श्रीनिवास रामानुजन (22 दिसंबर 1887 से 26 अप्रैल 1920)
रामानुजन बचपन से ही विलक्षण प्रतिभावान थे। इन्होंने खुद से गणित सीखा और अपने जीवनभर में गणित के 3,884 प्रमेयों का संकलन किया। इनमें से अधिकांश प्रमेय सही सिद्ध किये जा चुके हैं। इन्होंने गणित के सहज ज्ञान और बीजगणित प्रकलन की अद्वितीय प्रतिभा के बल पर बहुत से मौलिक और अपारम्परिक परिणाम निकाले जिनसे प्रेरित शोध आज तक हो रहा है, यद्यपि इनकी कुछ खोजों को गणित मुख्यधारा में अब तक नहीं अपनाया गया है। हाल में इनके सूत्रों को क्रिस्टल-विज्ञान में प्रयुक्त किया गया है। इनके कार्य से प्रभावित गणित के क्षेत्रों में हो रहे काम के लिये रामानुजन जर्नल की स्थापना की गई है।
रामानुजन का जन्म 22 दिसम्बर 1887 को मद्रास से 400 किमी दूर इरोड नामक एक छोटे से गांव में हुआ था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा की एक रोचक घटना है। गणित के अध्यापक कक्षा में भाग की क्रिया समझा रहे थे। उन्होंने प्रश्न किया कि अगर तीन केले तीन विद्यार्थियों में बांटे जाये तो हरेक विद्यार्थी के हिस्से में कितने केले आयेंगे? विद्यार्थियों ने तत्काल उत्तर दिया कि हरेक विद्यार्थी को एक-एक केला मिलेगा। इस प्रकार अध्यापक ने समझाया कि अगर किसी संख्या को उसी संख्या से भाग दिया जाये तो उसका उत्तर एक होगा। लेकिन तभी कोने में बैठे रामानुजन ने प्रश्न किया कि, यदि कोई भी केला किसी को न बाँटा जाए, तो क्या तब भी प्रत्येक विद्यार्थी को एक केला मिल सकेगा? सभी विद्यार्थी इस प्रश्न को सुनकर हँस पड़े, क्योंकि उनकी दृष्टि में यह प्रश्न मूर्खतापूर्ण था। लेकिन बालक रामानुजन द्वारा पूछे गए इस गूढ़ प्रश्न पर गणितज्ञ सदियों से विचार कर रहे थे। प्रश्न था कि अगर शून्य को शून्य से विभाजित किया जाए तो परिणाम क्या होगा? भारतीय गणितज्ञ भास्कराचार्य ने कहा था कि अगर किसी संख्या को शून्य से विभाजित किया जाये तो परिणाम ‘अनन्त’ होगा। रामानुजन ने इसका विस्तार करते हुए कहा कि शून्य का शून्य से विभाजन करने पर परिणाम कुछ भी हो सकता है अर्थात् वह परिभाषित नहीं है। रामानुजन की प्रतिभा से अध्यापक बहुत प्रभावित हुए।
प्रारंभिक शिक्षा के बाद इन्होंने हाई स्कूल में प्रवेश लिया। यहाँ पर तेरह वर्ष की अल्पावस्था में इन्होने ‘लोनी’ कृत विश्व प्रसिद्ध ‘त्रिकोणमिति’ को हल किया और पंद्रह वर्ष की अवस्था में जार्ज शूब्रिज कार कृत `सिनोप्सिस ऑफ़ एलिमेंट्री रिजल्टस इन प्योर एण्ड एप्लाइड मैथेमैटिक्स’ का अध्ययन किया। इस पुस्तक में दी गयी लगभग पांच हज़ार प्रमेयों को रामानुजन ने सिद्ध किया और उनके आधार पर नए प्रमेय विकसित किये। इसी समय से रामानुजन ने अपनी प्रमेयों को नोटबुक में लिखना शुरू कर दिया था। हाई स्कूल में अध्ययन के लिए रामानुजन को छात्रवृत्ति मिलती थी परंतु रामानुजन के द्वारा गणित के अलावा दूसरे सभी विषयों की उपेक्षा करने पर उनकी छात्रवृत्ति बंद कर दी गई। उच्च शिक्षा के लिए रामानुजन मद्रास विश्वविद्यालय गए परंतु गणित को छोड़कर शेष सभी विषयों में वे अनुत्तीर्ण हो गए। इस तरह रामानुजन की औपचारिक शिक्षा को एक पूर्ण विराम लग गया। लेकिन रामानुजन ने गणित में शोध करना जारी रखा।
