माना जाता है कि ‘कल्ट ऑफ पर्सनैलिटी’ या व्यक्ति पूजा शब्द का इस्तेमाल सबसे पहले सोवियत संघ के तानाशाह जोसेफ स्टालिन के लिए किया गया था. दो दशक से भी ज्यादा वक्त तक सत्ता में रहने के बाद स्टालिन की 1953 में मौत हुई थी. इसके तीन साल बाद तत्कालीन सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की 20वीं बैठक में उनके उत्तराधिकारी निकिता खुर्श्चेव ने इसका जिक्र किया कि स्टालिन के इर्दगिर्द व्यक्ति पूजा का जो आभामंडल बनाया गया उसने किस तरह पार्टी और देश का नुकसान किया. उनका कहना था, ‘किसी एक व्यक्ति को ऊंचा उठाकर उसे भगवान जैसी असाधारण ताकतें रखने वाले सुपरमैन में तब्दील कर देना मार्क्सवाद-लेनिनवाद के लिए अस्वीकार्य और अजनबी बात थी. ऐसे आदमी के बारे में मान लिया जाता है कि वह सब कुछ जानता है, सब कुछ देखता, सबके लिए सोचता है, कुछ भी कर सकता है और उससे कोई भूल हो ही नहीं सकती.’
‘कल्ट ऑफ पर्सनैलिटी’ शब्द भले ही 1956 से इस्तेमाल होना शुरू हुआ हो, लेकिन राजनीति में व्यक्ति पूजा के उदाहरण स्टालिन से पहले भी मिलते हैं. इटली में मुसोलिनी और जर्मनी में हिटलर इनमें शामिल हैं. इन नेताओं ने प्रचार और राज्य की मशीनरी का इस्तेमाल करके खुद को ईश्वर जैसे दर्जे में पहुंचा दिया था. मुसोलिनी और हिटलर के पास भी असीमित शक्तियां थीं और वे भी सहयोगियों और जनता से अपनी सनक के लिए पूर्ण समर्पण चाहते थे. ऐसा करने में वे सफल भी हुए.
स्टालिन से पहले इस तरह के जो व्यक्ति हुए उनमें से ज्यादातर दक्षिणपंथी विचारधारा वाले तानाशाह थे. स्टालिन के बाद ज्यादातर तानाशाह वामपंथी विचारधारा वाले हुए. इनमें क्यूबा के फिदेल कास्त्रो, वियतनाम के हो ची मिन्ह, वेनेजुएला के ह्यूगो शावेज और इन सबसे ऊपर चीन के माओत्से तुंग शामिल हैं. चीन का आकार देखते हुए माओ को इनमें सबसे ऊपर रखा जा सकता है. करोड़ों लोग उनके सम्मान में सिर झुकाते थे और उनकी हर बात को ईश्वर की वाणी समझते थे.
इसे चीनी सेना के आधिकारिक अखबार पीएलए डेली के 13 अगस्त 1967 के अंक में छपे एक लेख से इन शब्दों से समझा जा सकता है: ‘दुनिया में विलक्षण प्रतिभा वाली जो हस्तियां हैं उनमें चेयरमैन माओ सबसे असाधारण और महान हैं. उनकी सोच चीन और बाकी दुनिया में सर्वहारा वर्ग के संघर्षों का निचोड़ है और ऐसा सच है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता. चेयरमैन माओ के निर्देशों को लागू करते वक्त हमें इस पर बिल्कुल भी ध्यान नहीं देना चाहिए कि वे हमारी समझ में आते हैं या नहीं. क्रांतिकारी संघर्षों के अनुभव हमें बताते हैं कि चेयरमैन माओं के कई निर्देशों को हम शुरुआत में पूरी तरह या आंशिक रूप से समझ नहीं पाते, लेकिन उन्हें लागू करने के दौरान वे धीरे-धीरे हमारी समझ में आने लगते हैं या फिर ऐसा कई साल बाद होता है. इसलिए हमें पूरे संकल्प के साथ चेयरमैन माओ के आदेश लागू करने चाहिए. उन्हें भी जो हमारी समझ में आते हैं और उन्हें भी जिन्हें हम सभी नहीं समझ पा रहे.’
