भारत की प्राचीन गौरवशाली गाथा में नारी शक्ति सदैव पूजनीय रही है । जगत जननी मां वसुंधरा की प्रकृति की सरिताओं से लेकर समस्त जग जीवन में मातृशक्ति का ही बोध होता है । हमारे प्राचीन ग्रंथों से लेकर महाकाव्यों तक में नारीत्व की ही प्रधानता रही है। भले ही रामायण एवं महाभारत जैसे महाकाव्य पुरूष प्रधान हों, परन्तु इन महाकाव्यों की रचना का कारण मां सीता एवं द्रौपदी ही रही हैं।
वर्तमानकाल में भी हमारे देश में अहिल्या बाई, रानी दुर्गावती और राणी लक्ष्मीबाई जैसी महान वीर नारियों ने भारत मां का वैभव शृंगार किया है । इसी काल में भारत के उत्तराखण्ड के गढ़वाल क्षेत्र के चौंदकोट पट्टी के गुराड गांव में पन्द्रह वर्षीय वीरबाला तीलू रौतेली ने अपने अदम्य साहस और वीरता का जो परिचय दिया, उसकी गौरवगाथा विश्व की महान नारियों में वर्णित की जानी चाहिए । देवभूमि उत्तराखण्ड सदैव से वीर भड़ों का क्षेत्र रहा है । इसका प्रमाण महाभारत काल से लेकर आज तक कई उदाहरणों एवं प्रमाणों से सिद्ध किया जा सकता है । यहां के वीर भड़ों में वीर माधोसिंह भण्डारी, लोदी रिखोला और मालूशाही आदि का नाम प्रमुखता के साथ लिया जाता है । परन्तु एक पंद्रह वर्षीय तरूण बाला तीलू रौतेली ने साधनविहीन होते हुए भी जिस प्रकार उन दुर्गम पर्वतों पर सात वर्ष तक युद्व लडा, वह एक ऐतिहासिक एवं प्रेरणादायक बात है ।
कत्यूरियों का उत्तराखण्ड में आठवीं शताब्दी तक शासन रहा । उसके बाद गढवाल में पवार एवं कुमाऊं में कत्यूरियों के साथ चंद वंश का शासन रहा । धीरे-धीरे कुमांऊ में चंद वंश प्रभावशाली होते रहे और कत्यूरी इधर उधर बिखरने लगे । उन्होंने चारों ओर लूटपाट और उत्पात मचाकर अशांति फैलाना शुरू किया । तीलू रौतेली के समय गढ़वाल एवं कुमाऊँ में छोटे-छोटे राजा, भड व थोकदारी की प्रथा थी । सीमाओं का क्षेत्रफल राजाओं द्वारा जीते गए भू-भाग से निर्धारित होता था । आज यह भू-भाग इस राजा के अधीन है तो कल किसी और राजा के अधीन। कत्यूरी राजा धामशाही ने गढवाल एवं कुमाऊं के सीमांत क्षेत्र खैरागढ (कालागढ के पास) में अपना अधिपत्य जमा लिया था । प्रजा इनके अत्याचारों से दुखी थी ।
