सर सीवी रामन के छात्र, प्रख्यात भौतिकविद, कुमायु विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति एवं उत्तराखंड क्रांतिदल के संस्थापक अध्यक्ष प्रोफ. डी डी पन्त की आज जन्मदिवस है..कई समाजसेवियों की मांग है कि उनके नाम पर पिथौरागढ़ में एक विश्वविद्यालय अथवा शोध संस्थान खुले..

प्रोफ. डी. डी. पन्त मेरी दृष्टि में
जीवन में विभिन्न अवस्थाओं में मैं प्रोफ. डी. डी. पन्त से मिला, उनके साथ रहा और वार्तालाप किया. पहलेपहल मैं उनसे तब मिला जब मैं 6-7 साल का था, फिर जब मैं किशोर था और उसके बाद एक युवा प्राध्यापक के रूप में जब वे डी. एस. बी. कॉलेज नैनीताल के प्रधानाचार्य थे. तदुपरांत हमने साथ साथ काफी समय बिताया, जब मेरा उनकी पुत्री डॉ. दीपा के साथ ब्याह हो गया था.
मैं उन्हें बाल्यकाल में ही जान सका:
प्रो. डी डी पन्त ने पचास के दसक में (स्वतंत्रता के तुरंत बाद)बहुत अल्प समय के लिए आर. बी. एस. कॉलेज आगरा में भौतिकी का अध्यापन किया, जहां मेरे ताऊजी, डॉ. आर. एन. सिंह अपने सम्पूर्ण चार दशक के कार्यकाल में भौतिकी विभाग में प्राध्यापक रहे.दोनों उस समय युवा छात्र थे और उसी दौरान दोनों ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से पी एच डी की डिग्री प्राप्त थी, उल्लेखनीय है कि मेरे ताऊ जी बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय के प्रथम पी.एच. डी. थे. दोनों ही ग्रामीण परिवेश वाले अपने अपने परिवार से उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले प्रथम व्यक्ति थे. पचास के दशक में भारत की स्वतन्त्रता की खुमारी अभी भी देखी जा सकती थी; आदर्श, उत्साह, और देश का पुनर्निर्माण करने का जज्बा शिक्षित युवाओं में सर्वत्र विद्यमान था. हिंदी सिनेमा के “छोटे नन्हें मुन्ने तेरी मुठ्ठी में क्या है. मुट्ठी में है तकदीर हमारी, उसको हमने वश में किया है” जैसे गीत युवाओं में विद्यमान भावना का प्रतिनिधित्व करते थे. जल्दी ही सन १९५२ में प्रोफ.पन्त आगरा छोड़ कर नैनीताल चले गए, जहां उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रथम डिग्री कॉलेज की स्थापना की थी. परन्तु दोनों कि दोस्ती बरकरार रही क्योंकि डी.एस.बी कॉलेज आगरा विश्वविद्यालय से सम्बद्ध था और डॉ पन्त सीनेट अथवा अकादमिक बैठकों में भाग लेने अक्सर आगरा आते रहते थे. आगरा विश्वविद्यालय से उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान के कॉलेज सम्बद्ध हुआ करते थे. और आगरा कॉलेज संभवतः सबसे पहला कॉलेज होगा जो विश्वविद्यालय सिस्टम के अस्तित्व में आने से पूर्व स्थापित हुआ था. भौगोलिक दृष्टि से कहें तो आगरा विश्वविद्यालय उस दौर में उच्चशिक्षा का भारत का विशालतम विश्वविद्यालय प्रतिष्ठान था. प्रोफ. पन्त जब भी आगरा आते थे तो अक्सर मेरे ताउजी के घर पर ही रुकते थे क्योंकि उनको उस घर का ठेठ अपनत्वपूर्ण माहौल बहुत भाता था जहां कुछ भी औपचारिक नहीं था और परिवार के प्रत्येक सदस्य के उनसे व्यक्तिगत रिश्ते हो गए थे. परिवार में वे इतने घुलमिल गए थे कि गर्मियों के दिनों में डॉ. पन्त हमारे साथ खाली फर्श पर विना वस्त्रों के लेट जाते थे. सीमेंट का स्पर्श ठंडा और सुकून देने वाला होता था: उन दिनों एक पंखा ही काफी होता था और एसी और कूलर उस दौर में मध्यवर्ग के लिए अपरिचित वस्तु थी, और आगरा कि झुलसाती गर्मियों में पीने के लिए घड़ा/ सुराही का शीतल जल दिया जाता था.
पन्त चाचा (मेरी दो चचेरी बहिने और मैं उनको चाचाजी ही बुलाते थे) हम बच्चों में; हमारे खेलों में, क्रीडाओं में और हमारे नायकों में खूब दिलचस्पी लेते थे. मुझे याद है जब मैं हाई स्कूल में था और उन्होंने नोटिस किया और ख़ुशी जाहिर की थी कि मेरी लम्बाई औसत से कुछ अधिक हो रही थी और इस बात पर उन्होंने कुछ अच्छी टिप्पणी की थी. हमें सर पर बिना बालों वाले उनका सुदर्शन व्यक्तित्व आकर्षित करता था. हम इस बात से तब अनभिज्ञ थे कि वे महान सी वी रमण जैसे वैज्ञानिक के साथ काम कर चुके थे और देश में एक प्रतिष्ठित भौतिक विज्ञानी के रूप में प्रसिद्द हो चुके थे. हम बच्चे सिर्फ उन्हें एक विनम्र व्यक्ति जोकि हमारे क्रियाकलापों में दिलचस्पी लेता था, के रूप में प्यार करते थे.