स्टालिन की व्यक्ति पूजा से रूस को हुए नुकसान के बारे में बताने वाले खुर्श्चेव के भाषण से सात साल पहले बीआर अंबेडकर ने चेतावनी दी थी कि भारतीयों में भी किसी व्यक्ति को भगवान बनाकर उसकी पूजा करने की अपनी ही तरह की एक अजीब प्रवृत्ति है. संविधान लागू होने के समय उनके शब्द याद कीजिए: ‘धर्म में भक्ति आत्मा की मुक्ति का साधन हो सकती है लेकिन, राजनीति में किसी व्यक्ति की भक्ति निश्चित रूप से पतन और आखिरकार तानाशाही की तरफ ले जाती है.’
1970 का दशक आते-आते भारतीय अंबेडकर की चेतावनी भूल चुके थे. इंदिरा गांधी ने इसका फायदा उठाया और जनता से मिली शक्ति का इस्तेमाल उसी जनता के अधिकारों के लिए बनी लोकतांत्रिक संस्थाओं के दमन के लिए किया. यह वही दौर था जब उनके चाटुकार कांग्रेस पार्टी के एक अध्यक्ष ने कहा था कि ‘इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा. यह बात खुद के लिए ही नहीं बल्कि करोड़ों भारतीयों के लिए भी कही जा रही थी. यानी वही हुआ जिसकी चेतावनी अंबेडकर ने दी थी.
हिटलर, मुसोलिनी, स्टालिन, कास्त्रो और माओ के पास मृत्युपर्यंत संपूर्ण शक्ति रही. इंदिरा गांधी के मामले में ऐसा नहीं था. उनके पास ऐसी शक्ति करीब दो साल तक रही. इसके बाद उन्होंने वह आपातकाल हटा दिया जो उन्होंने ही थोपा था और नए आम चुनाव का ऐलान कर दिया. इसमें उनकी और पार्टी की बुरी तरह हार हुई. आने वाले दशकों में धीरे-धीरे उन संस्थाओं ने अपनी शक्तियां फिर हासिल कर लीं जिन्हें इंदिरा गांधी ने कुचलने की कोशिश की थी. प्रेस पहले से ज्यादा आजाद हो गई. ऐसा ही न्यायपालिका के मामले में भी हुआ. नागरिक समाज ने भी तरक्की की.
आपातकाल के करीब 20 साल बाद मैंने अपनी किताब ‘इंडिया ऑफ्टर गांधी’ पर काम करना शुरू किया था. 2007 में जब यह छपकर आई तब तक मैं यह सोचने लगा था कि भारत को ‘50-50 लोकतंत्र’ कहना ठीक होगा. इसके सात साल बाद नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने और हमारी लोकतांत्रिक विश्वसनीयता फिर से क्षीण होने लगी. नरेंद्र मोदी के शासनकाल में भी प्रेस को दबाने या उसे अपने साथ मिलाने की कोशिश हुई, न्यायपालिका को निशक्त बनाने के प्रयास हुए और नागरिक समाज से जुड़े संगठनों को परेशान करने और डराने की कवायदें हुईं. सेना, चुनाव आयोग और रिजर्व बैंक जैसी जिन सार्वजनिक संस्थाओं के पास गर्व करने वाली स्वायत्तता थी और जिन्हें इंदिरा गांधी भी नहीं झुका सकी थीं, उन्हें भी अब सत्ताधारी पार्टी और यहां तक कि प्रधानमंत्री के उपकरणों की तरह देखा जाने लगा.
