लगा दो आग पानी में, शरारत हो तो ऐसी हो, मिटा दो जुल्म की हस्ती, बगावत हो तो ऐसी हो

उत्तराखंड राज्य आंदोलन में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा। 27 मार्च 1998 को शराब नीलामी के विरोध में उन्होंने कलेक्ट्रेट परिसर में आत्मदाह कर लिया था। 16 मई 1998 में सफदरजंग अस्पताल दिल्ली में इलाज के दौरान उन्होंने दम तोड़ दिया। तीन बार छात्रसंघ महासचिव व एक बार एलएसएसएम पीजी कॉलेज पिथौरागढ़ के छात्रसंघ अध्यक्ष रहे पंडित छात्रों के बीच बेहद लोकप्रिय थे। गंगोलीहाट की चिटगल सीट से पंडित जिला पंचायत सदस्य भी रहे। राज्य आंदोलन के दौरान वह 58 दिनों तक फतेहगढ़ जेल में भी रहे। 1996 में पुलिस भर्ती निरस्त कराने में भी पंडित की अहम भूमिका रही राज्य आंदोलन के नायक रहे प्रखर छात्रनेता स्वर्गीय निर्मल पंडित को आज तक उनके सपनों के उत्तराखंड में राज्य आंदोलनकारी का दर्जा नहीं मिल पाया।

तीन बार छात्र संघ महासचिव और एक बार अध्यक्ष रहे निर्मल पंडित छात्रों के बीच खासे लोकप्रिय थे।उत्तराखंड राज्य आंदोलन में भी उन्होंने अहम भूमिका निभाई। राज्य आंदोलन से जुड़े लोगों को 27 जुलाई 1994 का वह दिन याद है, जब निर्मल पंडित के नेतृत्व में 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण के विरोध में पिथौरागढ़ महाविद्यालय में प्रवेश पत्र फाड़ दिए गए थे। यहीं से पूरे कुमाऊ मंडल में ओबीसी विरोधी आंदोलन का आगाज हुआ, जो बाद में राज्य आंदोलन में तब्दील हो गया। राज्य आंदोलन के दौर में पंडित के नेतृत्व में आंदोलनकारियों ने अंतरिम सरकार का गठन किया, जिसके मुख्यमंत्री पंडित चुने गए। वर्ष 1998 में पहाड़ पर शराब की दुकानों का विरोध चरम पर था। 27 मार्च 1998 को पिथौरागढ़ में शराब की नीलामी का विरोध करने के दौरान पंडित ने कथित रूप से आत्मदाह कर लिया, हालांकि उनके परिजन आज भी नहीं मानते कि निर्मल ने आत्मदाह किया था। दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में इलाज के दौरान 16 मई 1998 को काल के क्रूर प्रहार ने एक होनहार नेता को राज्य गठन से पहले ही हमसे छीन लिया। एक बार फिर पिथौरागढ़ समेत पूरा पहाड़ निर्मल की शहादत को लेकर उबल गया। पंडित के आत्मदाह प्रकरण की सीबीआई जांच की मांग उठी, जो पूरी नहीं हो सकी।

पंडित के पिता ईश्वरी प्रसाद जोशी का निधन हो चुका है। मां प्रेमा जोशी पुत्री गीता जोशी के साथ रुद्रपुर में रहती हैं। पंडित माता-पिता के एकलौता पुत्र थे। राज्य आंदोलन के दौरान पंडित 58 दिनों तक फतेहगढ़ (फर्रुखाबाद) जेल में बंद रहे। उनके साथ फतेहगढ़ जेल में रहे गोविंद महर (गोपू) को राज्य आंदोलनकारी का दर्जा मिला, लेकिन पंडित को सरकार ने मरणोपरांत राज्य आंदोलनकारी का दर्जा नहीं दिया। उनके साथ जेल गए राज्य आंदोलनकारी गोपू कहते हैं कि पंडित को मरणोपरांत राज्य आंदोलनकारी का दर्जा दिलाने और उनकी मां को पेंशन दिलाने की लड़ाई लगातार लड़ रहे हैं, लेकिन किसी भी सरकार ने इस दिशा में ध्यान नहीं दिया। विगत वर्षों से पंडित की पुण्यतिथि का आयोजन कर रहे जुगल किशोर पांडे, पंडित ट्रस्ट के सचिव भगवान पंत कहते हैं कि पंडित को राज्य बनने के बाद वह सम्मान नहीं मिला, जिसके वह हकदार थे। क्रांतिकारी छात्र नेता के बलिदान को कभी नहीं भुलाया जा सकता है। युवा पीढ़ी को उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए। राज्य आंदोलनकारी निर्मल पंडित की 24 वीं पुण्यतिथि पर पिथौरागढ़ शहीद स्मारक स्थित मूर्ति पर माल्यार्पण कर उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि दी गई।

उत्तराखंड में जब भी जनांदोलनों की बात होगी, आंदोलन के अगुवा के रूप में स्व. पंडित को जरूर याद किया जाएगा। राज्य बनने के सभी सरकारों ने पंडित की उपेक्षा की है. आलम ये है कि उनकी बूढ़ी मां तमाम अभावों को झेलते हुए अपना जीवन यापन कर रही हैं. साथ ही महर ने कहा कि एक तरफ सरकार गैरसैंण में विधानसभा का सत्र चलाकर करोड़ों रुपया बहा रही है. वहीं दूसरी ओर जिस पंडित के संघर्ष से राज्य बना है, उत्तराखंड के इतिहास की एक ऐसी तारीख, जब राज्य के एक होनहार युवा ने नशामुक्त उत्तराखंड की परिकल्पना लिए स्वयं को शहीद कर दिया। उम्मीदों व संभावनाओं से भरा यह युवा नेतृत्वकारी था निर्मल कुमार जोशी उर्फ निर्मल पंडित। एक ऐसा उभरता हुआ युवा क्रांतिकारी, जिससे लोगों को बड़ी उम्मीदें थीं, लेकिन निर्मल के साथ ही नशामुक्त उत्तराखंड के सवाल भी नेपथ्य में चले गए हैं।

जिस प्रदेश में संसाधनों का अभाव हो और जिसके चलते शराब व्यवसाय ही राजस्व प्राप्ति का सबसे बड़ा स्रोत हो, वहां शराब मुक्ति के लिए राज्य सरकार से कोई उम्मीद करना बेमानी ही होगा। वह भी तब, जब सबसे अधिक मोटा मुनाफा शराब के जरिए ही आता हो। कितना दुर्भाग्य है कि समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार और कुरीतियों को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए बिना अपने भविष्य की परवाह किए जब कोई मिसाल बन कर आगे आता है तो उस वक्त समाज उसका समर्थन भले ही करे, लेकिन जब बात उसकी रक्षा की आती है तो वे सभी मौन हो जाते हैं, जिनके हितों के लिए लड़ाई लड़ी जा रही है। ऐसे ही एक जुझारू युवा थे निर्मल पंडित, जिसने नशामुक्त उत्तराखंड का सपना देखने की कीमत अपनी जान देकर चुकाई। अफसोस यह है कि उनके बलिदान के बाद भी शराब रूपी कुप्रथा खत्म होने की बजाय दिनों दिन बढ़ती ही जा रही है।

जनता के सवालों को लेकर हमेशा आगे रहने की आदत के चलते निर्मल हर वर्ग में काफी लोकप्रिय था। आत्मनिर्भर व नशामुक्त उत्तराखंड का जो सपना वह तलाश रहा था, उसे पूरा करते-करते वह खुद ही भटककर अंततः शहीद हो गया और उसकी मौत के साथ ही दम तोड़ गए नशामुक्त उत्तराखंड के सवाल। पिथौरागढ़ में शराब के ठेकों की नीलामी का विरोध कर रहे निर्मल की आवाज जब लोकतंत्र का राग भैरवी गाकर सत्ता की देहरी चूमने वाले नीति नियंताओं तक नहीं पहुंची तो बेचारे निर्मल के पास आत्मदाह के अलावा कोई और चारा शेष न रहा। आत्मदाह करते समय उनका शरीर अस्सी प्रतिशत तक झुलस गया। पिथौरागढ़ में इलाज संभव न हुआ तो उन्हें दिल्ली रेफर कर दिया गया, जहां दो दिन तक जिंदगी और मौत के बीच जूझने के बाद 16 मई 1998 को नशामुक्त राज्य का सपना देखते-देखते निर्मल ने आंखें मूंद लीं।

गंगोलीहाट में जन्मे निर्मल बचपन से ही ईमानदार और जुझारू प्रवृत्ति के मालिक रहे। जनता के हितों से जुड़े सवालों पर वे बेबाकी से अपनी राय रखते थे। बचपन से ही शराब के चलते कई घरों को बर्बाद होते देख उनके मन में शराबमुक्त उत्तराखंड का सपना तैरने लगा और वे इसके लिए जगह-जगह जाकर लोगों को जागरूक करते रहे। गलत को गलत और सही को सही कहने का साहस था उनमें और इसी गुण के सभी कायल थे। छात्र जीवन में तो उनके क्रांतिकारी विचारों ने लोगों को झकझोर डाला। उनकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे लगातार दो बार पिथौरागढ़ स्नात्कोत्तर महाविद्यालय में निर्विरोध महासचिव चुने गए और एक बार छात्रसंघ के अध्यक्ष भी रहे। बहरहाल इस बार भी 16 मई को उन्हें याद किया गया। लेकिन इसी दौरान शराब की नई दुकानों के ठेके भी छूटे।

