भूमि को वन भूमि में शामिल करने के बाद जानवरों को वहां चरने जाने पर लोगों को कर देना होगा । जिसके खिलाफ नागणा के हीरा सिंह, कसरू के दयाराम व कसरू के बैजराम और लाला रामप्रसाद जो कि साधारण से किसान थे की अगुवाई में आन्दोलन का सूत्रपात हुआ। वहां की जनता ने पहली बार राजशाही के ख़िलाफ़ आजाद पंचायत की घोषणा कर विद्रोह शुरू किया।
राजा के खिलाफ़ उठे रंवाई घाटी से इस विद्रोह को दंड देने व भयभीत करने के लिए राजा के दीवान चक्रधर जुयाल ने उस रक्तरंजित तिलाड़ीकांड को अंजाम दिया। इस कांड को उत्तराखंड के जलियांवाला कांड के नाम से भी जाना जाता है। उस दिन सैकड़ों की संख्या में लोग उक्त वन कानून का प्रतिकार करने तिलाड़ी मैदान में पहुंचे थे जहाँ राजा की फौज ने तीन तरफ़ से घेरकर लाठी-गोली की बौछार कर दी। चौथे तरफ़ यमुना नदी की घाटी थी, जिसमें कई लोग जान बचाने के लिए कूद पड़े। सरकारी दस्तावेजों में इस काण्ड में 200 लोगों के मरने की पुष्टि आज भी दर्ज है। आज भी इस क्षेत्र में 30 मई को शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस आन्दोलन को तिलाड़ी आन्दोलन के नाम से भी जाना जाता है।
श्रीदेव सुमन का ऐतिहासिक अनशन : टिहरी रियासत की आजादी में क्रांतिकारी श्रीदेव सुमन की अहम भूमिका रही। सबसे पहले उन्होंने ही 23 जनवरी, 1939 को रियासत से बाहर देहरादून में टिहरी राज्य प्रजामंडल का गठन कर अप्रैल 1939 में चुनाव कराकर रियासत में उसके पंजीकरण कराने और उत्तरदायी शासन की मांग करी। जिसके लिए वह कई बार कैद और राज्य से निष्कासित भी होते रहे। अपने अंतिम प्रयास में उन्होंने कारावास में रह कर अपने 84 दिनों के ऐतिहासिक आमरण अनशन के बाद 25 जुलाई, 1944 की दोपहरी में प्राणों का उत्सर्ग कर दिया।
सकलाना पट्टी का आन्दोलन : प्रजामंडल के गठन से पहले ही टिहरी के विद्यार्थियों में देशभक्ति व प्रजातांत्रिक चेतना जगाने में सत्यप्रसाद रतूड़ी की भी अहम भूमिका रही। वे पत्रकार होने के साथ ही प्रताप हाईस्कूल के शिक्षक भी थे। उन्होंने बच्चों में देशभक्ति की अलख जागते हुए टिहरी में बालसभा का गठन किया मगर उनके बगावती तेवरों को देखते हुए उन्हें राज्य निकाला दे दिया गया। 1940 में प्रताप हाईस्कूल के इंटर कालेज बनने के बाद टिहरी में 11वीं के दो छात्रों रामचंद्र उनियाल व रामप्रसाद बहुगुणा के नेतृत्व में छात्रों ने छात्रसंघ बनाने की मांग के पोस्टर टिहरी नगर में जगह-जगह चिपका दिया जिसके चलते दोनों को कालेज से निष्कासन व लंबे कारावास का दंड भी मिला।
कालांतर में 15 दिसंबर, 1947 को उन्ही आजाद पंचायत के सरपंच रामचंद्र उनियाल ने सकलाना पट्टी में आजाद पंचायत की घोषणा करते हुए कहा था कि – ‘हिंदुस्तान तो 15 अगस्त को आजाद हो चुका है, परंतु टिहरी की पांच लाख की आबादी अभी भी क्रूर सामंतशाही का दमन झेल रही है। आजादी हासिल करने को जितने कष्ट सहे, उससे ज्यादा मुश्किल आजादी को बनाए रखना और उसे आगे बढ़ाए रखना होता है। क्योंकि हमारे विरोधी हर तरीके से हमारी आजादी छीनने की कोशिश करेंगे।’ सकलाना की आजादी के बाद आजाद पंचायतों की उद्घोषणाओं का क्रम थमने का नाम नहीं ले रहा था। देवप्रयाग व कीर्तिनगर की पुलिस चौकी व कार्यालयों पर जनता ने कब्जा कर लिया था। बडियारगढ़ में भी आजाद पंचायत की घोषणा हो चुकी थी। वहां टिहरी को आजाद कराने के लिए प्रजामंडल ने सत्याग्रहियों की भर्ती शुरू की थी।
नागेंद्र सकलानी व मोलू भरदारी की शाहदत :
