मोदीजी तुमने वोटों के लिए मुस्लिम टोपी तो लगाई, लेकिन बिरयानी खाई पाकिस्तान जाकर। आओ, एक दिन हमारे घर की बिरयानी खाकर देखो, हमें पकिस्तान भेजना भूल जाओगे! योगी-मोदी यहां आकर देख लो, ये मेरा बच्चा बैठा है अपने हाथ में तख्ती लेकर। मेरे शौहर और ससुर वो खड़े हैं। तुम कहते हो कि मुसलमानों ने महिलाओं को आगे कर दिया है। हिम्मत है, तो आकर हमसे निपटो। हम सब लोग बाबा साहेब के संविधान पर विश्वास करते हैं, मनुवाद पर नहीं। धर्म की अफीम खिलाकर हमें बांटा नहीं जा सकता। देख लो, यहां हिन्दू भी हैं और मुसलमान भी। सिख भी यहां खड़े हैं। हम सब भारतीय हैं।

तुम्हारे बोलने से हम देश नहीं छोड़ने वाले। देश तो उनको छोड़ना पड़ेगा, जो गरीबों को लड़ाकर हमारी एकता को तोड़ रहे हैं। जिन्होंने अंग्रेजों की चापलूसी की है, जो अमेरिका के गुलाम है, उन सबको देश छोड़ना पड़ेगा। हम भगतसिंह, अशफाकउल्ला, खुदीराम की संतान हैं। इंक़लाब ज़िंदाबाद!!!

दिल्ली के शाहीन बाग ने पूरे देश में सैकड़ों की संख्या में जिन बागों को पैदा किया है, उनमें से एक महाराष्ट्र राज्य के वर्धा जिले का हिंगनघाट का शाहीन बाग भी है; जिससे रु-ब-रु होने का मौका 24 जनवरी की शाम को मुझे मिला। सीएए-एनपीआर-एनआरसी के खिलाफ दो घंटे के विरोध प्रदर्शन में करीब 15 महिलाएं, अधिकांश नवयुवतियां, बोलीं। कुछ ने गीत गाये, कुछ ने सुनाई कविताएं। ये कविताएं उन्होंने खुद ही लिखी थी। पिछले एक सप्ताह से वे बोल रही हैं और लगभग 100 महिलाएं बोल चुकी हैं। इस विद्रूप समय में भी उनकी बातों में हास्य का पुट है। जिन्हें बोलने का मौका नहीं मिला, वे धैर्य से अगले दिन का इंतज़ार कर रही हैं। बोलने का मौका न मिलने की कोई शिकायत नहीं।

जब मैंने उन्हें बताया कि मैं छत्तीसगढ़ माकपा के सचिव हूं, केरल से आ रहा हूं, उन्होंने मेरा स्वागत किया, मुझे बोलने के लिए आमंत्रित किया। इस सभा की महिला प्रधान, जो हिन्दू थी, को मालूम था कि केरल वह राज्य है, जहां सबसे पहले नागरिकता कानून को लागू न करने की घोषणा की गई है।

हिंगनघाट के शाहीन बाग में हर रंगत के लोग हैं। जय भीम वाले भी, वंदेमातरम और भारतमाता की जय वाले भी। राजनीति के मोर्चे पर असहमत और अलग-अलग दलों का समर्थन करने वाले ये लोग इस मुद्दे पर एकजुट हैं और घोषणा कर रहे हैं कि वे रोज यहां विरोध प्रदर्शन करेंगे। तब तक करेंगे, जब तक कि इस देश मे उनके रहने-बसने के अधिकार को ख़त्म करने वाला कानून खत्म नहीं होता।

हिंगनघाट जैसी छोटी जगह पर दो हजार लोगों का रोज इकट्ठा होना, जिनमें अधिकांश महिलाएं हैं, इस देश मे करवट बदलती राजनीति की एक प्रतिनिधि तस्वीर है। जिन महिलाओं ने कभी धार्मिक जलसों के अलावा कहीं सार्वजनिक हिस्सेदारी नहीं की होगी, आज वे न केवल घर से बाहर सड़कों पर हैं, बल्कि दीन-दुनियादारी की अपनी व्यथा-कथा भी कह रही हैं। अधिकांश महिलाओं के हाथों में 5-10 मिनट का लिखित भाषण है, जिसे वे अंबेडकर की मूर्ति के नीचे खड़ी होकर पढ़ रही हैं। अंदाजा लगा सकता हूं कि इतना-सा भाषण लिखने और तैयार करने में भी उन्हें दिन-भर लगा होगा। इसलिए हम समझ सकते है कि यह दो घंटे का प्रतिरोध नहीं, अपने जीवन-अस्तित्व की रक्षा के लिए चलने वाला चौबीसों घंटे का संघर्ष हैं। दिन में वे भाषण लिखती हैं, कविताएं बनाती हैं, बच्चे प्ले-कार्ड बनाते हैं — सिर्फ इसलिए कि वे उस आज़ादी की रक्षा कर सके, जिसे उनके पूर्वजों ने उन्हें सौंपा है और बाबा साहेब का संविधान जिसकी रक्षा की गारंटी देता है। एक बच्चे के हाथ में तख्ती थी — लड़ेंगे तो वतन मिलेगा, मरेंगे तो कफन मिलेगा। वे मरने के बाद का जन्नत नहीं मांग रहे हैं, वतन ही उनके लिए जन्नत हैं। इसी भौतिक यथार्थ के लिए पूरे देश के साथ हिंगनघाट भी लड़ रहा है।

सभा खत्म होने के बाद कुछ महिलाओं ने मुझे घेर लिया। उन्होंने मुझे शुक्रिया कहा अपना समर्थन देने के लिए। कुछ महिलाओं के मायके रायपुर में थे, बहुतों की रिश्तेदारियां पूरे छत्तीसगढ़ में फैली हुई हैं — बिलासपुर से लेकर कोरिया और बस्तर तक। यही अपनापा है, जो पूरे देश को एक कर रहा है। यही अपनापा है, जो छत्तीसगढ़ के साथ महाराष्ट्र को रिश्तों की डोर में बांध रहा है।

हिंगनघाट का शाहीन बाग अब नकाब में इंक़लाब के जुनून को पाले हैं। वे अब भगतसिंह की आज़ादी को, फुले वाली आज़ादी को पाना चाहते हैं। वे ब्राह्मणवाद और सामंतवाद और पूंजीवाद से आज़ादी चाहते हैं। वे संघी गिरोह की आंखों में आंखें डालकर गा रहे है – हम देखेंगे ……

संजय पराते