ढोल हम उत्तराखंडियों के लिए ऐसा शब्द है कि जिसका सबद कान में पड़ते ही रोम रोम खुश हो जाता है, जिसकी ताल को सैकड़ो शोरो में भी हमारे कान पहचान लेते है।।
उत्तराखंड की धरती देवी देवताओं की भूमि कहलाती है और यहां जन्म से मृत्यु तक के सभी कार्यो में ढोल का अपना अलग ही महत्त्व रखता है। यहां के 16 संस्कार भी बिना ढोल के सम्पूर्ण नही माने जाते है। किसी प्रकार के अनुष्ठान, देव कार्य, विवाह,पूजा, यज्ञ इत्यादि में ढोल अनिवार्य रूप से मौजूद रहता है।
शायद ही सम्पूर्ण विश्व में कोई वाद्य यंत्र हो जो ढोल जितना महान हो, जिसके लिए ढोल सागर जैसा ग्रंथ का निर्माण हुआ हो, ढोल सागर में ढोल को बजाने की सभी विधियों और उससे संबंधित सभी जानकारी उपलब्ध है इसमें ढोल के विभिन्न ताल, सबद, राग, छंद, सर्ग-विसर्ग आदि की सम्पूर्ण जानकारी है।
यहां ढोल बजाने वाले व्यक्ति को दास, ओजी, ढोली, ढोल्या आदि नामों से जाना जाता है। ढोल का पूरक दमौ है।
ढोल का वर्णन वेद पुराणों में भी मिलता है। कहा जाता है कि ढोल की उत्त्पत्ति भगवान् शिव ने की थी और जिस समय भगवान् शिव और माता पार्वती ढोल के सम्बन्ध में संवाद कर रहे थे उस समय वहाँ उपस्थित एक औजी (गण) ने सम्पूर्ण संवाद वृत्तांत सुना और कंठस्थ किया, तभी से ये परंपरा चली आ रही है।
ढोल-दमौ ,पति-पत्नी के समान माने जाते है। दमौ को शिव का रूप व ढोल को शक्ति रूप कहा जाता है।
ढोल के प्रत्येक अंग को ईश्वर पुत्र कहा जाता है।जैसे…
डोरियाँ- ब्रह्मा पुत्र
लाकुड़- भीम पुत्र
पूड- विष्णु पुत्र
कुंडल- नाग पुत्र पुत्र
कंदोली – कूर्म पुत्र
कस्णी- गुणियो से उत्पन्न
ढोल सागर में पृथ्वी संरचना के नौ खंड,सात द्वीप और नौ मंडल का वर्णन व्याप्त है. ढोल ताम्र जडित, चर्म पूड़ से मुड़ाया है।
इसमें लगभग 1200 श्लोको का वर्णन है।
और विभिन्न अवसरों पर बजायी जाने वाली भिन्न भिन्न तालो का वर्णन है।
जिसमे से कुछ मुख्य तालो का वर्णन कर रहा हूँ,
मंगल बढे ताल (गणेश ताल)– इस ताल को पूजा अनुष्ठान कार्यो में बजाया जाता है और इसी ताल से अनुष्ठान आरम्भ किया जाता है, क्योंकि किसी भी पूजा में सर्वप्रथम भगवान् श्री गणेश जी का आह्वाहन किया जाता है तो मंगल बढे ताल भगवान् गणेश जी का आह्वाहन करने के लिए बजायी जाती है! गणेश जी से अनुष्ठान सफल होने की कामना की जाती है।
धुन्याञ्ल ताल (अनुष्ठान ताल)– मंगल बढ़े ताल के बाद धुन्याल ताल बजायी जाती है, इस ताल के जरिये माँ आदिशक्ति का ध्यान किया जाता है और उनसे अनुष्ठान सफल करने की और सभी की रक्षा करने की प्रार्थना की जाती है, धुन्याल ताल के अंतर्गत ही दैत्य संहार और नृत्य ताल बजाये जाते है।दैत्य संहार ताल में जब माँ आदिशक्ति दुर्गा भवानी ने मधुकैटाव, महिसासुर, रक्तबीज, शुम्भ-निशुम्भ जैसे 1600 दैत्यों का वध करके देवतों की रक्षा की थी उसका वर्णन किया जाता है और नृत्य ताल में माँ भवानी ढोल के सम्मुख प्रगट होकर ख़ुशी से नृत्य करती है और अपना शुभ आशीर्वाद देती है। धुन्याल ताल में पंचनाम देवता,ग्राम देवता कुल देवता आदि का आह्वाहन भी किया जाता है.
सबद- इस ताल का प्रयोग देव शक्ति जगाने के लिए किया जाता है तथा बारात आने का संदेश देने के लिए भी इसी ताल का प्रयोग होता है।
रहमानी ताल- बारात प्रस्थान के समय बजायी जाने वाली ताल है।
गढ़छल ताल– नदी या गदरो को पार करते समय बजायी जाती है।
पाण्डव ताल- पांडव नृत्य के समय बजायी जाती है। इस ताल के बजने के साथ पांच भाई पाण्डव कुंती और द्रोपदी जागृत होते है और नाचते है।
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कुछ समय पहले हमारे गाँव के औजी भाई घर घर जाकर मांगल बधे बजाकर अपने परिवार का भरण पोषण आसानी से कर लेते थे, लेकिन वर्तमान में पलायन के चलते घर-गांव सब खाली हो चुके है, तो औजी भाई संक्राति कहाँ बजायेगा और शादी विवाह समारोह में भी इनकी उपेक्षा होती आ रही है, कुछ गलतियां इन्होंने खुद की है जैसे कि ये लोग ढोल विद्या का स्तर बढ़ा सकते है इसमें नए प्रयोग कर सकते है इसकी जानकारी को बढ़ाकर नाट्यकला केंद्र आदि में भाग ले सकते है। हम लोगो को इनको सम्मान सही आमंत्रित करना चाहिए और ढोल और इसके जानकारों को संरक्षित करना चाहिए ताकि ये महान कला समाप्ति की ओर ना बढ़ सके और आने वाली पीढियाँ भी इसको समझे और सदा आगे बढ़ाते रहे।।
साभार – रजनीश उनियाल
पुनरुत्थान रूरल डेवलपमेंट एंड सोशल वेलफेयर सोसाइटी