बीस साल तक सौ जूते और सौ प्याज खाकर, खिलाकर सब कुछ तबाह और खंड-खंड करके अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका वापस चला ही गया। संयुक्त राज्य अमेरिका नाम के देश की सचमुच की खासियत यह है कि जो भी उसके साथ गया या जिसके भी वो पास गया, वह कहीं का नहीं रहा। न तंत्र बचा न लोकतंत्र, न अमन बचा न चमन। बचा तो सिर्फ और सिर्फ बिखराव, कोहराम और अराजकता ; कट्टरता और बर्बरता। लम्बे समय तक पूरे लैटिन अमरीका ने यही भुगता है, इराक़ इसका हाल का और अफ़ग़ानिस्तान इसका सबसे ताजा उदाहरण है। भारत के इतने नजदीक और दक्षिण एशिया में रणनीतिक और सामरिक महत्त्व के इतने बड़े घटना विकास पर प्रधानमंत्री मोदी ने अब तक मुँह सिलकर ही रखा हुआ है। जब आगाज़ से अंजाम तक खुद अमरीका इसका जिम्मेदार हो और मोदी का इंडिया उनकी चौकड़ी का हिस्सा हो, तो परेशानी लाजिमी हैं कि आखिर मुँह खोलें तो कैसे और बोलें तो क्या!! आखिर वफादारी भी कोई चीज होती है।

मगर कारपोरेट मीडिया के उनके गुर्गे जो पहले से ही काम पर लगे थे, वे अब अफ़ग़ान के तालिबान का झंडा थाम अगले धाम के लिए निकल चुके हैं। उत्तरप्रदेश के आसन्न विधानसभा चुनावों के ठीक पहले पूरी यूपी में साम्प्रदायिक तनाव भड़काने की अनवरत कोशिशों में अपेक्षित सफलता न मिल पाने से बौखलाए और अगले सप्ताह से शुरू हो रहे किसान आंदोलन के ‘मिशन उत्तरप्रदेश’ से घबराये योगी कुनबे को जैसे डूबते को तालिबान का सहारा मिल गया है। उन्होंने तो लगता है जैसे तालिबानियों को तकरीबन अपना स्टार प्रचारक ही बना लिया है। उसके बहाने धार्मिक कलुष भड़का कर उन्माद फैलाने की ठान ली है। उधर कभी संघ के मुख्य प्रवक्ता, तो कभी कश्मीर में महबूबा मुफ्ती की सरकार बनवाने में जुटे रहे राम माधव ने उनकी सारी साजिशों को करारी पटखनी देने वाले केरल में जाकर इतिहास का भूगोल बिगाड़ने की एक और कोशिश की और सौ साल पहले हुए मोपला किसान विद्रोह को भारत में तालिबान मानसिकता की पहली झलक बता दिया। मोपला विद्रोह आजादी के पहले अंग्रेजों और जमींदारों के खिलाफ देश भर में हुयी किसान बगावतों का एक शानदार अध्याय है। इसे कुचलने में नाकाम अंग्रेजों ने उस समय भी इसे हिन्दू-मुसलमानों का मसला बनाने, इसके बहाने उनके बीच दंगे कराने और इस तरह उनकी एकता विभाजित करने की जो असफल या अंशतः सफल कोशिश की थी, सौ साल बाद राम माधव उसे पूर्ण सफल बनाने के इरादे से कोजीकोड जा पहुंचे थे। आखिर वफादारी भी कोई चीज होती है।