नैनीताल में बिताये वो सुहावने दिन- ‘सोचो वैश्विक और करो स्थानीय स्तर पर’ की क्योटो भावना वाले दिन
मैंने काफी पहले सन 1966 में जब मैं सिर्फ 21 साल का था, डीएसबी राजकीय महाविद्यालय में बतौर प्राध्यापक अपनी सेवा प्रारम्भ की (मेरे साथ कई और भी थे जिन्होंने डीएसबी कॉलेज में लगभग इसी उम्र में अपनी सेवा प्रारम्भ की). साठ और सत्तर के दसक में डीएसबी कॉलेज के साथ नैनीताल शहर एक अनोखा स्थान था, युवा ऊर्जा से भरपूर प्राध्यापक जिनमें कि कुछ प्रभावशाली करने का जज्बा था. प्रोफेसर पन्त के सानिध्य में, उनके बौद्धिकता से ओतप्रोत ज्ञान, जो उन्होंने अपनी मौलिक सोच सकने की तीक्ष्ण बुद्धिमत्ता और सर सी वी रामन के सानिध्य में अर्जित किया था, वह स्वर्णिम काल था. पन्त जी, लोग उन्हें इसी नाम से संबोधित करते थे, उनसे लगभग वे सभी लोग प्रभावित थे, जो उनके संपर्क में आये. उदार और सभी की जरूरतों का ख़याल रखने की उनकी प्रबृत्ति के कारण उनका छात्र-छात्राओं, अध्यापकों और आम नागरिकों पर खासा प्रभाव था.

प्रधानाचार्य के रूप में उन्होंने साठ के दशक में ही कार्यप्रणाली में उल्लेखनीय परिवर्तन किया था, दण्डित करने के बजाय उन्होंने छात्र-छात्राओं को जिम्मेदार बनाने के सफल प्रयास किये थे. उनके कार्यदिवस काफी लम्बे, ब्यस्त, और शोध, प्रशासनिक सृजनात्मकता, सामाजिक चेतना तथा विज्ञान के संचार के विभिन्न कार्यक्रमों से युक्त होते थे. दिनभर की थकाऊ कार्यालयी व्यस्तता के बाद वे न्यू क्लब में ब्रीज खेलने जाया करते थे. बाद के दिनों में जब मैं भी ब्रीज खेलना सीख गया था तब मुझे ज्ञात हुआ कि वे ब्रीज के कितने निपुण खिलाड़ी थे. कोई भी अनुभव कर सकता था कि वे एकाग्रता में हम सब से कितना अलग थे. वे ब्रीज खेलने में इतने व्यस्त रहते थे कि उन्हें इसका भी आभास नहीं होता था कि लोग गर्मियों में उन्हें मिलने के लिए मुम्बई, दिल्ली, कलकत्ता और अन्य दूरस्त क्षेत्रों से नैनीताल आये हुए हैं. अक्सर यह शर्मिंदगी का शबब भी बन जाता था. खेल उन्हें बेहद संतुष्टि देता था और यह अहसास भी कि वे कुछ विलक्षण कर रहे हैं. यही कारण है कि कभी-कभी वे पूरी रात और यहाँ तक कि दुसरे दिन प्रातः तक लगातार खेलते रहते थे. उन स्वर्णिम दिनों में नैनीताल पूर्णतः पैदल चलने वालों का शहर हुआ करता था और लोगों को अपने घर जाने के लिए सैकड़ों मीटर चढ़ाई या उतराई में पैदल चलना पड़ता था. इस तरह एक नौजवान औसतन प्रतिदिन 10-12 किलोमीटर पैदल चलता था. एक प्रधानाचार्य और एक चपरासी में कोई अंतर नहीं होता था दोनों को एकसमान पैदल चलना होता था. कभी-कभी तो वे रात के बारह बजे घर पहुँचते थे और मैं अनुभव करता था कि घर वाले बिना किसी शिकवा शिकायत के उनको भोजन परोसते थे, और प्रोफेसर पन्त जाड़ों में हीटर बगल में जला कर जमीन पर बैठ खाना खाते हुए, पुनः एकाग्र हो जाते थे, परन्तु इस बार ब्रीज कार्डों की जगह भौतिकी की शोध पत्रिकाओं के पन्नो में. उनमें यह बिलक्षण प्रतिभा थी कि वे परस्पर बिलकुल भिन्न चीजों में ; खेल और अकादमिक जिससे कि उन्हें बेहद लगाव था, पर तत्काल ध्यान परिवर्तित कर तल्लीन हो जाते थे. उन्होंने सांसद का एक चुनाव भी लड़ा था और जिस दिन परिणाम आया (जिसमे कि उनकी हार निश्चित थी, वे कांग्रेस के दिन थे और उन्होने चुनाव कांग्रेस से नहीं लड़ा था), वे भौतिकी की प्रयोगशाला में थे. यह उनका अकादमिक लगाव ही था जिस कारण वे पचास मील दूर पैदल चल कर ट्रेन पकड़ते थे और कई-कई दिनों तक बैठे-बैठे सर रमण तथा अन्य विद्वानों से भौतिकी सीखने बंगलौर पहुचते थे.
पुनः नैनीताल के दिनों कि तरफ लौटते हैं, वे वो दिन थे जब हमारे लिए प्रत्येक क्षण का आनंददायक होता था . नैनीताल निवासी ऐसे आनंद के दिनों में शहर छोड़ने की सोच भी नहीं सकता था, वे इतने आनंदित करने वाले दिन थे. उनके परिवार का डॉ पन्त के बैद्धिक विकास में अहम् योगदान था, और वे उनके सामाजिक कार्य कलापों के प्रति सहिष्णु थे. उन्होंने भौतिकी, विज्ञान के बड़े मसलों, और उनके सामाजिक पहलुओं को हिंदी में समझाने में विलक्षण दक्षता हासिल की थी. उनमें वो विशेष प्रतिभा थी जो अभी-अभी स्वतंत्र हुए इस देश में शिक्षा के क्षेत्र में विकास के मार्ग खोजने के लिए आवश्यक थे. ज्ञान, प्रबलता और कुछ कर गुजरने की छटपटाहट ने उनको प्रखर वक्ता बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष उनके विचारों को समर्थन देने के लिए तैयार रहते थे, हिंदी के धुरंधर श्री हजारी प्रसाद द्विवेदी, कुमायूँ विश्वविद्यालय में हफ़्तों समय बिताते थे, कुमायूं विश्वविद्यालय के अध्यापक और छात्र-छात्राएं आपदाग्रस्त क्षेत्रों का भ्रमण कर लोगों कि मदद करते थे, और घटना की वास्तविक स्थितियों का पता लगाने की कोशिश करते थे. उनके इर्द-गिर्द नैनीताल में एक आत्मनिर्भर अकादमिक प्रभामंडल विकासित हो रहा था, जिनमे स्थानीय स्तर पर किये जा रहे क्रिया कलापों का सम्बन्ध वैश्वविकता से जुड़ता था. यह आश्चर्यजनक था कि उनके साथ हुई एक मुलाक़ात में प्रसिद्द इतिहासविद राम गुहा ने यह बात महसूस की थी. एक भारतीय अकादमी के प्रोफ. पन्त स्मृति ग्रन्थ में उन्होंने लिखा कि ‘क्योटो: वैश्विक सोच और स्थानीय क्रियाकलाप’ के विचार को बहुत पहले ही एक छोटे से स्थान, डी एस बी तथा नैनीताल क्षेत्र में प्रोफेसर पन्त ने मूर्तरूप दे दिया था. जब नैनीताल का मौसम सुहावना हो तो दुनिया में इससे अधिक अच्छी चीज और कुछ नहीं हो सकती थी.कल्पना कीजिये कि एक सत्झडी (सात दिनों तक लगातार बारीस) के बाद एक चमकते सूरज वाला दिन, जिसमें कि कंकर-कंकर, बांज के पेड़ों की पत्ती-पत्ती, चाइना स्लोप में उगे साइप्रस के पेड़ों कि हर फुनगी, बेल वाले गुलाबों के हर फूल पर सूरज की रश्मियाँ इठला रही हों. देवदार की मादा कोन पर जल की बूंदों के चमकदार परावर्तन का दृश्य किसी की भी स्मृतियों की स्थायी धरोहर बन जाती है. प्रोफेसर पन्त ने कुछ इसी तरह का माहौल अपने कार्यालय नैनीताल में बनाया और बिताया था.

