डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड के अधिकतर नौलों का निर्माण कत्यूर और चंद राजाओं के शासन काल में हुआ है। “नौला” उत्तराखंड में घरनुमा पानी के श्रोत या बावड़ी को कहते हैं। उत्तराखंड में नौले का निर्माण एक खास वस्तुविधान के अंतर्गत किया जाता है। प्राचीन काल में पहाड़ो में घरों के आसपास जो भूमिगत जल श्रोत होता था ,उसे वही महत्त्व दिया जाता था , जैसे मंदिरों को दिया जाता था। मंदिरों के वस्तुविधानों की तरह नौलों को भी खास वास्तु विधान बनाया जाता था। मंदिरों के गर्भगृह की तरह नौलों का भी गर्भग़ृह और दो या चार खम्भों पर आधारित वितान हुवा करता था। गर्भगृह में मजबूत तराशे हुए पत्थरों से उल्टे यञकुंड अर्थात नीचे से ऊपर को बढ़ती चौड़ाई में सीढ़ीयुक्त जलकुंड बनाया जाता था। सीढ़ियों के प्रस्तरों को इस प्रकार जोड़ा जाता है ,कि पानी उनकी दरारों से रिझ कर कुंड में इकट्ठा होता रहे। वर्गाकार या आयताकार इन नौलो के कुंड के ऊपर  दोनों तरफ बड़े बड़े पटाल लगा कर, कपडे धोने और नहाने के लिए अलग अलग व्यवस्था होती है और बैठने के लिए चबूतरों की व्यवस्था भी होती है। इसकी की छत को , पहाड़ी घरों शैली में पत्थरों से ढलवा छत के रूप में आच्चदित कर दिया जाता था।

प्रवेशद्वारों के खम्भों पर पुष्पों, बेलों या देव आकृतियों से अलंकृत किया जाता था। कुछ नौलों के पर देवाकृतियो और कमलदल फूलों का अंकन भी देखने को मिलता है । नौले के माथे पर गणेश जी का अंकन लगभग सभी नौलों में किया जाता था। चन्द्रिका युक्त वितानों को सामान्यत: पटाल से ही आच्छदित करते थे। इनकी शुद्धता को अक्षुण रखने के लिए जलदेवता के रूप में शेषशायी विष्णु भगवान् की प्रतिमा को स्थापित किया जाता था। कुछ में आकर्षक सूर्य प्रतिमाओं से सुसज्जित हैं। कुछेक नौलों में ब्रह्मदेव की स्थापना भी मिलती है। गणेश भगवान् की स्थापना युक्त नौले उत्तराखंड में बहुताय मिलते हैं। नौलों के स्तम्भों पर द्वारपाल, अश्वरोही , नृत्यांगनाएं ,कलशधारिणी , सर्प और पशु पक्षियों की मूर्तियों का अंकन मुख्यतः होता था।

शोधकर्ता डॉ मोहनचंद तिवारी जी के अनुसार , बागेश्वर जिले के गडसर गांव में स्थित का बद्रीनाथ नौला ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे प्राचीन माना जाता है। बताया जाता कि कत्यूरी शाशकों ने इस नौले का निर्माण ७वी शताब्दी में किया था। जलविज्ञान के सिद्धांतों पर आधारित यह नौला आज भी जल से परिपूर्ण रहता है। चम्पावत के बालेश्वर मंदिर का नौला ,सांस्कृतिक विरासत से संपन्न  माना जाता है। इस नौले की स्थापना 1272 ईसवी में राजा थोरचंद ने की थी और राजा कुर्मचन्द ने सन 1442 में इस नौले का जीर्णोद्वार कराया था। चम्पावत का एक हथिया नौला भी सांस्कृतिक महत्व का नौला है। इसके बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण एक हाथ वालेशिल्पी ने किया था। इसके अलावा रानीधारा का नौला ,पंथ्यूरा नौला ,तुलारमेश्वेर नौला ,द्वाराहाट का जोशी नौला ,जान्हवी नौला गंगोलीहाट और डीडीहाट का छनपाटी नौला व् अल्मोड़ा का भंडारी नौला और पल्टन बाजार का सिद्ध नौला अपने आप में उत्तराखंड की समृद्ध संस्कृति को समेटे हुए है।