कुछ समय उपरांत इनका विवाह हो गया गया और वे आजीविका के लिए नौकरी खोजने लगे। इस समय उन्हें आर्थिक तंगी से गुजरना पड़ा। लेकिन नौकरी खोजने के दौरान रामानुजन कई प्रभावशाली व्यक्तियों के सम्पर्क में आए। ‘इंडियन मेथमेटिकल सोसायटी’ के संस्थापकों में से एक रामचंद्र राव भी उन्हीं प्रभावशाली व्यक्तियों में से एक थे। रामानुजन ने रामचंद्र राव के साथ एक वर्ष तक कार्य किया। इसके लिये इन्हें 25 रू. महीना मिलता था। इन्होंने ‘इंडियन मेथमेटिकल सोसायटी’ की पत्रिका (जर्नल) के लिए प्रश्न एवं उनके हल तैयार करने का कार्य प्रारंभ कर दिया। सन् 1911 में बर्नोली संख्याओं पर प्रस्तुत शोधपत्र से इन्हें बहुत प्रसिद्धि मिली और मद्रास में गणित के विद्वान के रूप में पहचाने जाने लगे। सन् 1912 में रामचंद्र राव की सहायता से मद्रास पोर्ट ट्रस्ट के लेखा विभाग में लिपिक की नौकरी करने लगे। सन् 1913 में इन्होंने जी. एम. हार्डी को पत्र लिखा और उसके साथ में स्वयं के द्वारा खोजी प्रमेयों की एक लम्बी सूची भी भेजी।
यह पत्र हार्डी को सुबह नाश्ते के टेबल पर मिले। इस पत्र में किसी अनजान भारतीय द्वारा बहुत सारे प्रमेय बिना उपपत्ति के लिखे थे, जिनमें से कई प्रमेय हार्डी पहले ही देख चुके थे। पहली बार देखने पर हार्डी को ये सब बकवास लगा। उन्होंने इस पत्र को एक तरफ रख दिया और अपने कार्यों में लग गए परंतु इस पत्र की वजह से उनका मन अशांत था। इस पत्र में बहुत सारे ऐसे प्रमेय थे जो उन्होंने न कभी देखे और न सोचे थे। उन्हें बार-बार यह लग रहा था कि यह व्यक्ति या तो धोखेबाज है या फिर गणित का बहुत बड़ा विद्वान। रात को हार्डी ने अपने एक शिष्य के साथ एक बार फिर इन प्रमेयों को देखा और आधी रात तक वे लोग समझ गये कि रामानुजन कोई धोखेबाज नहीं बल्कि गणित के बहुत बड़े विद्वान हैं, जिनकी प्रतिभा को दुनिया के सामने लाना आवश्यक है। इसके बाद हार्डी और रामानुजन में पत्रव्यवहार शुरू हो गया। हार्डी ने रामानुजन को कैम्ब्रिज आकर शोध कार्य करने का निमंत्रण दिया। रामानुजन का जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था। वह धर्म-कर्म को मानते थे और कड़ाई से उनका पालन करते थे। वह सात्विक भोजन करते थे। उस समय मान्यता थी कि समुद्र पार करने से धर्म भ्रष्ट हो जाएगा। इसलिए रामानुजन ने कैम्ब्रिज जाने से इंकार कर दिया। लेकिन हार्डी ने प्रयास जारी रखा और मद्रास जा रहे एक युवा प्राध्यापक नेविल को रामानुजन को मनाकर कैम्ब्रिज लाने के लिए कहा। नेविल और अन्य लोगों के प्रयासों से रामानुजन कैम्ब्रिज जाने के लिए तैयार हो गए। हार्डी ने रामानुजन के लिए केम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज में व्यवस्था की।
जब रामानुजन ट्रिनिटी कॉलेज गए तो उस समय पी.सी. महलानोबिस [प्रसिद्ध भारतीय सांख्यिकी विद] भी वहां पढ़ रहे थे। महलानोबिस रामानुजन से मिलने के लिए उनके कमरे में पहुंचे। उस समय बहुत ठंड थी। रामानुजन अंगीठी के पास बैठे थे। महलानोबिस ने उन्हें पूछा कि रात को ठंड तो नहीं लगी। रामानुजन ने बताया कि रात को कोट पहनकर सोने के बाद भी उन्हें ठंड लगी। उन्होंने पूरी रात चादर ओढ़ कर काटी थी क्योंकि उन्हें कम्बल दिखाई नहीं दिया। महलानोबिस उनके शयन कक्ष में गए और पाया कि वहां पर कई कम्बल हैं। अंग्रेजी शैली के अनुसार कम्बलों को बिछाकर उनके ऊपर चादर ढकी हुई थी। जब महलानोबिस ने इस अंग्रेजी शैली के बारे में बताया तो रामानुजन को अफ़सोस हुआ। वे अज्ञानतावश रात भर चादर ओढ़कर ठंड से ठिठुरते रहे। रामानुजन को भोजन के लिए भी कठिन परेशानी से गुजरना पड़ा। शुरू में वे भारत से दक्षिण भारतीय खाद्य सामग्री मंगाते थे लेकिन बाद में वह बंद हो गयी। उस समय प्रथम विश्वयुद्ध चल रहा था। रामानुजन सिर्फ चावल, नमक और नीबू-पानी से अपना जीवन निर्वाह करने लगे। शाकाहारी होने के कारण वे अपना भोजन खुद पकाते थे। उनका स्वभाव शांत और जीवनचर्या शुद्ध सात्विक थी।