कुमायूं विश्वविद्यालय कि स्थापना और पंत जी का सपना
मेरी राय है कि वे कुमायूं विश्वविद्यालय को अकादमिक बुलंदियों को छूने, मानक स्थापित करने और निस्वार्थता के प्लेटफोर्म के तौर पर स्थापित करने का सपना देखते थे. उनका प्रभामंडल वैश्विक था यद्यपि उनकी जड़ें छोटे से नैनीताल रूपी गमले में थी. उच्चता को प्राप्त करना हमेशा से एक चुनौती होती है परन्तु क्या वे सचमुच प्राप्त की जा सकती हैं? एक गरीब और भुखमरी वाले अविकसित राष्ट्र के नागरिक सर रमण को नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने से कोई रोक नहीं पाया, जबकि नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले आइन्स्टीन और बोहर जैसे धुरंधर हों. उल्लेखनीय है कि रमण योरोप और अमेरिका से बाहर के वैज्ञानिकों में प्रथम नोबेल पुरुष्कार विजेता थे. मैं यहाँ इस मुद्दे को अधिक विस्तार नहीं देना चाहता हूँ परन्तु मैंने इसका उल्लेख यहाँ प्रोफ. पन्त के सपनों के सन्दर्भ को साबित करने के लिए किया है. सत्तर के दशक में हम कॉलेज वाले प्राध्यापकों के लिए रीडर अथवा प्रोफेसर का पद बहुत बड़ी बात थी. लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध लाइकेन वैज्ञानिक डॉ. अवस्थी रीडर के तौर पर रिटायर हुए थे, जबकि वे एफ़.एन.ए( भारत में इसे विज्ञान के क्षेत्र में उच्चतम अलंकरण माना जाता है. वर्तमान में सभी स्थापित विश्वविद्यालयों कें बहुत कम वैज्ञानिक एफ़एनए हैं) थे. कुमायूं विश्वविद्यालय के लिए निर्धारित मानकों की पूर्ती हेतु इसकी स्थापना के समय चार रीडर और चार प्रोफेसरों के पद स्वीकृत किये गए थे. मैं बनस्पति विज्ञान में पीएचडी था और राजकीय महाविद्यालय में प्राध्यापक और विभागाध्यक्ष के तौर पर कार्य कर रहा था. मुझे लगता था कि यदि मेरी नियुक्ति विश्वविद्यालय में रीडर पद पर हो जाती तो मैं औरों से अलग 8 लोगों के एक ख़ास ग्रुप में शामिल हो जाऊँगा, अतः मैंने कुमायूं विश्वविद्यालय के बनस्पति विभाग में रीडर के पद के लिए आवेदन किया. मेरी पत्नी (प्रोफेसर पन्त की बेटी) और मेरी हिम्मत नहीं हुई कि हम कुलपति (मेरे ससुर) को ये पूछ सकें कि क्या मै भी आवेदन करूँ ताकि उनको अंदाजा रहे कि मेरा चयन किया जा सके. आपको पता है ऐसा क्यों? हमें डर था कि कहीं वे इस तरह कि महत्वाकांक्षा का मज़ाक ना उड़ायें. अतः मैंने उनको नहीं बताया कि मैं भी अभ्यर्थी हूँ. मुझे उम्मीद थी कि चयन समिति के कोई विशेषज्ञ मुझसे प्रभावित होंगे और मैं चयनित हो जाऊँगा.मैंने यह भी सोचा था कि कुलपति शायद चयन समिति से अलग रहे ताकि मेरे चयन का रास्ता साफ़ हो सके. मुझे किसी ने बताया कि डीएसबी कॉलेज के तत्कालीन प्रधानाचार्य राकेश जी ने यह सुझाव भी दिया था कि कुलपति (डॉ. पन्त) को चयन समिति का हिस्सा नहीं होना चाहिए ताकि मेरे लिए अवसर बन सके.
मेरी उम्मीदों के विपरीत कुलपति ने चयन समिति में भाग लिया, ताकि यह सुनिश्चित हो कि उनके दामाद का चयन ना हो सके. उन्होंने डॉ. जे. एस सिंह (जोकि प्रोफेसर के पद के लिए अभ्यर्थी थे)का चयन बनस्पति विज्ञान में प्रथम रीडर के तौर पर चयन करके एक सन्देश दिया था. बाद में जब मुझे मालूम हुआ कि प्रोफेसर जे. एस सिंह के इकोलॉजी में शोध पत्र विश्व की प्रतिष्ठित शोध पत्रिकाओं में छपे हैं, मैंने तत्काल निर्णय लिया कि मैं बनस्पति विज्ञान के प्रवक्ता रहते हुए उनसे इकोलॉजी सीखूंगा. उनसे शीघ्र इकोलॉजी सीख कर मैं भी विश्व की प्रतिष्ठित शोध पत्रिकाओं में शोधपत्र छापने लगा. अब मुझे अहसास है कि उस वक्त यदि मैं रीडर के पद पर चयनित हो जाता तो आज एक साधारण पारिस्थितिकी विज्ञानी से अधिक कुछ ना होता. उस समय चयनित न होने के कारण ही मैंने इकोलॉजी सीखी और आज अकादमिक समुदाय में प्रमुख हिमालयी वन-पारिस्थितिकी विज्ञानी के रूप में जाना जाता हूँ. और फिर तो प्रतिष्ठा/पद मेरे अनुगामी होते गए. इसतरह मेरे ससुर जी ने मेरी मदद ही की थी. उस घटना के कई दशक बाद भी, मैं नियमित रूप से प्रोफ. जे. एस. सिंह के करीब हूँ और आज भी किसी महत्वपूर्ण शोध पत्र के लेखन में उनकी सलाह लेता रहता हूँ. एक असफलता भी आपको बुलंदियों पर पहुचने का कारण बन सकती है, बशर्ते उसे सही सन्दर्भ में लिया जाय.मैंने अपने आप को अध्ययन और ज्ञान संवर्धन हेतु समर्पित कर दिया, और ज्ञान की शक्ति के आनंद में डूब गया, जो रिटायरमेंट के कई वर्षों बाद आज भी मुझे सतत सुकून दे रहा है. विकासशील देशों में सामान्यतः एक कमी होती है कि वे प्रोफ. पन्त जैसे विद्वानों का उनकी क्षमता के अनुरूप उपयोग नहीं कर पाते. इस तरह के व्यक्तियों को तो जीवनपर्यन्त के लिए प्रोफेसरशिप प्रदान की जानी चाहिए. उस वक्त के राजनैतिक कर्णधारों ने उस समय के हिमालयी देशों से शायद सर्वश्रेष्ठ विद्वान् व्यक्ति को उचित स्थान ना देकर देश का बहुत बड़ा अहित किया. एक गरीब देश इस तरह की बर्बादी वहन नहीं कर सकता. हम इसका पहले ही खामयाजा भुगत रहे हैं, हमारे विश्वविद्यालयों के स्तर में पहले की अपेक्षा गिरावट आयी है.खुद नैनीताल के लोग ही अपने बच्चों को नैनीताल में पढ़ाना पसंद नहीं करते. यह भी एक तरह का बाह्य पलायन ही है. मुझे याद है कि एक बड़े हॉल में एकदम सन्नाटा था जब महादेवी वर्मा लगभग एक हज़ार लोगों के समूह को संबोधित कर रही थी. इसी तरह का दृश्य होता था जब हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपना व्याख्यान दिया था या फिर एम् एस स्वामीनाथन ने चावल उगाने को लेकर अपने शोध पर व्याख्यान दिया था. कुछ समय बाद धीरे धीरे इस तरह के अकादमिक व्याख्यान डीएसबी से खिसक कर एटीआई में शिफ्ट हो गए. अब ना तो एटीआई में और ना ही डीएसबी में ही इस तरह के प्रयास होते हैं. हमारे राजनैतिक नियंताओं द्वारा किये गए नुकसान का दुष्परिणाम बहुस्तरीय हुआ. प्रोफेसर पन्त के करियर को बीच में ही समाप्त कर देना तो इसकी बानगी भर थी.

