डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला (दून विश्वविद्यालय)


देवभूमि की हवाओं, वादियों, परिवेश को यूं ही तो इतना नहीं माना जाता। हां सुंदरता के लिहाज से प्रदेश की ओर पर्यटक खिंचे चले आते हैं। लेकिन सुंदरता के अलावा भी हमारे उत्तराखंड में बहुत कुछ है। हमारे पहाड़ के खेतों में एक ऐसे सोर्स की खेती होती है जो प्रोटीन के मामले में मांसाहारी खाने को भी टक्कर दे सकता है।

हम बात कर रहे हैं भट्ट की। दरअसल, लोगों के मन में जो धारणा बन जाती है वो बस बन जाती है। उसे फिर दिमाग से निकालना मुश्किल काम होता है। एक ऐसी ही धारणा मांसाहारी खाने को लेकर भी है। दरअसल ये माना जाता है कि मांसाहारी खाना ही प्रोटीन का सबसे उत्तम सोर्स होता है। लेकिन उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों मे पाया जाने वाला काला भट्ट (वानस्पतिक नामः ग्लाइसीन मैक्स) के मुकाबले मांसाहार कुछ भी नहीं। यह लेग्युमुनेसी कुल से संबधित है।

काले भट्ट से चुड़कानी या चूंसा, रसभात, दाल, भट्ट के डूबके जैसे कई व्यंजन बनाए जाते हैं। यही नहीं अब तो सोया सॉस, मोमो चंक, और न्यूट्रेला बनाने में भी इसका इस्तेमाल होने लगा है। इससे नमकीन भी बनती है। इस गुणकारी भट्ट में प्रोटीन, विटामिन्स, मिनरल्स और फाइबर जैसे पोषक तत्व भरपूर मात्रा में होते हैं। बाजार में ब्लैक सोयाबीन की कीमत करीब 170 रूपये से 200 रूपये प्रतिकिलो है। बहुत महत्वपूर्ण काले भट्ट की जैविक फसल द्वारा पहाड़ी क्षेत्रों में रोजगार के अवसर तलाशे जा सकते हैं। पिछले एक दशक मे उत्तराखंड के कई स्थानों पर कृषि में विविधिता आई है, जिससे किसानों की आय मे भी वृद्धी हुई है। लेकिन पारंपरिक फसलों की अनदेखी के चलते इनकी कई प्रजातियाँ विलुप्त हो गयी हैं। इन्हीं मे से एक काला भट्ट है जिसकी दिन प्रति दिन पैदावार कम हो रही है। लेकिन इस काले भट्ट की अन्तराष्ट्रीय बाजार में भारी मांग है।

पहाड़ी क्षेत्रों मे भट्ट की कई किस्मे हैं, जिसमे काला चपटा मुख्य किस्म है। ।पारंपरिक व्यंजनों में काले भट्ट की दाल को खूब पसंद किया जाता है। मार्केट में इसकी खास डिमांड है।राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय बाज़ार में भी काला भट्ट की भारी मांग है आपको बता दें कि इसमें ओमेगा 3 फैटी एसिड अत्यधिक मात्रा मे पाया जाता है, जो स्वास्थ्य के लिए बहुत गुणकारी होता है। उत्तराखंड में इसकी परम्परागत खेती होती थी लेकिन आज के समय में यह बहुत कम हो गयी है।इसकी वजह सफेद सोयाबीन भट्ट को सरकारी स्तर से प्राप्त प्रोत्साहन भी है। ।

काला भट्ट में कैंसर, डायबिटीज तथा खांसी जैसी बीमारियों को रोकने के गुण हैं। दालें खानपान की संस्कृति में जुड़ी हैं। दिन के खाने में यदि दाल-भात के अलावा कुछ और खाया तो समझो खाना अधूरा रह गया। इसी तरह पंजाब व अन्य इलाकों में दाल-रोटी प्रमुख खाना है। दालें पकाकर चावल-रोटी व अन्य खाने के साथ खासतौर पर तो खाई जाती हैं किंतु एक-एक दाल के दर्जनों अन्य पकवान अलग स्वाद, गुणवत्ता व तासीर के रूप में खाने की महान परंपरा है।