मगर असल सबक त्रिपुरा के इन्हीं के सहोदर भाजपा विधायक ने हासिल किया और उन्होंने तालिबानियों को अपना उस्ताद ही मान लिया है। ठेठ तालिबानी-संघी अंदाज में उन्होंने अपने समर्थकों-कार्यकर्ताओं से यलगार की कि वे विपक्षी दलों के नेताओं के साथ उनके हवाई अड्डे पर उतरते ही “तालिबानी स्टाइल”‘ में बर्ताव कर उन्हें वहीं निबटा दें। दोहराने की जरूरत नहीं कि कट्टरता रूप में चाहे जिस रंग में, जो भी नाम धर कर आये, किसी भी मजहब या धर्म, जाति या नस्ल के नाम पर आये सार में एक समान होती है। देखने में एक दूजे के खिलाफ कितने भी लट्ठ भांजे, असल में एक-दूसरे की पूरक होती है। उसके निशाने पर सभ्य समाज की अब तक की हासिल मनुष्यता, सांस्कृतिक-वैचारिक उपलब्धियां, विवेक और तार्किकता होती है। महिलाओं की गुलामी सुनिश्चित करना खासतौर से सबसे अव्वल प्राथमिकता होती है। बर्बर सिर्फ बर्बर होते हैं ; वे चाहें प्रशांत महासागर के इधर हों या उधर। “बुरे तालिबान और अच्छे तालिबान”, “खराब आईएस और अच्छी आईएस” जैसे जुमले सिर्फ अमरीका जैसे मानवता विरोधी साम्राज्यवाद की विस्तारलिप्सा के लिए ही काम के होते हैं — सभ्यता का तो वे अफ़ग़ानिस्तान ही बना डालते हैं।

आने वाले समय में काबुल से कंधार तक क्या होना है, इसकी पक्की खबरें अभी आना बाकी हैं ; लेकिन डूरण्ड रेखा के इस ओर के उनके प्रतिरूपों ने अपना पराक्रम दिखाना तेज कर दिया है। कुछ भगवाधारी राष्ट्रभक्तों द्वारा इंदौर में एक चूड़ीवाले के साथ उसके धर्म के आधार पर की गयी वीडियो रिकार्डेड मारपीट और गालीगलौज इसी का ताजातरीन संस्करण था। पुलिस उसका लूटा गया माल वापस दिलाने या उसे बचाने की बजाय उसी को अपनी जान बचाने के लिए भाग जाने की सलाह दे रही थी। जहां शुरू में मचे शोर के चलते कोतवाली रिपोर्ट लिखने और मारपीट करने वाले चार लोगों को पकड़ने के लिए मजबूर हुयी, वहीं फ़ौरन ही शिवराज सरकार का गृहमंत्री ही हमालावरों की हिमायत में उतर आया और आखिर में खबर मिली है कि पिटने वाले पर ही पोस्को क़ानून की धाराओं सहित न जाने कितने और मुकदमे लाद दिए गए। यह ताजी घटना है — अब इस तरह की बेहूदगियाँ और गुण्डई हर रोज की बात हो गयी है। मोदी के ‘न्यू इण्डिया’ का यह आमुख है।

राजधानी दिल्ली में पार्लियामेंट स्ट्रीट पुलिस थाने के लगभग ठीक सामने कुछ हिंदुत्ववादी संगठनों के नेताओं, जिनमें सुप्रीमकोर्ट का एक वकील भी शामिल था, द्वारा लगाए गए अत्यंत घिनौने और आपत्तिजनक मुस्लिम विरोधी नारे इस ‘न्यू इंडिया’ का अगला संस्करण था। अब दिल्ली, यूपी, एमपी के मुकाबले बिहार के भक्त कैसे पीछे रह जाते। भागलपुर के 75 साल पुराने प्रतिष्ठित और एकमात्र महिला कॉलेज सुंदरवती महिला महाविद्यालय के प्राचार्य ने छात्राओं के लिए नया ड्रेस कोड लागू कर दिया और कॉलेज में छात्राओं के खुले बाल पर पाबंदी लगा दी। उन्हें दो चोटी या कम-से-कम एक चोटी तो हर हाल में बांधकर आने की सख्त हिदायत देते हुए बिना चोटी बांधे आने पर कालेज में दाखिल ही न होने देने का प्रावधान किया गया है। छात्राओं को कॉलेज परिसर के अंदर सेल्फी लेने पर भी मनाही रहेगी। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय अच्छी बहू बनने की तीन महीने की ट्रेनिंग का कोर्स पहले ही शुरू कर चुका था – अब उसका पूरा सिलेबस अमल में लाया जाना है। सो भी जितना जल्दी हो सके, उससे भी ज्यादा जल्दी!