डॉ. पन्त के जीवन में भौतिक विज्ञान और गांधीवाद
‘पहाड़’ के इस अंक में काफी विद्वान् शायद डॉ पन्त के गांधी के प्रति जूनून के बारे में भी लिख रहे होंगे. इस पर मुझे बस कुछ ही टिप्पणी करनी है. प्रोफ. पन्त का गाँधी जी से भावनात्मक जुड़ाव था और गांधी के विरुद्ध किसी भी तर्क को वे सुन नहीं सकते थे. सादगी और भौतिकवादिता के प्रति वैराग्य उनको बहुत भाते थे. प्रोफ. पन्त ने अपने शहर नैनीताल में गांधीवाद का अपनी तरह से समावेश किया. उदाहरणार्थ उनको कुलपति पद से हाथ धोना पड़ा क्योंकि उन्होंने तत्कालीन राज्यपाल चेन्ना रेडी के दबाव में आने से इनकार कर दिया. महामहिम चाहते थे कि कुमायूं विश्वविद्यालय उनके सुझाए किसी ज्योतिषी को डॉक्टरेट की मानद उपाधि प्रदान करे. प्रोफेसर पन्त इस तरह के अकादमिक क्षरण के विरुद्ध थे. गांधी जी की शिक्षा का पालन करते हुए प्रोफ. पन्त ने निश्चय किया कि अपने पद को बचाए रखने के लिए किसी से संपर्क नहीं करेंगे. हम सभी जानते हैं कि यदि अपने हित के लिए आप किसी प्रभावशाली से संपर्क नहीं करोगे तो आपको क्या कुछ प्राप्त हो सकता है. अतः सरकार द्वारा प्रोफेसर पन्त की सेवाएं फिर दुबारा कभी नहीं ली गयी.
परन्तु गांधी जी से भिन्न प्रोफेसरपन्त को भोजन बहुत पसंद था, उन्हें अहसास था कि वे आकर्षक थे, उनको अच्छे कपडे पहनने का बहुत शौक था. वे जीवनभर भारतीय क्रिकेट में दिलचस्पी लेते रहे, अच्छी फिल्मे देखने में उनकी दिलचस्पी थी और जीवनपर्यंत ब्रीज खेलते रहे. परन्तु उनका प्रथम लगाव था स्तरीय विज्ञान; वह संभवतः सबकुछ छोड़ देते अगर हमारी अकादमिक व्यवस्था उन्हें शोध के लिए अच्छी मूलभूत सुविधायें, जिसमें कि योग्य और दिलचस्पी लेने वाले शोध छात्र भी शामिल हैं, उपलब्ध करा सकती. कुल मिलाकर वे गांधी के प्रभाव से आकंठ डूबे एक भौतिकीविद थे. बीएचयू के विज्ञान संकायाध्यक्ष प्रोफेसर के. पी. सिंह ने एक बार मुझे बताया था कि एमएससी प्रथम वर्ष के चार प्रश्नपत्रों में से प्रथम प्रश्नपत्र की परीक्षा नहीं देने के बाबजूद डॉ. पन्त प्रथम श्रेणी में पास हुए थे. प्रथम प्रश्नपत्र की परीक्षा के दौरान वे किसी गणितीय गणना से इतने परेशान हो गए थे कि उत्तर पुस्तिका के सभी पृष्ठों को पेन से काट कर उन्होंने परीक्षा कक्ष से बाहर आ गए थे. तब प्रोफेसर के. पी. सिंह सहित उनके सभी मित्र उनके साथ बैठे और उनकी इस हरकत के कारण समय और धन के नुक्सान का आंकलन किया गया. मित्रों ने उन्हें अन्य प्रश्नपत्रों की परीक्षा देने के लिए मनाया. डॉ. पन्त ने भी इसके नुकसान को माना और अन्य प्रश्नपत्रों की परीक्षा दी. उन्होंने तीनों प्रश्नपत्रों में इतना अच्छा किया कि कुल मिलाकर प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो गए. उनके प्रारम्भिक दिनों के शोध निदेशक डॉ. रमण ने उन्हें राय दी थी कि उनको योरोप जाकर वहाँ के किसी नोबेल पुरुष्कार विजेता भौतिकीविद की प्रयोगशाला में उनके निर्देशन में शोध कार्य जारी रखना चाहिए.