कुमाऊ में भट्ट की दाल का “चुड़कानी” डुबका मशहूर है तो उड़द दाल के पकौड़ों के बिना दीपावली उत्सव व जिन्दगी के सभी शुभकार्य संपन्न नहीं होते। दालों की खेती अलग-अलग खेतों में भी की जाती है किंतु पर्यावरण व पारस्थितिकीय ढंग से बारहनाजा व रामदाना के साथ मिश्रित खेती के रूप में भी दालें उगाई जाती है। पहाड़ों में “बारानाजा” की मिश्रित खेती एक पुरातन खेती की पद्धति है, जिसमें मंडुआ के साथ रामदाना, ज्वार, ओगल (कुट्टू) राजमा, कुल्थ (गैथ) भट्ट (पारंपरिक सोयाबीन) लोबिया, नौरंगी, उड़द, मूंग, तिल व भंगजीर जैसे खाद्यान, दलहन-तिलहन मिश्रित रूप से उगाए जाते हैं। फसलों की संख्या कम ज्यादा हो सकती है। रामदाना, ज्वार, मंडुआ ऊंचे तने वाले होते हैं।

दलहन की खेती की उपेक्षा 1960-70 के दशक से हरित क्रांति के साथ शुरू हुई थी। हरित क्रांति के संकर बीजों, रासायनिक खाद, कीटनाशक जहर व खरपतवार नाशी संसाधनों ने स्वावलंबी घर की खेती को पराया बना दिया। उपभोक्ताओं का स्वास्थ्य भी बिगड़ा। 1961 में दलहन की खेती की हिस्सेदारी 17 प्रतिशत थी जो 2021 में घटकर 6 प्रतिशत रह गई। इस तरह दालें गरीबों के भोजन की थाली से गायब होती गईं और कुपोषण बढ़ता गया।  राज्य गठन से लेकर अब तक की अवधि को ही देखें तो इस डेढ़ दशक में तीन हजार गांव खाली हुए हैं तो बड़े पैमाने पर खेत बंजर हुए। ऐसे में परंपरागत खेती को बढ़ावा देने से इस स्थिति पर कुछ अंकुश अवश्य लगेगा।

राज्य की कृषि की स्थिति पर नजर डालें तो सूबे में 7.6 लाख हेक्टेयर कृषि भूमि है। इसका 3.31 हेक्टेयर क्षेत्र मैदानी और 4.37 हेक्टेयर पर्वतीय है। कुल कृषि भूमि का 3.43 लाख हेक्टयेर क्षेत्रफल ही सिंचित है। मैदानी क्षेत्र में सिंचित भूमि 2.98 लाख हेक्टेयर है, जबकि पहाड़ में महज 0.45 हेक्टयेर। राज्य में कृषकों की संख्या 8.90 किसानों में 7.87 लाख लघु एवं सीमांत श्रेणी में हैं। पर्वतीय क्षेत्रों की बात करें तो वहां अधिकांश कृषक लघु एवं सीमांत श्रेणी के हैं। खेत छोटे और जोत बिखरी हुई है। सिंचाई की सुविधा न के बराबर है। इस सबके चलते पर्वतीय अंचलों में खेती में किसान सामान्यत: परंपरागत कृषि तकनीकी का ही प्रयोग करते हैं। यही वजह है कि पर्वतीय क्षेत्र आज भी हरित क्रांति के प्रभाव से अछूता रहा है।

यही नहीं, पहाड़ में विषम भौगोलिक परिस्थितियों के कारण कृषि उत्पादन भी काफी कम है, जबकि वहां जीवन निर्वाह का मुख्य साधन खेती ही है। बता दें कि पर्वतीय क्षेत्र में होने वाली खेती पूरी तरह जैविक है। खेती में गोबर एवं कंपेास्ट का प्रयोग होने से यहां उत्पादित होने वाली फसलें पौष्टिकता से लबरेज हैं। खासकर, मंडुवा, झंगोरा, चीणा, दलहनी फसलों तोर, उड़द, नौरंगी, मसूर, गहथ, तिलहन में सोयाबीन, भट्ट, तिल, तोडिय़ा और सरसों की खासी मांग भी है। हालांकि, प्राचीन एवं परंपरागत तकनीकी के कारण पहाड़ में इन फसलों की उत्पादकता काफी कम है। साफ है कि परंपरागत तकनीकी में आधुनिक कृषि तकनीकी का समावेश कर इन फसलों के उत्पादन और उत्पादकता में बढ़ोत्तरी की जा सकती है। इससे कृषकों की आय में वृद्धि होने से उनके जीवन स्तर में भी सुधार आ सकेगा। इसी मंशा के साथ परंपरागत खेती को बढ़ावा देने की पहल की गई है। कृषि विभाग के मुताबिक इस कड़ी में राज्य में करीब साढ़े पांच सौ कलस्टर में इस योजना को धरातल पर उतारा जाएगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि कृषि महकमा पूरी मुस्तैदी और गंभीरता से इस योजना को धरातल पर उतारेगा, ताकि पहाड़ की खेती की तस्वीर संवर सके।