डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
नौले उत्तराखंड में जल संरक्षण के विरासतीय और उत्कृष्ट शिल्पकला के अनमोल धरोहर हैं। पौराणिक काल से ही सभ्यताएं और जीवन जल स्रोतों के आसपास ही विकसित हुए हैं। जिन्होंने अपने आवश्यकताओं के अनुरूप जल संरक्षण के तौर तरीके अपनाए। ऐसे ही पानी को संचय करने की एक कारगर विधि है नौला, नौल या नवली। नाभि की तरह इसकी संरचना का होना इसे नौल नाम देती है। उत्तराखंड में गढ़वाली, कुमाऊंनी व जौनसारी भाषा में नाभि को नौल कहा जाता है। पत्थरों को ज्यामिति तरीके से काटने के बाद नौले का निर्माण किया जाता है। जोकि क्रमशः सीढ़ी जैसी दिखाई देती हैं। जिसके बीच में खाली जगह रखी जाती है। जिससे यह नाभि जैसा दिखाई देता है। जमीन के अंदर पानी के धीरे-धीरे रिसाव से यह नौले भरते हैं। साथ ही जल स्रोत का भी निर्माण करते हैं।
यहां विशेषकर कुमाऊं के राजाओं ने नौलों को सजाने, संवारने और संभालने के लिए अद्भुत कार्य किए हैं। कुमाऊं का शायद ही कोई ऐसा गांव हो जहां गांव के साथ नौला न बना हो। यदि गांव है तो नौला भी जरूर होगा।
पौड़ी गढ़वाल के राठ क्षेत्र और चमोली के चांदपुर परगने में नौलों की परंपरा रही है। गांवों में बनने वाले यह नौले गांव के इष्ट देव के समान ही पूजनीय माने जाते रहे हैं। नौलों को बनाने में प्रयोग किये जाने वाले पत्थरों को तराश कर देवी – देवताओं की आकृतियां बनाई जाती थी। पारंगत शिल्पकार ही इस कार्य को निपुणता से कर सकते थे। साथ ही नौले के अंदर भगवान विष्णु की मूर्ति रखने का भी प्रचलन है। यही कारण भी है कि उत्तराखण्ड में तमाम मांगलिक कार्यों में नौलों को पूजने की परंपरा रही है। नौलों का नामकरण अधिकांश रूप से गांव के देवताओं के नाम पर होता है या फिर नौला को बनाने वाले किसी विशेष व्यक्ति के नाम पर नौले का नाम रखा जाता है। जैसे बागेश्वर स्थित बद्रीनाथ का नौला सबसे प्राचीनतम नौलों में से एक माना जाता है।
कत्यूरी और चंद राजाओं के शासनकाल में नौले हमारी जल संस्कृति के सबसे मजबूत स्तंभ रहे हैं। चंपावत का लगभग हजार वर्ष पुराना एक हथिया नौला शिल्प कला का एक बेजोड़ नमूना है। यह नौला कई सदियों बाद भी चंपावत शहर को पानी पिलाने वाला आधार स्रोत है। जब आसपास के सभी नलों की टोंटियां हवा देने लगती हैं तो यह नौला चंपावत की प्यास बुझाता है। एक हथिया नौला की कहानी भी कुछ ताजमहल जैसी है। किंवदंतियों की माने तो नौला बनाने के बाद राजा ने शिल्पकार का एक हाथ काट दिया था ताकि शिल्पकार ऐसा बेजोड़ नमूना दोबारा न बना सके। यही कारण है कि इसे एक हथिया नौला कहा जाने लगा।
ऐसी मान्यता है कि कभी अकेले अल्मोड़ा शहर में ही 360 नौला हुआ करते थे। लेकिन अब लगभग 24 नौले ही शहर में हैं। जिनमें से कुछ तो वर्षभर जिंदा रहते हैं और और बाकी कुछ 8 से 9 महीने तक पानी देते हैं। वर्तमान में भूजल संरक्षण की अनेक विधियां हमारे पढे – लिखे समाज की ओर से दी जा रही हैं। लेकिन कहीं भूजल सूखने से बचा हो या उसका स्तर बढ़ा हो ऐसा सुनने में नहीं आता है। तब यह आधुनिक तकनीक भले ही कितनी कारगर हो पर जिस उद्देश्य से इनका इनका उपयोग हुआ है उनमें यह सफल होती नहीं दिख रही हैं।
मौजूदा समय में सरकारों की ओर से जल संरक्षण की तमाम योजनाएं बनाई जाती हैं। विकास की अंधी दौड़ और निर्माण कार्यों की फोटोग्राफी के दिखावे में मूल जल स्रोतों के साथ छेड़छाड़ कर के हौद, डिग्गी आदि का निर्माण किया जाता है। जिसका कुछ ही वर्षों में यह परिणाम निकलता है कि न तो हौद पानी से भरी होती है और न ही मूल स्रोत जिंदा रह पाते हैं। ऐसे में परंपरागत ज्ञान से भूजल बचाने के लिए नौला पद्धति को सीखने के साथ ही जीवंत रखने की बड़ी जरूरत है। जो पिछले कई दशकों से घनघोर उपेक्षित होने के बावजूद भी अपने अस्तित्व को बचाए रखे हुए हैं।
अल्मोड़ा के 500 वर्ष पुराना स्यूनराकोट के नौले को ,भारत सरकार ने राष्ट्रीय महत्त्व का प्राचीन स्मारक घोषित किया है। उत्तराखंड और अल्मोड़ा जिले के लिए यह गर्व का विषय है। देखरेख के आभाव में यह ऐतिहासिक नौला धीरे -धीरे नष्ट हो रहा था। अब भारत सरकार इसको राष्ट्रीय महत्त्व का प्राचीन स्मारक घोषित करके इसका संरक्षण सुनिश्चित करेगी आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार इस समय भी टिहरी, पौड़ी और अल्मोड़ा जिले के कई हिस्सों में पीने के पानी की समस्या काफी विकराल है। यह समस्या हाल के दिनों में ज्यादा बढ़ी है। दरअसल लंबे समय से उत्तराखंड में लोग पीने के पानी के लिए पारंपरिक जल स्रोतों धारों और नौलों पर आश्रित थे। हाल के समय में कई जगहों पर नल का पानी आने, जंगलों का अनियंत्रित दोहन और निर्माण कार्यों के लिए किए जा रहे ब्लास्टिंग या दूसरे कारणों से उत्तराखंड के आधे धारे और नौले सूख चुके हैं, इनकी हालत काफी खराब हो चुकी है। ऐसे में अब जरूरत है कि उत्तराखंड के इन धारों और नौलों को पुनर्जीवित किया जाए।