मुझे लगता है कि शक्तिशाली व्यक्तियों के प्रभाव के विरुद्ध लड़ने की ताकत और अपनी जरूरतों को न्यूनतम करने की क्षमता के कारण वे गांधी जी से बेहद प्रभावित थे. वे गुणवत्ता परख विज्ञान और लोगों को शिक्षित करते हुए जीवन पर्यन्त अन्याय के विरुद्ध लड़ते रहे. वहीँ दूसरी तरफ अच्छा भोजन करना, हुक्का पीना, आकर्षक कपडे पहनना, अच्छे सिनेमा और क्रिकेट के प्रति दिलचस्पी, और दीवानगी की हद तक ब्रिज खेलना उनकी दिलचस्पियों में शुमार थे.
लोग उनके समग्र व्यक्तित्व से प्रभावित थे : सुदर्शन व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द निर्मित बौद्धिक गंभीरता, और जिनको उनका हक़ न मिला हो, उनके पक्ष में खड़ा हो सकने का उनका गुण; उनको एक आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी बनाते थे. मेरे हिसाब से उनके प्रधानाचार्य तथा कुलपति कार्यकाल के दौरान उनको मिलने आये मेहमानों के लिए घर में 50 से 100 कप चाय तो हर रोज बनती होगी. यदि मेरी सास जी हल्द्वानी में बहुत कम कीमत में दूर-दराज के इलाके में एक छोटा भूमि का टुकड़ा ना खरीदती, तो प्रोफेसर पन्त के रिटायरमेंट के बाद आर्थिक दृष्टि से परिवार का गुजारा चलना मुश्किल हो जाता. उन्होंने कभी भी संपत्ति जोड़ने में ध्यान नहीं दिया और हल्द्वानी में बने अपने नए घर को देखने भी तभी आये जब परिवार उसमें निवास करने लगा. एक दृष्टि से देखा जाय तो उनके विविधतापूर्ण और समृद्ध अकादमिक करियर में उनके परिवार का बहुत बड़ा योगदान था. वे कभी कुछ भी खरीदने बाज़ार नहीं गए, अपने लिए कपड़े खरीदने भी नहीं. कभी किसी ने उनके ब्रिज खेलने के बाद देर रात घर आने, किताबें खरीदने और जरूरतमंदों को पैसा देने पर प्रश्न नहीं उठाया.
ये समझ से बाहर था कि गांधी जी के प्रति उनका इतना अधिक जूनून क्यों था. क्या यह बौद्धिक मामला अधिक था?? उनपर गांधी के अनुरूप कई अन्य बातों का खासा प्रभाव था, जैसे कि शुमाकर का “स्माल इज ब्यूटीफुल”, पारिस्थितिकी का “परस्पर निर्भरता और समावेशिता” सिद्धांत, हिंदुत्व का गंभीर पहलू और बनारस से सम्बन्ध, ग्राम्य अनुराग, और उस कटोरेनुमा नैनीताल शहर के प्रति लगाव. वे बनारस जाने का कोई भी अवसर नहीं छोड़ते थे, जहां वे शाश्वतता और हिंदुत्व की सततता का अनुभव करते थे. उनको बनारस के मन्त्र से सुविज्ञ थे कि “थोडिकै खाइब बनारसाई रहिब” (थोड़ा ही खाओ पर बनारस ही रहो: बनारस में रहने के लिए किसी भी भौतिक प्राप्ति के अवसर को छोडो).वामपंथ और पूंजीवाद के विभाजन और सिद्धान्त से वे कभी प्रभावित नहीं हुए. उनका हृदय तो हमेशा गांधी जी के सत्यानुग्रह एवं विज्ञान और पारिस्थितिक समग्रता में ही लगा रहता था. कुमायूं विश्वविद्यालय के विकास के लिए पारिस्थितिकी और पर्यावरण, तथा बहुविषयिक शोधकार्यों को बढ़ावा दिया गया. संभवतः वनस्पति शास्त्रियों और भूवैज्ञानिकों के संयुक्त तत्वावधान में सुदूरसंवेदन प्रणाली कि पहली शोध परियोजना हमारे विश्वविद्यालय में प्रारम्भ कि गयी. हिमालयी वनों पर शोध के लिए शोध परियोजना लाने के लिए डॉ. पन्त ने अहम् भूमिका निभाई थी. जब प्रोफेसर पन्त कुलपति थे उस दौरान श्री सुंदर लाल बहुगुणा अक्सर कुमायूं विश्व विद्यालय आते रहते थे. सत्तर और अस्सी के दशक में कुमायूं विश्वविद्यालय हिमालयी पारिस्थितिकी पर शोध का अग्रणी केंद्र बन गया था. मेरे विचार से उस दौरान हिमालयी पारिस्थितिकी पर प्रकाशित होने वाले स्तरीय शोधपत्रों में से लगभग 50 प्रतिशत शोधपत्र अकेले कुमायूं विश्वविद्यालय से होते थे. अब चीन हमसे कहीं आगे है और शायद हिमालय पर शोध के मामले में नेपाल भी हमसे अच्छी स्थिति में है.