इतिहास गवाह है कि मुगलों ने भले भारत के कई राज्यों को अपने अधीन कर दिया था, परन्तु उत्तराखण्ड की धरती पर वे पैर भी नहीं पसार पाए थे । जिस तरह से पन्द्रह वर्षीय वीरबाला तीलू रौतेली ने अपनी मातृभूमि के लिए लड़ते हुए अपना बलिदान दिया, वैसा उदाहरण शायद इतिहास में कहीं और नहीं मिलेगा । सात वर्षों का यह युद्धकाल उसे विश्व पटल की महानतम योद्धाओं में स्थापित करने हेतु पूर्णतया सक्षम है । यहां इस बात का उल्लेख करना महत्वपूर्ण हो जाता है कि जब हम रानी दुर्गावती, आहिल्या बाई, लक्ष्मीबाई, रजिया सुल्तान, चांद बीबी, बीबी दलबीर कौर, जियारानी या ताराबाई जैसी महान नारियों का गौरवशाली वर्णन करते हैं तो इन विभूतियों की पृष्ठभूमि में यह बात देखने में आती है कि ये सभी राजवंश की रानियां थी । सभी साधन सम्पन्न, सैन्य एवं हथियारों से सुसज्जित एवं बचपन से ही वीरता की प्रतीक थी, जबकि तीलू रौतेली एक पहाड़ी ग्रामीण अल्हड बाला थी, जिसके पिता एक साधारण थोकदार (जागीरदार) थे । उस बाला ने तलवार उठाना तो दूर की बात, अपनी हाथों में ढंग से चूडियां भी नहीं पहनी होंगी । आखिर एक पन्द्रह वर्षीय बाला तो अभी झूले की पेंग बढाने में ही अपनी निपुणता साबित करती रही होगी । लेकिन उसने जिस वीरता के साथ युद्ध किया व समस्त युद्धों में विजय पाई वह जहां उसकी वीरता को सिद्ध करता है, वहीं इन सात वर्षों के दौरान एक भी सैनिक का विद्रोह या किसी भी प्रकार की साजिश का नहीं होना, तीलू की सफल रणनीति एवं नेतृत्व कुशलता को दर्शाता है । अन्यथा हमारा इतिहास हमें बताता है कि कैसे अहिल्याबाई और रानी दुर्गावती को तो उनके ही सलाहकारों ने धोखा दिया था । जबकि तीलू के सेनापति, सलाहकार एवं शुभचिंतक सहित समस्त सरदार अपने जीवन के अंत तक उसके प्रति वफादार बने रहे ।
15 मई 1683 को विजयोल्लास में तीलू अपने अस्त्र शस्त्र को तट (नयार नदी) पर रखकर नदी में नहाने उतरी, तभी दुश्मन के एक सैनिक ने उसे धोखे से मार दिया । हालांकि तीलू रौतेली पर कई पुस्तकें प्रकाशित की जा चुकी हैं तथा कई नाट्य मंचित भी हो चुके हैं, परन्तु इस महान नायिका का परिचय पहाड की कंदराओं से बाहर नहीं निकल पा रहा है । कहां हम तीलू रौतेली को विश्व नायिका के दर्जे पर खडा देखना चाहता हैं और कहां तीलू रौतेली के विषय में अभी उत्तराखण्डवासियों को भी ज्यादा पता नहीं है। भारतीय जनमानस के मन में देवभूमि उत्तराखण्ड के प्रति आदर एवं सम्मान अवश्य है। लोग वहां की प्रकृति एवं संस्कृति के पुजारी तो हैं, परन्तु वे उत्तराखण्ड की वीरता एवं चातुर्यता के विषय में अधिक नहीं जानते हैं।इतिहास के पन्नों पर छत्रपति शिवाजी का शौर्य मण्डल जिस काल में स्वर्णाक्षरों में दर्शाया जाता है, उसी काल में आसमान पर शुक्ल पक्ष की चांद सी चमक छोडकर अचानक आसमां में विलीन होने वाली वीरबाला तीलू रौतेली का परिचय कराने में इतिहास पता नहीं क्यों मौन सा हो गया ?