इस बार भी रामलीला मैदान स्थित उनकी मूर्ति पर माल्यार्पण कर उन्हें श्रद्धांजलि प्रदान की गई, लेकिन लाख टके का सवाल ये है कि वर्तमान परिदृश्य में, जब शराब उत्तराखंड सरकार के राजस्व प्राप्ति का सबसे बड़ा साधन हो, ऐसे में शराब मुक्ति का निर्मल का देखा सपना पूरा होने में संदेह ही है। कहने को तो राज्य आंदोलन व नशा मुक्त उत्तराखंड के लिए किए गए उनके संघर्षों को याद करने का सिलसिला पिछले 22 वर्षों से जारी है, लेकिन विडंबना यह है कि पंडित की शहादत भी नशे की गिरफ्त से पहाड़ को नहीं बचा पाई। नशा आज भी उत्तराखंड की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक बना हुआ है। नशे ने यहां के सामाजिक- आर्थिक-राजनैतिक ताने-बाने को पूरी तरह से झकझोर कर रख दिया है। हर वर्ष करोड़ों रूपया शराब में जा रहा है। परिवार के परिवार कंगाल हो रहे हैं। शराब के चलते पहाड़ न सिर्फ आर्थिक कंगाली के कगार पर खड़े हैं, बल्कि यह पहाड़ की पूरी सामाजिक समरसता पर भी खतरा पैदा किए हुए है। जिस जिला मुख्यालय में पंडित ने शराब के खिलाफ शहादत दी थी, उसी जिला मुख्यालय में शराब की दुकानों व बारों की लाईन लगी है। हर शाम पियक्कड़ों से मुख्यालय गुलजार रहता है।

राज्य बनने के बाद उम्मीद थी कि निर्मल जैसे आंदोलनकारियों के नशामुक्त उत्तराखंड के संघर्षों व बलिदान को ध्यान में रखकर दशा व दिशा तय होगी। लेकिन कंगाल राज्य के कर्णधारों को राज्य की माली हालत सुधरने के लिए शराब से मिलने वाला राजस्व सबसे बेहतर तरीका लगा। पिछले 22 सालों में साल दर साल राज्य में शराब की दुकानों की संख्या बढ़ती चली गई। कस्बों- गांवों मे बिजली, पानी, स्वास्थ्य सुविधाएं, स्कूल, सड़क भले ही उपलब्ध न हों, लेकिन विदेशी-देशी हर तरह की शराब की वैराइटी यहां उपलब्ध है। जहां शराब की दुकानें नहीं खुल पाई हैं, वहां शराब मापिफयाओं द्वारा लोगों तक आसानी से शराब मुहैया करा दी जा रही है। शराब के इस खेल में चंद लोग तो मालामाल हो रहे हैं और हजारों परिवार साल दर साल सामाजिक-आर्थिक तौर पर तबाह होते जा रहे है। एक युवा ने शराब के लिए अपने को कुर्बान कर दिया लेकिन उसी राज्य के हजारों युवाओं की पहली पसंद आज शराब व्यवसाय है। हजारों युवक इस धंधे से अपनी रोजी-रोटी चला रहे हैं। हर साल मार्च-अप्रैल में शराब के खिलाफ कोहराम अवश्य मचता है लेकिन फिर शराब बेचने वाले व पीने वाले दोनों अपनी दुनिया में साल भर मस्त रहते हैं।

संसाधनों के अभाव में विकास की गंगा के लिए तरसते राज्यवासियों को शराब की गर्त में डुबोकर उनके दुखों को दूर करने का जो कुत्सित प्रयास सरकार कर रही है, उससे फायदा सिर्फ और सिर्फ सरकार को ही है, वो भी करोड़ों के भारी-भरकम राजस्व के रूप में। राज्यवासियों को तो इससे कुछ हासिल नहीं हो पाएगा, सिवाय झूठे आनंद के। और इस आनंद के बाद कुछ रह जाएगा तो परिवार की आंखों में घृणा। इन सबके बावजूद 16 मई को इस बहाने तो याद कर ही सकते हैं कि कोई तो था, जिसने राज्य की महिलाओं को यह उम्मीद दिलाई कि अब उनके परिवार शराब से तबाह नहीं होंगे। भले ही निर्मल इस लड़ाई को आगे न ले जा सके हों, लेकिन कुछ समय से प्रदेश में महिलाओं द्वारा शराब के खिलाफ जो जागरूकता देखी जा रही है, वह अंधेरे में टिमटिमाती लौ की तरह ही सही, पर कुछ उम्मीद की किरण तो जगाती ही है। आशा की जानी चाहिए कि निर्मल की शहादत पर केवल हंगामा खड़ा न करके सूरत बदलने की कोशिश की जाएगी।

ये लेखक के निजी विचार हैं।

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला (दून विश्वविद्यालय)

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