सक्रिय राजनीति में पदार्पण
रिटायरमेंट के बाद वे पुनः स्पेक्ट्रोस्कोपी में शोधकार्य में जुट गए. परन्तु विश्वविद्यालय में स्पेक्ट्रोस्कोपी में शोधकार्य के लिए विश्वविद्यालय में मूलभूत सुविधायें उस स्तर की नहीं थी कि उन्हें पूर्णतः व्यस्त रख सके. इस दौरान पहाड़ी क्षेत्रों में विकास के लिए अलग राज्य कि आवश्यकता महशूस की जाने लगी थी. प्रोफेसर पन्त ने इस उद्देश्य के लिए क्षेत्रीय दल, उत्तराखंड क्रान्ति दल के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. वे अल्मोड़ा संसदीय क्षेत्र से चुनाव भी लडे. चूंकि बिना ढेर सारा पैसे और म्हणत के कोई भी चुनाव नहीं जीत सकता, लिहाजा वे चुनाव हार गए. क्रिकेट खेलने के लिए एक अच्छा बल्ला और कई सुरक्षा उपकरण चाहिए. आपको आवश्यक उपकरण तो चाहिए ही भले ही आप ब्रेडमैन ही क्यों ना हों. चुनाव में भी कई तरह के संसाधन चाहिए थे, उनके पास एक भी नहीं थे. नतीजा जब चुनाव का नतीज़ा आया वे भौतिकी की प्रयोगशाला में थे.
प्रोफेसर डी. डी. पन्त की नियुक्ति कुलपति के द्वितीय कार्यकाल के लिए नहीं की गयी, जो उनके लिए एक झटका था. वे इतने सीधे-सादे और मासूम थे कि उनको लगता था कि सरकार उन्हें दूसरे कार्यकाल के लिए भी नियुक्त कर लेगी, क्योंकि वे पूर्णतः अर्ह थे, पहले कार्यकाल में जो कई कार्य प्रारम्भ किये गए हैं, उनको समुचित दिशा प्रदान की जानी बाकी थी. आखिर वे भौतिकी में डीएससी थे, सर रमन के छात्र थे,देश के चोटी के भौतिकिविदों में से एक थे और कुमायूं विश्वविद्यालय के संस्थापक थे. लेकिन हमारी व्यवस्था में सामान्यतः दो अलग अलग सरकारों द्वारा सामान सामान रूप से योग्य नहीं माना जाता यदि दोनों सरकारें अलग-अलग पार्टियों की हों.

‘यद्यपि आप उनके खिलाप हैं, यदि जरूरी है तो मुझसे संपर्क करें मैं इंदिरा जी से बात कर सकता हूँ’. ये शब्द थे हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के जो उन्होंने पाने कुमायूं विश्वविद्यालय भ्रमण के दौरान चाय पर मुलाकात के दौरान प्रोफ.पन्त से कहे. एक के बाद एक सरकारें कुलपति के पद का राजनीतिकरण करती रहीं, और यह प्रबृत्ति वर्ष दर वर्ष बढ़ती चली गयी. कुछ लोग तो कुलपति चयन में धन के प्रभाव कि भी बात करते हैं.
क्षेत्र के प्रमुख राजनैतिक हस्तियाँ, के सी पन्त जी, एच एन बहुगुणा जी और एन डी तिवारी जी; डॉ. पन्त जी को अच्छी तरह से जानते थे. शायद उनकी एह एन बहुगुणा जी से अधिक घनिष्टता थी और वे बहुगुणा जी के राजनैतिक चातुर्य और सहस की खुले मन से प्रशंसा करते थे. मुझे याद है एक बार बहुगुणा जी को मैंने कहते सुना था कि उन्हें डॉ पन्त उन्हें उम्मीद और बौद्धिक मार्ग दर्शन करते हैं. डॉ पन्त नारायण दत्त जी के लिए कभी भी बहुत अच्छा नहीं कहते थे. इमरजेंसी को वे कभी पचा नहीं पाए और इंदिरा जी के लिए उनके मन में कोई आदर नहीं था. नेहरु जी के लिए उनके विचार बहुत अच्छे नहीं थे क्योकि उनका आर्थिक मॉडल गांधी जी के आर्थिक मॉडल से भिन्न था. उनके मस्तिष्क पर गांधी के विचार इतने हावी थे कि जो कोई भी इससे भिन्न विचार रखता था, उसमें वे खोट ढूँढने लगते थे.
