कुमाऊंनी कविता के मशहूर कवि स्वर्गीय शेर सिंह बिष्ट ‘अनपढ़’ की आज पुण्यतिथि है। उनका जन्म 3 अक्टूबर 1933 को अल्मोड़ा जिले में स्तिथ माल गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम बचे सिंह और माता का नाम लछिमी देवी था। जब शेरदा चार साल के थे, तभी उनके पिता का देहांत हो गया था। घर की माली हालत अत्यधिक खराब होने के कारण जमीन, मां का जेवर सब गिरवी रखना पड़ा। पिता के स्वर्गवास के बाद इनकी माता जी , श्रीमती लछिमा देवी ने, लोगो के खेतों में, मजदूरी करके सारे परिवार का भरण पोषण किया। पुराने जमाने मे पहाड़ो में पढ़ाई लिखाई पर इतना ध्यान नही दिया जाता था। इसी वजह से शेर सिंह बिष्ट उर्फ शेरदा ‘अनपढ़’ कभी स्कूल नही गए।
शेरदा अनपढ़ थे फिर भी उनकी कविताओं में वो सब निहित था जो एक कवि की कविताओं में होना चाहिए। शेरदा ‘अनपढ़’ थे ही ऐसे और कविता सुनाने का उनका अंदाज भी निराला। गंभीर-दार्शनिक कविताएँ सुनाते तो जीवन की बेरहम सच्चाई माहौल पर तारी हो जाती और हास्य-व्यंग्य पढ़ते तो श्रोताओं के पेट में बल पड़ जाते, पसलियाँ दुःखने लगतीं, लेकिन लोट-पोट श्रोताओं को वे स्टेच्यू बनकर देखते रहते. उनका मुँह अंतिम शब्द के उच्चारण में खुला रहता और दोनों हाथ हवा में। वे कविता सुनाने के विशिष्ट अदाकार थे और श्रोताओं को पूरा मौका देते थे- हँसें कि रो लें!शेरदा की कविताओं में, पहाड़ की समस्याएं, पहाड़ का दर्द सब कुछ समाया था। सरल शब्दों में कहें ,तो उनकी कविताओं में पूरा पहाड़ समाया होता था। शेरदा कभी स्कूल नहीं गए। शेरदा ने अपनी माँ को मदद देने के लिए, बचुली देवी नामक एक अध्यापिका के घर मे पहली नौकरी की। और वही शिक्षिका उनकी भी शिक्षिका बनी अर्थात, अध्यापिका महोदया ने शेरदा को प्राथमिक शिक्षा दी।
प्राथमिक शिक्षा लेने के बाद शेर सिंह बिष्ट शेरदा 12 साल की उम्र में आगरा चले गए, वहाँ उन्होंने छोटी मोटी नौकरी की, उसके बाद वो सौभाग्यवश भारतीय सेना में भर्ती हो गए। 31 अगस्त 1940 में वो फौज की बच्चा कंपनी में भर्ती हो गए, कुछ साल बच्चा कंपनी में गुजरने के बाद ,जब 18 साल के हो गए तब फौज के सिपाही बन गए। इसके बाद उन्होंने टैक्सी ड्राइवर के रूप में जालंधर, जम्मू कश्मीर और पूना में नौकरी की । जब वह पूना गए तो उनके अंदर के कवि ने जन्म लिया।
उस समय चीन और भारत की लड़ाई चल रही थी। जब शेरदा युद्ध में घायलों से मिले तो उन्होंने एक किताब लिखने का मन बनाया। इसके बाद उनकी ‘नेफा और लद्दाख’ नामक पुस्तक प्रकाशित हुई। इसके कुछ समय बाद पेट में अल्सर होने के चलते उन्हें रिटायर कर दिया गया। इसके बाद शेरदा अनपढ़ के नाम से मशहूर हुए शेर सिंह बिष्ट, शेरदा 1962 से कला साहित्य की सेवा में जुट गए। शेरदा दो अक्टूबर, गांधी जयंती पर काव्यपाठ के लिए आकाशवाणी के लखनऊ स्टूडियो बुलाए गए थे। घर में बता आए थे कि अमुक दिन, अमुक समय रेडियो पर मेरी कविता सुनना।