11 जनवरी 1948, आजाद कीर्तिनगर में डांगचैरा से दादा दौलतराम के नेतृत्व में कोर्ट परिसर में सभा चल रही थी। राजा के सिपाही एक कर्नल व एक जज के साथ कामरेड नागेंद्र सकलानी व मोलू भरदारी पर मुकदमा दर्ज करने पहुँचते है। जैसे ही वह उनकी सजा मुकर्र करने वाले थे कि वहां मौजूद जनता हाथों में तिरंगा ले कर उनका प्रतिकार करना शुरू कर देती है। इस बीच राजा के द्वारा भेजे गये कर्नल डोभाल ने तिरंगे का उपहास उड़ते हुए उनसे तिरंगा छिनने का प्रयास किया, जिससे आहात मोलू उन पर हमला करने की कोशिश करी और कर्नल उसके सीने में गोली मार कर वहां से दौड़ पड़ा। नागेन्द्र उसका पीछा कर उनका पैर पकड़ लेता है जिस कारण उसे भी गोली मार दी गई। इससे पूर्व राजा द्वारा जो भी अत्यचार किये थे वह अपनी गुलाम जनता पर थे, मगर इस बार नागेन्द्र सकलानी व मोलू भरदारी की शाहदत के पीछे का कारण बना था तिरंगे का अपमान था और यही अपमान सामंतशाही हुकूमत के ताबूत की आखरी कील साबित हुई ।
महाराजा के अधिकारीयों ने इन शहादतों के बाद पनप रहे आक्रोश को कीर्तिनगर तक ही सीमित रखने के भरसक षड्यंत्र रचे, यहाँ तक कि दोनों शहीदों के शवों को अलकनंदा नदी के घाट पर चिताओं में लेटा दिया गया था, मगर कामरेड चन्द्र सिंह गड्वाली के पहुँचते ही वहां का मंजर बदल गया। उन्होंने लोगों के सामने दो विकल्प रखे ! पहला जिसमें राजशाही के अधीन उत्तरदायी शासन व दूसरा टिहरी का स्वतंन्त्र भारत में विलय। घटना स्थल पर मौजूद प्रजामंडल व साम्यवादी विचारधारा के नेताओं ने उनकी दूसरी बात का समर्थन करते हुए तय किया कि इन शहदतों को बेकार नहीं जाने दिया जायेगा और इनका अंतिम संस्कार अब भागीरथी व भिलंगना के संगम पर किया जाएगा।
12 जनवरी 1948 की सुबह हाथों में तिरंगा उठाये कामरेड चन्द्र सिंह गड्वाली के नेतृत्व में दोनों शहीदों के शवों को अर्थी पर लेटा कर टिहरी की तरफ कूच कर दिया गया। दोनों शहीदों के शरीर में कफ़न नहीं थे बल्कि उनकी कमीजें भी उतार दी गईं थी, ताकि जनता अपने शहीदों के सीने में लगी गोलियों के घावों को देख सके। खून से सनी उन कमीजों को त्रेपन सिंह नेगी व देवी दत्त तिवाड़ी ने अपने सरों पर बांध रखा था। उस यात्रा की चश्मदीद रहीं जयदीप सकलानी की 105 वर्षीय बुआ श्रीमति प्रेमवती पेन्युली ने याद करते बताया कि वह माहौल कुछ और ही था, एक अलग तरह की आलौकिक उर्जा वातावरण में फैली हुई थी लोग उन अर्थियों का स्वागत देव डोलियों की तरह कर रहे थे। अर्थी के रास्ते में पड़ने वाले पुलिस थाने/ चौकियां या तो वीरान हो चुकी थीं या आत्मसमर्पण के लिए तैयार खड़ीं थी । ये शव यात्रा तीन दिन देव-प्रयाग, खास पट्टी होते हुए 14 जनवरी को रियासत की राजधानी टिहरी पहुंची। शहीदों के शवों के पहुंचने की सूचना मिलने के बाद जगह-जगह से सत्याग्रहियों की भीड़ वहां पहले ही पहुंच चुकी थी। हजारों टिहरी वासियों की मौजूदगी में उन दोनों शहीदों का अंतिम संस्कार किया गया। शहीदों की चिता ठंडी होने से पहले ही राजा की फौज ने आत्मसमर्पण कर दिया। राजा के वाहन को एडवोकेट वीरेंद्र दत्त सकलानी, जो आजाद टिहरी पंचायत के प्रमुख घोषित हो चुके थे, ने अपने साथियों सहित टिहरी पुल से वापस लौटा दिया। इसके बाद 14 जनवरी 1948 को ही टिहरी रियासत के विरुद्ध आवाज उठाने वाले क्रांतिकारियों ने राजधानी टिहरी पर कब्जा कर वहां की बागडोर टिहरी प्रजामंडल के हाथों में सौंप दी। इसके बाद टिहरी रियासत का भारत संघ में विलय का रास्ता साफ़ हो गया।
01 अगस्त 1949 को तत्कालीन संयुक्त प्रांत के प्रमुख गोविंद बल्लभ पंत की उपस्थिति में राजकीय इंटर कालेज नरेंद्रनगर के मैदान में टिहरी रियासत को सयुंक्त प्रान्त के 50 जनपद के रूप में स्वीकार किया गया। टिहरी रियासत के महाराज मानवेंद्र शाह और अन्य अधिकारियों की उपस्थिति में इस विलयीकरण पर समझौता हुआ। इस दौरान टिहरी रियासत की सेना ने प्रांत प्रमुख गोविंद बल्लभ पंत को गार्ड आफ आनर दिया और वहां पर तिरंगा भी फहराया गया। टिहरी के इतिहास में भले ही यह तारीख उक्त सामंतशाही हुकूमत से आजादी का दिन मानी जाती हो, मगर-गाहे बगाहे आज भी वही राजे-महाराजे अपनी पूरी सामन्ती ठसक के साथ संसद में बैठ कर हुकूमत कर रहें है ! तो फ़िर सवाल यह खड़ा होता है कि क्रांति की धरती टिहरी को हम आज आजाद माने या गुलाम ?
पहचान को मोहताज प्रथम विश्व युद्ध का गुमनाम नायक
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