मेरे लिए उनका स्थान
मैं यह विनम्रता पूर्वक और साफगोई से स्वीकार करता हूँ कि मैं अपने जीवन में जितने भी लोगों के संपर्क में आया, प्रोफेसर डी डी पन्त जी को उन सबमें सबसे महान व्यक्तित्व के रूप में पाया. अन्य कोई भी उनके इर्द-गिर्द नहीं ठहरते. मैंने बहुतों से बहुत-कुछ सीखा. प्रोफेसर जे. एस. सिंह का मेरे परिस्थितिक ज्ञान संवर्धन में महान योगदान है; ओरेगेन स्टेट विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉन बी. ज़ोबेल ने लम्बे वार्तालाप के माध्यम से मेरे इकोलॉजी के ज्ञान वृद्धि में सहायता की. परन्तु मेरे समग्र व्यक्तित्व के विकास में प्रोफेसर पन्त का योगदान उल्लेखनीय रूप से महानतम था. मैं उनके साथ कई बार उनसे गरमागरम बहस में उलझ जाता था और कई बार उनको नाराज भी कर देता था. मैं गांधी का अनुयायी नहीं था, मैं खुद अपनी जैव प्रजाति ‘होमो सेपिएन्स’ से भी प्रभावित नहीं हूँ, व्यक्तिगत पसंद नापसंद को छोडिये, कौन जानता है कि ये रहस्यमय मार्ग जीवन में योगदान करते हैं. तो फिर उनका क्या गुण है जिस कारण मेरे मन में डॉ. पन्त का स्थान सर्वोपरि है? मेरी दृष्टि में उनकी पवित्रता-सुबह-सबेरे घास की पत्तियों में तुसार की चमकती बूंदों से पवित्रता. मैं जानता हूँ ये एक अल्हड़ उपमा है, परन्तु मैं इसमें और कुछ नहीं कह सकता.

किसी भी पुरुष्कार और अलंकरण, जोकि आमतौर पर मैनेज किये जाते हैं ,इससे उन्होंने हमेशा अपने आप को दूर रखा. बाबजूद इसके वे अपने अनगिनत छात्र-छात्राओं और सहकर्मियों, जोकि उन्हें जानते थे, के ह्रदय में बसते थे. उनमें ऐसा बहुत कुछ था जो आज के युग में एक नायक बनने के लिए चाहिए: ज्ञानियों जैसा गाम्भीर्य, विलक्षण बैद्धिकता, सतत अद्ध्ययन और बुद्धिमत्ता के बल पर अर्जित ज्ञान एवं विचार; और बेदाग़ लंबा कैरियर. और सुदर्शन व्यक्तित्व.
बहुत सारे लोग जो दूर से महान दीखते है, जब आप उनके पास आते हैं तो पता चलता ही कि वे तो व्यक्तित्व से बौने हैं. परन्तु ‘पन्त चाचा’ (हम सभी चचेरे भाई बहिन उन्हें चाचा ही बुलाते थे) गिने चुने अपवादों में से एक थे. उन दिनों डी एस बी और नैनीताल में बहुत सारे प्रेमी और ईमानदार व्यक्ति थे जीके सानिध्य में मुझे आनंद मिलता था: अतुल (स्व. अतुल पाण्डेय, भौतिक विज्ञान), जीवदा (जेएन पन्त, रसायन विज्ञान), लक्ष्मी (स्व.लक्ष्मी जोशी, भौतिक विज्ञान). जीतेन्द्र दा (स्व. जीतेन्द्र सिंह बिष्ट, जंतु विज्ञान), टीसी पन्त (भौतिक विज्ञान), प्रकाश जोशी(गणित), अजय (अजय रावत, इतिहास), एसएस बिष्ट (रसायन विज्ञान), सी एस मथेला (रसायन विज्ञान), चंद्रेश (स्व. चंद्रेश शास्त्री, अर्थशास्त्र), मेरे विभागीय साथी जन्में वाई पी एस पान्क्ती, आरडी खुल्वे तथा गिरी बाला पन्त; और ‘पहाड़’ वाले शेखर (शेखर पाठक). सभी ने प्रोफेसर पन्त की अपेक्षाओं के अनुरूप अपने अकादमिक स्तर में उल्लेखनीय सुधार किया. यही तो उनके व्यक्तित्व की मन्त्रमुग्धता थी.
मुझे यह अवसर प्रदान करने के लिए शेखर को बहुत बहुत धन्यबाद, तुम जानते हो मैं 75 साल का हो गया हूँ, यह आयु उन पुराने सुहाने दिनों के बारे में लिखने के लिए कुछ अधिक तो है.
पहाड़ को कुछ करना चाहिए जिससे हालिया इतिहास के रिकॉर्ड नष्ट ना हों. उदाहरणार्थ नयी पीढ़ी कैसे जाने कि कैसे स्व. दान सिंह बिष्ट जी ने डी एस बी की स्थापना के लिए आठ लाख रुपये दान किये थे. और अंत में क्या डी एस बी के पास प्रोफेसर डी. डी. पन्त की स्मृति में करने के लिए कुछ नहीं है??

मूल लेखक -पूर्व कुलपति प्रोफ.एस. पी. सिंह 

SP Singh
INSA, Senior Scientist
Central Himalayan Environment Association (CHEA)
179, Kalyan Kunj, Panditwari, Dehradun
surps@yahoo.com

हिंदी अनुवाद.-डा० एस. पी. सती

 

 

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