रामानुजन ने गणित में सब कुछ अपने बलबूते पर ही किया। इन्हें गणित की कुछ शाखाओं का बिलकुल भी ज्ञान नहीं था पर कुछ क्षेत्रों में उनका कोई सानी नहीं था। इसलिए हार्डी ने रामानुजन को पढ़ाने का जिम्मा स्वयं लिया। स्वयं हार्डी ने इस बात को स्वीकार किया कि जितना उन्होंने रामानुजन को सिखाया उससे कहीं ज्यादा रामानुजन ने उन्हें सिखाया। सन् 1916 में रामानुजन ने केम्ब्रिज से बी. एस-सी. की उपाधि प्राप्त की।
रामानुजन और हार्डी के कार्यों ने शुरू से ही महत्वपूर्ण परिणाम दिये। सन् 1917 से ही रामानुजन बीमार रहने लगे थे और अधिकांश समय बिस्तर पर ही रहते थे। इंग्लैण्ड की कड़ी सर्दी और कड़ा परिश्रम उनके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक सिद्ध हुई। इनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा और उनमें तपेदिक के लक्षण दिखाई देने लगे। इधर उनके लेख उच्चकोटि की पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे थे। सन् 1918 में, एक ही वर्ष में रामानुजन को कैम्ब्रिज फिलोसॉफिकल सोसायटी, रॉयल सोसायटी तथा ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज तीनों का फेलो चुन गया। इससे रामानुजन का उत्साह और भी अधिक बढ़ा और वह शोध कार्य में जोर-शोर से जुट गए। सन् 1919 में स्वास्थ बहुत खराब होने की वजह से उन्हें भारत वापस लौटना पड़ा।
रामानुजन की स्मरण शक्ति गजब की थी। वे विलक्षण प्रतिभा के धनी और एक महान गणितज्ञ थे। एक बहुत ही प्रसिद्ध घटना है। जब रामानुजन अस्पताल में भर्ती थे तो डॉ. हार्डी उन्हें देखने आए। डॉ. हार्डी जिस टैक्सी में आए थे उसका नम्बर था 1729 । यह संख्या डॉ. हार्डी को अशुभ लगी क्योंकि 1729 = 7 x 13 x 19 और इंग्लैण्ड के लोग 13 को एक अशुभ संख्या मानते हैं। परंतु रामानुजन ने कहा कि यह तो एक अद्भुत संख्या है। यह वह सबसे छोटी संख्या है, जिसे हम दो घन संख्याओं के जोड़ से दो तरीके में व्यक्त कर सकते हैं। (1729 = 12x12x12 + 1x1x1,और 1729 = 10x10x10 + 9x9x9)।
सन् 1903 से 1914 के बीच, कैम्ब्रिज जाने से पहले रामानुजन अपनी `नोट बुक्स’ में तीन हज़ार से ज्यादा प्रमेय लिख चुके थे। उन्होंने ज्यादातर अपने निष्कर्ष ही दिए थे और उनकी उपपत्ति नहीं दी। 1967 में प्रोफेसर ब्रूस सी. बर्नाड्ट को जब ‘रामानुजन नोट बुक्स’ दिखाई गयी तो उस समय उन्होंने इस पुस्तक में कोई रुचि नहीं ली। बाद में उन्हें लगा कि वह रामानुजन के प्रमेयों की उत्पत्तियाँ दे सकते हैं। प्रोफेसर बर्नाड्ट ने अपना पूरा ध्यान रामानुजन की पुस्तकों के शोध में लगा दिया। उन्होंने रामानुजन की तीन पुस्तकों पर 20 वर्षों तक शोध किया।
1919 में इंग्लैण्ड से वापस आने के पश्चात् रामानुजन 3 महीने मद्रास, 2 महीने कोदमंडी और 4 महीने कुंभकोणम में रहे। उनकी पत्नी ने उनकी बहुत सेवा की। पति-पत्नी का साथ बहुत कम समय तक रहा। रामानुजन के इंग्लैंड जाने से पूर्व वे एक वर्ष तक उनके साथ रही। उन्हें माँ होने का सुख भी प्राप्त नहीं हुआ। इससे पहले ही 26 अप्रैल 1920 को 32 वर्ष 4 महीने और 4 दिन की अल्पायु में रामानुजन इस दुनिया से चले गए।
साभार – आर्य समाज
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