  अब बात करते हैं स्यूनारकोट नौले की – कत्यूरी शासनकाल में बहुत से नौलों का निर्माण किया गया। उन्हीं में से एक है  स्यूनराकोट गांव का यह प्राचीन नौला । इसका निर्माण 14वीं सदी में किया गया था। देखरेख के अभाव में यह नौला मलबे से पट गया था। इसमें वर्ष 1522 में बनने का शिलापट भी लगा था। दो साल पहले इस नौले के जीर्णोद्धार का काम शुरू किया गया । इस नौले की स्थापत्य कला व निर्माण अत्यंत सरल संतुलित है। कुंड को सोपनयुक्त सीढ़ियों से पर्याप्त गहरा बनाया जाता गया है। वर्गाकार अथवा आयताकार कक्ष निर्माण में केवल गर्भगृह और अर्धमंडप, सस्तंभ मंडप की ही शैली अपनाई गई है। इसमेें कुंड के ऊपर साधारण कक्ष बनाकर बरामदे में प्रवेश द्वार के दोनों ओर एक एक बड़ा पटाल लगाकर कपड़े धोने और नहाने के लिए अलग से व्यवस्था की गई है। ढलवा छत को पटालो सेआच्छादित किया गया है। बरामदे की छत को दो अथवा चार स्तंभों पर आधारित किया गया है। प्रवेश द्वार के स्तंभों को पुष्प लता मणिबंध शाखा आदि विभिन्न अलंकारों से सुसज्जित किया है। नौले में कुंड गठन वर्गाकार है। स्थानीय ग्रीन ग्रेनाइट पत्थरों से बने प्राचीन नौले के चारों ओर संधी उपासना की कलाकृतियां उकेरी गई हैं। गर्भगृह व बाहरी भाग में मंदिर जैसी कलाकृतियां तथा भगवान विष्णु के दस अवतारों की आकृतियां इसे और विशिष्ट बनाती हैं। पुरातत्वविदों का मानना है कि प्राचीन समय में संभवत: नौले की परिक्रमा की परंपरा रही होगी, इसलिए स्यूनराकोट का प्राचीन नौला चारों तरफ से खुला है। नौलों में कपाट की व्यवस्था नहीं है। नौलों के आस-पास, पीपल ,सीलिंग जैसे धार्मिक महत्त्व के पेड़ लगाए गये हैं। कत्यूरकालीन सभ्यता एवं संस्कृति का गवाह यह नौला कुमाऊं की प्राचीन स्थापत्य कला और जल संस्कृति का अद्‌भुत उदाहरण है।

लंबे समय से क्षेत्रवासी इस ऐतिहासिक नौले के संरक्षण की मांग कर रहे थे। जिसके बाद पुरातत्व विभाग ने सर्वे भी किया था।  केंद्र सरकार ने प्राचीन नौले को प्राचीन स्मारक तथा पुरातत्व स्थल एवं शेष अधिनियम 1958 की धारा 4 उप धारा 1 के तहत इस प्राचीन नौले को राष्ट्रीय स्मारक घोषित किया हैं। स्मारक को राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित करने का गजट नोटिफिकेशन जारी करने के साथ ही साथ ही संस्कृति मंत्रालय ने अपनी अधिसूचना में उल्लेखित किया है अगर किसी को कोई आपत्ति या सुझाव हो, तो वह दो महीने के भीतर महानिदेशक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को जानकारी भेज सकता है। इसके राष्ट्रीय स्मारक घोषित होने के बाद अब क्षेत्र की अन्य ऐतिहासिक धरोहरों के संरक्षण की उम्मीद भी जगी है। 

 यह लेखक के निजी विचार हैं ।

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