डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
हिमालय पर्वत जो देश ही नहीं पूरी दुनिया की शान है। जो पूरे विश्व का मौसम संचालन करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता हो आज वही मानस की विकासवादी व विभिन्न देशों की विस्तारवादी सोच ने हिमालय के अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है। हिमालय के अस्तित्व को खो देना, शायद ही किसी भारतीय को अच्छा लगेगा किन्तु हकीकत यह है कि जिस तरह से पर्यावरण को पूरे विश्व में मानव स्वयं असंतुलित कर रहा है तो वैज्ञानिकों की वह चेतावनी कि 2025 से 2030 तक हिमालय में सिर्फ नंगे पहाड़ नजर आयेंगे सच साबित हो जायेगी।
इसी मिशन को लेकर 13 मई 2006 को टिहरी से एक तीन सदस्यीय दल सोसाइटी फॉर श्रृंगार हिमालय ने जन जागरूकता व उत्तराखंड नये प्रदेश बनने के बाद उसकी सामाजिक, आर्थिक, भौगोलिक,राजनीतिक, सांस्कृतिक विभिन्न क्षेत्रों में अध्ययन के साथ एक सप्ताह तक सर्वे किया था, जिसमें पाया कि हिमालयन ग्लेशियर जो माणा गाँव तक फैले थे। स्थानीय लोगों को ठंड बर्फबारी के समय माणा गॉव को छोड़ना पड़ता था। जहॉ साल भर 4-ं5 फीट बर्फ पड़ी रहती थी वहा से ग्लेसियर 40 किलोमीटर पीछे चले गये थे। 20 साल पहले बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री व यमनोत्री जाते समय जहॉ बड़े-बड़े ग्लेशियर देखे जाते थे वहीं आज नगें पहाड़ देखे जा रहे है। सर्वेक्षण दल ने पाया था कि जिस मानस को प्रकृति के संरक्षण की जिम्मेदारी थी वही मानस प्रकृति का अस्तित्व समाप्त करने पर तुला है । आज मानस द्वारा जंगलों का अवैध पातन धड़ल्ले से किया जा रहा है तो दूसरी तरफ़ वृक्षारोपण मात्र फोटो खिचने तक सीमित रह गया हैं। सड़क निर्माण के लिए भारत तिब्बत वार्डर पर भारी विस्फोटों का प्रयोग करना तथा बड़ी-ंबड़ी मशीनों का उपयोग करता तथा एक देश दूसरे देश पर शक्ति परीक्षण के नाम पर सीमाओं पर बड़े-ंबड़े धमाके करना असका मुख्य कारण है। सर्वेक्षण दल में सोसायटी के तत्कालीन सचिव व स्वतंत्र पत्रकार जगत सागर बिष्ट, राजू राज, व दीपक शामिल थे।सर्वेक्षण दल ने पाया कि मानव की विकास वादी सोच ने प्रदेश को ऊर्जा प्रदेश बनाए जाने के लिए भारी मात्रा में जंगलों को बड़ी परियोजनाओं की भेंट चढ़ाए जाने सहित बड़े बड़े विस्फोट के कारण 80 प्रतिषत जल स्रोत सूख चुके हैं हिमालय क्षेत्रों में सिंचाई की खेती समाप्त हो गयी है, सरकार द्वारा लगाये गये हैड पम्प 60 प्रतिशत सूख गये है।मानस की इस विकासवादी व विभिन्न देशों की विस्तारवादी नीति से सम्पूर्ण विश्व में आज उथल- पुथल मची है जिन देशों का तापमान 35 डिग्री सेंटीग्रेड होता था वहां का तापमान 45 से 50 डिग्री तक पहॅुच गया।
जहॉ लोग बारीश के लिए तड़फते थे। वहीं बरसात ने तबाही मचा दी है। तापमान के कारण जंगलों में आग लग गयी है हजारों लोगों को सरकारों द्वारा दूसरे स्थानों में विस्थापन करने पर मजबूर होना पड़ा है। मौसम परिवर्तन के कारण पूरी दुनिया में हलचल मची है। चर्चाओं का दौर चल रहा है। बड़े-ंबड़े सेमिनारों में करोड़ों रू0 खर्च किया जा रहा है लेकिन धरातल में कोई सरकार कार्य करने को तैयार नहीं है।हिमालय में मानव विकास व विभिन्न देशों की विस्तारवादी सोच का प्रभाव दिखने लगा है भारत दुनिया के उन देशों में शामिल हो गया है जहां व्यापक जैव विविधताएं है। उच्च हिमालय क्षेत्रों में पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालय के 50 से भी अधिक ग्लेषियर थे जो आज सिकुड़ गये है या समाप्त हो गये है जिससे हिमालय क्षेत्र की वनस्पतियों व वहां रहने वाले जीव जन्तुओं, दोनों के साथ-साथ निचले हिमालय क्षेत्रों में उगने वाली फसल व औशधीय पौधों पर पड़ने लगा है जिसका असर स्थानीय लोगों पर पड़ाने लगा है। हिमालय क्षेत्र के गांवों में पानी प्राण वायु व अन्न की कमी को देखने को मिलने लगी है। हिमालय पर आने वाले हर संभावित खतरे को भांप कर उसे समय रहते दूर करना मानस की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। क्योंकि अगर हिमालय में भविष्य में कोई खतरा आता है तो भारत के साथ चीन, नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश,म्यांमार आदि देशों को भी भयंकर खतरा होने की सम्भावना है। इसलिए सभी देशों की सरकारों व वहां रहने वाले मानस को भी हिमालय की विरासत उसके सौंदर्य और उसकीआध्यात्मिकता को बरकरार रखना अति आवश्यक हो गया है।