निर्धारित समय पर शेरदा की करुण आवाज रेडियो पर गूँजने लगी-‘‘बापू, आज मैं कै तुमरि भौत याद ऊँनै’’ पहाड़ में घर में बैठी कविता सुन रही शेरदा की इजा रोने लगी- ‘आज म्यार शेरू पर लखनऊ में जाणि के मुसीबत ऐगै। आपण बापू कैं धत्यूण रौ शेरदा की आवाज किसी को भी भीतर तक छू जाती थीशेरदा को जीवन की गजब दार्शनिक एवं व्यावहारिक समझ थी। यही उनकी कविताओं का प्राण है और यही कारण है कि उनकी कविताएँ कई कालजयी कविताओं के करीब लगती हैं या उनकी याद दिलाती हैं. उनकी ‘तू को छै’ कविता पंत की ‘मौन निमंत्रण’ के बहुत करीब लगती है तो कुछ दूसरी कविताएँ कबीर की रचनाओं की याद दिला देती हैं, जैसे-‘जा चेली जा सौरास’, ‘जग-जातुरि’, ‘एक स्वैंण देखनऊँ’, ‘हँसू कि डाड़ मारूँ’ आदि।
शेरदा मूलतः हास्य कवि नहीं हैं, हालाँकि हास्य और तीखा व्यंग भी उनकी रचनाओं में बहुत सहज और स्वाभाविक रूप में आता है। वे मूलतः दार्शनिक कवि हैं, जीवन के गूढ़ार्थों की व्याख्या वे अत्यंत सहजता से करते हैं। वे एक लाइन कहते थे और पाठक व श्रोता अर्थों में गहरे डूबने लगते थे। इसके बाद यह सिलसिला मंचीय प्रस्तुतियों गोष्ठियों परिचर्चाओं से लेकर दूरदर्शन और रेडियो तक पहुँचा ,जिसने ग्रामीण पृष्ठभूमि वाले एक सरल इंसान को अपने एक कवि कथाकार के रूप में स्थापित किया। शेरदा अनपढ़ को दर्जन भर से अधिक पुरुस्कारों से नवाजा गया । जिसमें कुमाउँनी साहित्य सेवा सम्मान, हिंदी संस्थान से सम्मान, उमेश डोभाल स्मृति सम्मान,प्रमुख हैं।
कुमायूँ विश्वविद्यालय में शेरदा की कविताएं पढ़ाई जाती है साथ ही उनकी कविताओं साहित्य पर कई शोध किये जा चुके हैं । शेरदा ने बड़ा विकट जीवन जिया। घरेलू नौकर से लेकर फौज की नौकरी, फिर बीमारी का दौर और आर्थिक कष्ट, फिर गीत-नाटक प्रभाग की नौकरी। इस जीवन यात्रा के अनुभवों ने उन्हें संसार के प्रति कबीर जैसी दृष्टि दी तो कष्टों को काटने-सहने के लिए उन्होंने निपट हास्य का सहारा लिया. इसलिए उनका हास्य भी बनावटी नहीं है और बहुधा उसमें त्रासदियाँ छुपी हुई हैं। पहाड़ के रवींद्रनाथ टैगोर कहे जाने वाले शेरदा, अतुलनीय काव्य प्रतिभा के धनी थे, वो एक मार्मिक कवि थे। जो अपनी हास्य कविताओं द्वारा पहाड़ और वहाँ के जन मानस के मर्म उकेरता था। इसके बाद जीवन के अंतिम वर्षों में वह अपने परिवार के साथ हल्द्वानी में रहने लगे। और आज से 11 वर्ष पूर्व आज ही के दिन उन्होंने अंतिम सांस ली। शेरदा की पुण्यतिथि पर उन्हें नमन करता है।.
ये लेखक के निजी विचार हैं।
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला ( दून विश्वविद्यालय)
जानिए एक पहाड़ी अंग्रेज के बारे में …..
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