बीर सिंह उर्फ बीरु मास्ट

एक जमाने में टिहरी राजाओं के दर्जी हुआ करते थे बीर सिंह उर्फ बीरु मास्टर के पूर्वज।अंग्रेजी राज में उनके बापदादा मसूरी आये और मशहूर सेवाय होटल के टेलर हो गये।1917 के आसपास जन्मे बीरु मास्टर की दुकान कभी देहरादून के नैशविले रोड पर भी हुआ करती थी।बीरु मास्टर जी मेरे पिता के हमउम्र मित्र थे और अक्सर आते जाते हमारी लायब्रेरी स्थित दुकान पर बैठते।उनको ईश्वर ने दो शफा दी-बेहतरीन टेलरिंग और फिल्मी कथायें लिखने की विधा।

1950-70′ की हिल स्टेशन वाली रेशमी संस्कृति के ‘मसूरीयन’ दौर में बीरू मास्टर जी फिल्मी कथायें लिखने वाले पहले और आखिरी फनकार थे,उनके बाद इस शहर में कोई दूसरा फिर कभी पैदा न हुआ।फिल्म वालों ने इस मासूम फनकार को लगातार ठगा,उनकी लिखी बेहतरीन पटकथायें ली,पर फिल्मी स्क्रीन पर बीरु मास्टर का न नाम कभी दिया,न फिल्म वालों ने कभी उनका पारिश्रमिक दिया। 1971 में मास्टर जी ने लिखित शिकायत की कि राजेश खन्ना की सुपर डुपर फिल्म ‘हाथी मेरे साथी’ उनकी कहानी की नकल कर बनायी गयी है।मुंम्बई फिल्म इंडस्ट्री में भूंचाल आ गया था।मामला बढता,इससे पहले जिंदादिल बीरू मास्टर ने खुद ही इस पर मिटटी डाल दी।उसके बाद से तो मास्टर जी मसूरी के सलीम जावेद कहलाने लगे।

मुझे याद है 1975 में ‘कर्म’ फिल्म की शूटिंग के लिए मसूरी प्रवास पर आये सुप्रसिद्ध फिल्म निदेशक बी आर चोपडा और उस जमाने के सुपर स्टार राजेश खन्ना बीरू मास्टर की ख्याति सुन एक दिन उनकी कुल्डी बाजार रीजेंट हाऊस स्थित टेलरिंग शाप पर जा पहुंचे थे। 1982 के आसपास एक दिन माल रोड पर चलते हुए मास्टर जी ने मुझे यह किस्सा सुनाया था।मास्टर जी ने दोनों को हडकाया था.. कि कैसे उनकी कहानी की नकल कर खुद चौपडा साहब ने 1963 में अपनी फिल्म ‘नर्तकी’ बना ली.. फिल्म वाले कैसे हम जैसे लेखकों की चोरी की गयी कहानियों पर फिल्मे बनाकर लाखों कमाते हैं,पर लेखकों के हक का पैसा तो दूर उनका नाम तक फिल्म में नहीं देते…।

बीरू मास्टर जी हमदोनों,शोले जैसी अनेक फिल्मों के थीम पर अपना दावा ठोकते रहे,पर उस जमीन के लेखक की कोन सुनता ? उन्हे फिल्मी पटकथा लिखने का नशा था। किसी को जल्दी बढिया सूट सिलवाना हो तो वह उनकी दुकान पर सुबह से शाम तक मास्टर जी की फिल्मी कहानियां सुनता।लोगों ने उनकी यही नस पकड ली थी।पर सच ये है कि बीरू मास्टर साहब जितने महान फनकार और उम्दा कारीगर थे,उससे बढकर वे बडे भले इन्सान थे।वे मसूरी की महान पुरानी तहजीब के सच्चे प्रतिनिधि थे। नाटे कद का वो शख्स जब 30-40 साल पहले दोपहर के बाद सेवाय कंपाऊंड से कुल्डी की अपनी दुकान तक एक बांह में सिले कपडे,दूसरी बांह में फिल्म की लिखी कहानियों का रजिस्टर खोसे निकलता तो लगता जैसे देवदूत इस शहर की कदमबोसी करने निकले हों।बीरु मास्टर साहब 1990 के दशक में इस दुनिया से फंना हुए…।।

साभार – जयप्रकाश उत्तराखंडी