इतिहास के पन्नों पर वर्णित भारत की शौर्यगाथा बताती है कि जिस समय 6 जून 1674 को रायगढ़ में मां भवानी के आशीर्वाद से छत्रपति शिवाजी का राज्याभिषेक हो रहा था, उसी काल में उत्तराखण्ड की दुर्गम पहाडियों में वीरबाला तीलू रौतेली मां दुर्गा का रूप धारण कर रणक्षेत्र की ओर प्रस्थान कर रही थी । तीलू रौतेली 15 मई 1683 को वीरगति को प्राप्त हुई, जबकि छत्रपाल उससे तीन वर्ष पूर्व 4 अप्रैल 1680 को स्वर्ग सिधार गए थे । यदि इतिहास में संयोग बन पाता और तीलू रौतेली धोखे से नहीं मारी जाती तो 1683 में युद्ध पर विजय प्राप्त करने के बाद 22 वर्षीया तीलू निश्चित रूप से छत्रपति शिवाजी के मार्ग पर चलते हुए इस राष्ट्र को मुगलों के अत्याचारों से मुक्त कर नवभारत के निर्माण में राष्ट्र नायिका बनकर उभरती और आज भारत की तस्वीर कुछ और कहानी कह रही होती । संभवत: तब अंग्रेज भी इस देश में पैर नहीं पसार पाते । लेकिन सृष्टि का रचनाकार तो भविष्य का इतिहास पहले ही गढ़ कर रख देता है, उसे भला मानव कब बदल सका ।
वीरबाला वीरांगना तीलू रौतेली की अमरगाथा इतिहास के पन्नों पर स्वर्णाक्षरों में अंकित होनी चाहिए, ताकि उसे विश्व की महानतम नारियों में स्थान प्राप्त हो सके । तीलू रौतेली का मूल नाम तिलोत्तमा देवी था। इनका जन्म आठ अगस्त 1661 को ग्राम गुराड़, चौंदकोट (पौड़ी गढ़वाल) के भूप सिंह रावत (गोर्ला) और मैणावती रानी के घर में हुआ। भूप सिंह गढ़वाल नरेश फतहशाह के दरबार में सम्मानित थोकदार थे। तीलू के दो भाई भगतु और पत्वा थे। 15 वर्ष की उम्र में ईडा, चौंदकोट के थोकदार भूम्या सिंह नेगी के पुत्र भवानी सिंह के साथ धूमधाम से तीलू की सगाई कर दी गई। 15 वर्ष की होते-होते गुरु शिबू पोखरियाल ने तीलू को घुड़सवारी और तलवार बाजी में निपुण कर दिया था। उस समय गढ़-नरेशों और कत्यूरियों में पारस्परिक प्रतिद्वंदिता चल रही थी।
कत्यूरी नरेश धामदेव ने जब खैरागढ़ पर आक्रमण किया तो गढ़नरेश मानशाह वहां की रक्षा की जिम्मेदारी भूप सिंह को सौंपकर खुद चांदपुर गढ़ी में आ गया। भूप सिंह ने डटकर आक्रमणकारियों का मुकाबला किया परंतु इस युद्ध में वे अपने दोनों बेटों और तीलू के मंगेतर के साथ वीरतापूर्वक लड़ते हुए शहीद हो गए। पिता भाई और मंगेतर की शहादत के बाद 15 वर्षीय वीरबाला तीलू रौतेली ने कमान संभाली। तीलू ने अपने मामा रामू भण्डारी, सलाहकार शिवदत्त पोखरियाल व सहेलियों देवकी और बेलू आदि के संग मिलकर एक सेना का गठन किया ।
इस सेना के सेनापति महाराष्ट्र से छत्रपति शिवाजी के सेनानायक गुरु गौरीनाथ थे। उनके मार्गदर्शन से हजारों युवकों ने प्रशिक्षण लेकर छापामार युद्ध कौशल सीखा। तीलू अपनी सहेलियों देवकी व वेलू के साथ मिलकर दुश्मनों को पराजित करने हेतु निकल पडी। उन्होंने सात वर्ष तक लड़ते हुए खैरागढ, टकौलीगढ़, इंडियाकोट भौनखाल, उमरागढी, सल्टमहादेव, मासीगढ़, सराईखेत, उफराईखाल, कलिंकाखाल, डुमैलागढ, भलंगभौण व चौखुटिया सहित 13 किलों पर विजय पाई। 15 मई 1683 को विजयोल्लास में तीलू अपने अस्त्र शस्त्र को तट (नयार नदी) पर रखकर नदी में नहाने उतरी, तभी दुश्मन के एक सैनिक ने उसे धोखे से मार दिया। हालांकि तीलू रौतेली पर कई पुस्तकें प्रकाशित की जा चुकी हैं तथा कई नाट्य मंचित भी हो चुके हैं, परन्तु इस महान नायिका का परिचय पहाड की कंदराओं से बाहर नहीं निकल पाया ।
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
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