संस्थाओं के पतन के साथ व्यक्ति पूजा का चलन भी बढ़ा. मई 2014 से राज्य व्यवस्था के विशाल संसाधन प्रधानमंत्री को हर योजना, हर विज्ञापन और हर पोस्टर का चेहरा बनाने के लिए झोंके जाने लगे. ‘मोदी इज इंडिया, इंडिया इज मोदी’ भारतीय जनता पार्टी में सबके लिए कहा-अनकहा मंत्र हो गया, चाहे वह मंत्री हो या सांसद या फिर पार्टी का छोटा सा कार्यकर्ता. जैसा इंदिरा गांधी के मामले में हुआ था, तथाकथित ‘राष्ट्रीय मीडिया’ ने देवत्व के इस निर्माण में योगदान किया. मीडिया के ज्यादातर हिस्से को इसके लिए तैयार कर लिया गया था. कहीं दलील काम आई और कहीं दबाव. इस तरह मीडिया ने प्रधानमंत्री को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में पेश करना शुरू किया जो सर्वज्ञाता है और जिससे कोई चूक नहीं हो सकती.
भारत पर कोविड-19 का हमला व्यक्ति केंद्रीयता के इस मिशन को आगे बढ़ाने का मौका बन गया. इस दौरान प्रधानमंत्री के भाषण इसका एक उदाहरण हैं. तकनीकी रूप से स्वतंत्र सार्वजनिक प्रसारक प्रसार भारती ने शेखी बघारी कि आईपीएल के फाइनल मैच को जितने दर्शकों ने देखा था उससे ज्यादा लोगों ने प्रधानमंत्री का भाषण देखा.
दूसरा और शायद ज्यादा खतरनाक उदाहरण पीएम केयर्स नाम का एक नया फंड है. 1948 से प्रधानमंत्री आपदा कोष वजूद में रहा है जिसमें युद्ध, अकाल, भूकंप, चक्रवात और महामारी जैसी आपदाओं के दौरान लोगों को राहत पहुंचाने के लिए नागरिक दान दे सकते हैं. इस नई महामारी की शुरुआत के समय इस फंड में करीब आठ हजार करोड़ रुपये पड़े हुए थे. हर राज्य में इसी उद्देश्य के लिए मुख्यमंत्री कोष भी है. इससे पहले के प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री इन फंडों का इस्तेमाल करते रहे थे. इसके बावजूद नरेंद्र मोदी ने एक नया और निजी जैसा फंड बनाने का फैसला किया. इसका नाम बहुत सोच-समझकर रखा गया – पीएम केयर्स यानी प्राइम मिनिस्टर्स सिटिजन असिस्टेंस एंड रिलीफ इन इमरजेंसी सिचुएशंस. इसकी वेबसाइट पर प्रधानमंत्री की तस्वीर प्रमुखता से रखी गई. इससे जुड़ी प्रचार की कवायद पर भी बेशक ऐसा ही होना था और शायद इस फंड के पैसों से जो मेडिकल संबंधी वस्तुएं और दूसरी चीजें खरीदी और बांटी जा रही होंगी, उनके साथ भी ऐसा ही हो रहा होगा. इस तरह एक राष्ट्रीय आपदा ब्रांड मोदी को बढ़ाने का एक और जरिया बन गई.
एक नेता को पार्टी, लोगों और पूरे देश का पर्याय बनाने के लिहाज से देखें तो नरेंद्र मोदी का ‘कल्ट’ स्टालिन से मिलता-जुलता है. यह हिटलर और मुसोलिनी का अनुसरण करता है जब मीडिया के जरिये आदर्श नेता की छवि गढ़ने का प्रयास करता है, एक ऐसा नेता जो सर्वज्ञाता और कोई गलती न करने वाला हो. हालांकि पीछे देखने पर नरेंद्र मोदी का मामला शायद सबसे ज्यादा माओत्से तुंग से मेल खाता नजर आता है. अर्थव्यवस्था की तबाही के लिहाज से देखें तो नोटबंदी का कदम माओ के उस विनाशकारी आदेश जैसा ही था जिसे द ग्रेट लीफ फॉरवर्ड कहा गया था और जिसमें लोगों को लोहे की सभी चीजें घर के पीछे भट्टी बनाकर उसमें पिघलाने के लिए कहा गया था. माओ की तरह नरेंद्र मोदी भी पार्टी सहयोगियों को किनारे करते हुए उन बेरोजगार नौजवानों को सीधे संबोधित करते हैं जो उनके सबसे ज्यादा समर्पित अनुयायी हैं. माओ की तरह मोदी भी राज्य और पार्टी की प्रचार मशीन का इस्तेमाल करके खुद को सर्वज्ञ और अचूक शख्सियत के रूप में पेश करते हैं. माओ की तरह नरेंद्र मोदी के मामले में भी नागरिकों से अपेक्षा की जाती है कि वे उनके निर्देशों का बिना सवाल किए पालन करें.
खुर्श्चेव के इस दावे पर बहस हो सकती है कि किसी व्यक्ति को ईश्वर जैसा दर्जा देना मार्क्सवाद-लेनिनवाद की मूल भावना के विपरीत बात थी, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि व्यक्ति पूजा भारतीय जनता पार्टी के इतिहास का हिस्सा नहीं रही है. भाजपा ने हमेशा इसका विरोध किया है. पार्टी लंबे समय से आरोप लगाती रही है कि कांग्रेस ने अपने और देश के हित नेहरू-गांधी परिवार के हवाले कर दिए. प्रधानमंत्री रहते हुए वाजपेयी ने कभी अपने सहयोगियों को इंदिरा गांधी की तरह दबाकर नहीं रखा. पार्टी की नजर में वे लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी से मिलकर बनी तिकड़ी का एक हिस्सा थे. इन तीनों नेताओं ने केंद्र में काम किया. उधर, राज्यों में भाजपा के पास मजबूत और स्वतंत्र विचारों वाले मुख्यमंत्री हुआ करते थे जिनका त्रिमूर्ति ने हमेशा सम्मान किया. अब यह समीकरण पूरी तरह बदल गया है. नरेंद्र मोदी भाजपा और इसकी सरकार के लिए वही हो गए हैं जो कभी स्टालिन सीपीएसयू और इसके पोलितब्यूरो के लिए हुआ करते थे.
इंदिरा गांधी के बाद अब नरेंद्र मोदी का उदाहरण बताता है कि भारतीय लोकतंत्र में भक्ति और अंधी व्यक्ति पूजा के खतरों को लेकर अंबेडकर की गहरी चिंता गलत नहीं थी. सत्ताधारी पार्टी ने हिंदुओं का मसीहा और अन्याय का बदला लेने वाले की जो छवि गढ़ी है उसे खूब समर्थन मिला है. किसी स्वतंत्र देश के नागरिकों से यह उम्मीद नहीं की जाती कि वे इस कदर भीरुता के साथ किसी जीवित व्यक्ति की पूजा करेंगे, लेकिन वे कर रहे हैं और यह एक त्रासदी है.
‘पर्सनैलिटी कल्स’ का इतिहास बताता है कि जिन भी देशों में यह चलन पनपा वहां हमेशा इसकी परिणति विनाश के रूप में हुई. नरेंद्र मोदी एक दिन प्रधानमंत्री नहीं रहेंगे लेकिन, ईश्वर ही जानता है कि उनकी व्यक्ति पूजा ने अर्थव्यवस्था, संस्थाओं, सामाजिक जीवन और नैतिक ताने-बाने को जो नुकसान पहुंचाया है उससे यह देश कब तक उबर सकेगा. उबर भी सकेगा या नहीं.

वरिष्ठ स्तंभकार रामचंद्र गुहा की कलम से