संकट तब और अधिक गंभीर दिखने लगता है, जब इस सबके साथ निहायत योजनाबद्ध तरीके और तीव्रतम संभव रफ़्तार से समाज को विवेकशून्य बनाने की परियोजना भी चलाई जा रही हो। विघटनकारी, हिंसक और फासिस्टी सोच के मामले में समाज हमेशा तीन श्रेणियों में बंटा रहा है। एक वह हिस्सा होता है, जो ऐसे कारनामे अंजाम देता है, हमले करता है। यह हमेशा अत्यंत अल्पमत में होता है ; बहुत ही नगण्य, अक्सर कुछ दर्जन की तादाद में और नियमतः लम्पट होता है। दूसरा हिस्सा उनका होता है, जो हिंसा में तो शामिल नहीं होते, मगर किसी-न-किसी वजह से उसे अनुचित या नाजायज भी नहीं मानते। यह पहले वाले से थोड़ा बड़ा तो होता है, लेकिन आबादी के हिसाब से अल्पमत ही होता है। तीसरा विराट बहुमत उन नागरिकों का होता है, जो इस सबको गलत मानते हैं — मगर उसके विरोध में नहीं बोलते या नहीं बोल पाते। हमारे वाले तालिबानों ने इन तीनो ही श्रेणियों को अपने निशाने पर लिया है। अपने धुआंधार झूठे दुष्प्रचार से वह थोक के भाव तीसरे हिस्से को दूसरे में ले जाना चाहता है। इंदौर में चूड़ी वाले की पिटाई लगाते वक्त जब वे चार लम्पट हिन्दुत्वी एक छोटे से बच्चे सहित सभी देखने वालों को भी इस पिटाई में शामिल होने के लिए प्रेरित कर रहे थे, वह दूसरी श्रेणी को पूर्ण द्विज बनाने की उनकी ड्रिल की ही एक स्टेप थी।

बहरहाल सभ्य समाज में एक हिस्सा उन नागरिकों का होता है, जो इन घटनाओं के प्रतिवाद की सख्त जरूरत महसूस करते हैं। सारे जोखिम उठाकर मौके पर ही तत्काल विरोध करते हैं और बाद में भी प्रतिरोध कार्यवाहियां आयोजित कर बाकी नागरिकों में हौसला पैदा करने की कोशिशों में लगे रहते हैं। आमतौर से होते तो यह भी अल्पमत में ही है, किन्तु गुणात्मक रूप से ज्यादा प्रभावी होते है, क्योंकि समाज के बेहतरीन लोग इसमें शामिल होते हैं। वे मेहनतकश जनता के संगठनों की अगुआई कर रहे होते हैं, इसलिए अपनी कम संख्या के बावजूद कहीं ज्यादा विराट जनता को प्रभावित और लामबंद करने की क्षमता वाले होते हैं। ग्राम्शी की सिविल सोसायटी और उसके कॉन्शसकीपर होते हैं। ठीक इसीलिए इस संकट में सबसे प्रमुख जिम्मेदारी उन्हीं की है, क्योंकि ऐसे ही समय के योद्धा कवि बर्तोल्त ब्रेख्त कह गए हैं ; कि (भविष्य में) “वे नहीं कहेंगे कि / वह समय अन्धकार का था / वे पूछेंगे कि/ उस समय के कवि चुप क्यों थे।”

और यह सवाल सिर्फ कवियों के लिए न तब था, ना आज ही सिर्फ उन भर के लिए है ; ये सब की बात है, दो-चार-दस के बस की बात नहीं।

                                        आलेख :बादल सरोज (संयुक्त सचिव)अखिल भारतीय किसान सभा