पूरे विश्व की हिमालय की सामाजिकता, उसका पारिस्थितिकी तंत्र, भू-गर्भ,भूगोल,गौण-विविधता को अच्छे से सामंजस्यकर उसके संरक्षण केलिए कागजों की फाईलों से बाहर निकल कर धरातल पर महत्वपूर्णकदम उठाने की जरूरत है। हालांकि कुछ स्थानीय लोगों व पर्यावरणविद कुछ संगठनों ने समय-समय में हिमालय की दुर्दशा के खिलाफ आवाज उठाई है। जिसमें उत्तराखंड की गौरा देवी,चण्डी प्रसाद भट्ट, सुन्दरलाल बहुगुणा, मेधा पाटकर, किंकरी देवी जैसे पर्यावरण विदों ने देश ही नहीं विदेशों में भी हिमालय की दुर्दशा संरक्षण के लिए होने वाले खतरे को उजागर किया है। साथ ही हिमालय में संरक्षण के लिए भी उपाय बतायें है। लेकिन देश व विदेशों की सरकारें बड़े-बड़े सेमिनारों व गोश्ठीयों तथा पर्यावरण यात्राओं के नाम पर करोड़ों रू0 खर्च कर देते है। उसके बाद फाईलों में दस्तावेज कार्यालयों में धूल फांकते है। लेकिन धरातल पर कार्य नहीं होता है जिस कारण आज हिमालय घायल खड़ा है हिमालय की दुर्दषा के कारण पूरा विष्व ग्लोबल वार्मिंग का शिकार है।जलवायुपरिवर्तन के भयानक स्वरूप के कारण विश्व की सरकारें अपनी जनता को प्राकृतिक प्रकोपों से बचने के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान में विस्थापन के अलावा कुछ नहीं कर पा रही। कोई भी देश प्रकृति के प्रकोप से बचा नही है हर जगह उथल-पुथल मची है। जिसके कारण स्वयं मानस की एकतरफा विकासवादी सोच व विभिन्न देशों की विस्तारवादी आकांक्षा प्रमुख कारण है। प्रमुख रूप से देखने को मिल रहा है, विश्व को अगर प्राकृतिक आपदाओं से बचना है तो हिमालय सहित विभिन्न पर्वत मालाओं को स्थानीय लोगों ,सामाजिक व राजनैतिक संगठनो व बिजनेसमैनोँ की मद्द से इन पर्वतमालाओं को वृक्षों से आच्छादित करने की जरूरतों पर ध्यानदेने की आवश्यकता है। इसके लिए विभिन्न सरकारों को यृद्ध स्तर पर योजना बना कर कार्य करने की जरूरत दिखने लगी है । जिसके लिए विश्व के राष्ट्रीय अध्यक्षों को मिल कर एक साथ कार्य करने की जरूरत है। ऐसे प्रयासों से घायल हिमालय व विश्व के अन्य पर्वत ग्लेशियरों के अस्तित्व को बचाया जा सके।
केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार देश में केरल के बाद उत्तराखंड की जैव विविधता पर सबसे ज्यादा खतरा है। 28 प्रजातियां पक्षियों की उत्तराखंड में विलुप्त हो चुकी हैं। अब उत्तराखंड में 693 प्रजातियां हैं। इनमें रेन क्वैल, किंग क्वैल, लेसर लोरीकन, इंडियन कोर्सर, लिटिल गल, लिटिल टर्न, तिबतन सैंडक्रूज, यूरोपियन टर्टल डव, बार्ड कुकू डव, थिक बिल्ड, ग्रीन पिजन, इंडियन स्विफ्टलेट, सिल्वर ब्रेस्टेड ब्राइबिल, ग्रे चिन्नड़ मिनिवेट, यूरोपियन स्काइलार्क, स्लेटी विलाइड टेसिया, रेडीज बार्बलर, यलो ब्राउडर बार्बलर, थिक बिल्ड बार्बलर प्रजातियां शामिल हैं। बेयर्स पोचर्ड, तीन किस्म के गिद्ध स्लेंडर बिल्ड वल्चर, व्हाइट वल्चर और रेड हेडेड वल्चर के अस्तित्व पर भी खतरा मंडरा रहा है, उच्च हिमालय की जैव विविधता अन्य क्षेत्रों से बिल्कुल अलग है। हिमालय को दुनिया का तीसरा ध्रुव भी कहा जाता है। यहां निवास करने वाले वन्य जीवों की कई प्रजातियां संकट में हैं। जलवायु परिवर्तन के कार कई प्रजातियों के प्राकृतिक वास स्थल सीमित हो रहे हैं। इनस वास स्थलों से छेड़छाड़ भी एक प्रमुख वजह है। ग्लेशियर हमारी लाइफ लाइन हैं। ब्लैक कार्बन से ग्लेशियरों को नुकसान पहुंच रहा है। पर्यावरण को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए। कूड़ा जलाने पर अंकुश लगाना चाहिए। सरकारों को शोध के लिए बजट बढ़ाने के साथ ही वैज्ञानिकों की रिपोर्ट का भी पालन करना होगा। हिमालय और हिंदुकश क्षेत्र में 50,000 ग्लेशियर हैं लेकिन हम सिर्फ 50 का ही अध्ययन कर पाए हैं। सभी का अध्ययन होना चाहिए। ऑलवेदर रोड हो या रेल परियोजना इसके नुकसान के प्रति पर्यावरणविद भी चुप्पी साधे बैठे हुए हैं।
लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं।