जहां आज समस्त संसार कोरोना महामारी की जद्दोजहद के बीच हैरान , परेशान , मजबूर होकर खुली हवा में सांस लेने को भी तरस रहा है , वहीं दूसरी तरफ बुद्धिमान मानव बंद पिंजरे में तड़पते पक्षी की तरह जंजीरों की पेंच में जकड़ा पड़ा है। कभी एक समय था जब रूसो जैसे प्रसिद्ध चिंतक ने कहा था , “मनुष्य स्वतंत्र पैदा हुआ है परंतु वह जंजीरों में जकड़ा है।” शायद यह उक्ति आज सत्य नजर आ रही है । आज तक मैंने भी महामारी शब्द सुना था , किताबों में पढ़ा था । परंतु अब महसूस भी कर रही हूं। अब तक मैंने कभी महावारी और महामारी में अंतर को गंभीरता से नहीं लिया था क्योंकि जब हमारे समाज में किसी महिला को महावारी होती है तो उसे भी महामारी की तरह अछूत, अपवित्र और हीन दृष्टि् से देखा जाता है इसमें कोई दो राय नहीं हैं । कोरोना ही शायद मुझे यह अन्तर समझाने में मददगार साबित हुआ है । करीब तीन-चार माह से पूरा विश्व दहशत में है , लोग घरों में कैद है जो बाहर निकल भी रहा है तो पुलिस की लाठी से पीटे विना लौटता ही नहीं है। 2019 तक की बात करें तो देखा कि सभी लोग भाग-दौड़ भरी जिंदगी में पीछे मुड़कर भी देखने की फुर्सत में न थे। नगर – महानगर , देश- विदेश , ट्रेन- बसे , व हवाई जहाज भी भागे जा रहे थे। विज्ञान, प्रौद्योगिकी, अंतरिक्ष की अपनी अलग ही शान थी , तभी अचानक नववर्ष 2020 का आगमन होते-होते एक ऐसा प्रकोप आया जिसका किसी ने शायद ही थर्टी- फर्स्ट मनाते वक्त अंदाजा लगाया होगा ! वैसे तो भारत में ही नहीं विश्व में महामारियो का इतिहास काफी पुराना है। यदि भारत की ही बात करें तो अभी थोड़ा पीछे जाकर देखते ही 1969 _फ्लू , 1974 _ चेचक , 1994_ सूरत प्लेग, 2002_ सार्स, 2006_ डेंगू , 2009 _गुजरात हेपेटाइटिस , 2015_ ओडिशा पीलिया, 2014 _ स्वाइन फ्लू , 2017_ इंसेफेलाइटिस , 2018_ निपाह और 2019 में कोरोना जैसे अनेक प्रकोपो ने आराम से अपने हाथ पांव फैलाए हैं ।
इन सभी के फैलने के लिए अनेक कारण जिम्मेदार हैै जिनमे मैं प्राथमिकता मानव को देना चाहूंगी। अपने ऐशों- आराम भरी जिंदगी के लिए मानव ने कितने पाप किए हैं उसे यकीन भी नहीं है और इसलिए आज तक वह बेशर्म बनकर गुरुर में जी रहा था। मतलब मानव ने पशु हत्या से लेकर मानव हत्या , प्रकृति हत्या से लेकर संसाधनों का दुरुपयोग तक तमाम पाप किए हैै , और पुण्य के नाम पर दुनिया भर की योजनाओं को चलाकर प्रकृति के साथ-साथ स्वयं को भी मूर्ख बनाता रहा । न जाने कितने सम्मेलनों , योजनाओं, जैव-विविधता , जलवायु परिवर्तन , स्वच्छता , घर-घर नल का जल , ओजोन , अंतरिक्ष कचरा , गंगा स्वच्छता , वृक्षारोपण आदि के नाम पर चलाया गया । जिनका केवल ऑफिस के कागजों तक ही धाराप्रवाह रहता है , क्योंकि धरातल तक तो उनके छींटे भी बमुश्किल ही पहुंच पाते हैं । आज हम सभी लोग विभिन्न तौर-तरीके आजमाते-आजमाते थक चुके है। छोटे कर्मचारी से लेकर बडें – बड़ों के होश ठिकाने लग चुके है। वर्षों पुरानी वैदिक चिकित्सा प्रणालियों से लेकर आधुनिक तकनीक तक की दवाओं को हम आज़मा चुके हैं। इसके बाद भी उपयुक्त समाधान तक पहुंचने में नाकामयाब नजर आ रहे हैं। स्वयं को महाशक्ति कहने वाले भी अब अनेक बार सोच रहे है ! विश्वव्यापी अर्थव्यवस्था डूब रही है । वर्तमान लॉकडाउन के प्रारंभ होने से अब तक भारत में भी अर्थव्यवस्था को बचाने के साथ-साथ दान-दाता भी स्वयं को बढ़ा चढ़ाकर सामने लाए हैं। कुछ सप्ताह पहले की ही बात है फिल्मी सितारों से लेकर उद्योगपतियों तक और वहीं ग्रामीणों से लेकर शहरी वर्ग तक सभी ने कहीं सरकारी खातों में दान दिया तो कहीं किसी ने सीधा गरीबों के खातों में दान दिया। कल और परसों तक समाधान हो जाएगा यही सोचकर हम सभी लॉकडाउन 1.0 , लॉकडाउन 2.0 , और अब लॉकडाउन 3.0 तक पहुंच गए हैं और कोरोना प्रकोप केवल भारत में ही 50,000 के पार पहुंचने को है। एक तरफ जहां सरकार कोरोना को नियंत्रित करने में लाचार नजर आ रही है वहीं दूसरी तरफ अर्थव्यवस्था भी चरमरा ही गई है। कहीं लोगों के पास इन फुर्सत के पलों में खाने-पीने के तमाम विकल्प उपलब्ध हैं तो वहीं कुछ लोग दो वक्त की रोटी के लिए भी सरकार पर मोहताज है। समझ नहीं आता जहां कल तक सोशल डिस्टेंसिंग सैनिटाइजिंग और मास्क जैसी अनेक चीजों का खासा ध्यान रखवाया जा रहा था , पुलिस – प्रशासन सभी अपनी अपनी-अपनी ड्यूटी बखूबी निभा रहे थे । भूखे प्यासे बेसहारा मजदूर पीड़ित निर्धन वर्ग को खाने के लाले पड़े थे सरकारी भोजनालयों , दान दाताओं व सरकारी अनाज आदि बंट रहे राहत कोषों में लोगों की लाइन सुबह से शाम तक नजर आ रही थी । जिससे देश भुखमरी की चरम सीमा पर खड़ा हुआ नजर आ रहा था , परंतु अब अचानक सरकार ने रवैया बदला और सोशल डिस्टेंसिंग , सैनिटाइजिंग , क्वॉरेंटाइन जैसे तमाम जरूरी निर्देशों को दरकिनार कर लग रहा है यह सब लोगों का सिर्फ ज्ञान वर्धन करने के लिए थी। शायद अब वह इन शब्दों का अर्थ बदल चुका है या ये शब्द पुराने हो गए हैं इसलिए इन सभी निर्देशों को दरकिनार कर शराब के ठेके खुलवाना जरूरी समझ रही है । जहां कल तक लग रहा था कि लोगों की जेब खाली पढ़ चुकी हैं वहीं आज वह व्यक्ति 70% का अतिरिक्त कोरोना शुल्क लगने के बावजूद भी शराब खरीदने की भीड़ में सबसे आगे नजर आ रहा है । समझ नहीं आता इंसान गरीबी में है या गरीबी में इंसान ! जहां प्रशासन के तमाम लोगों द्वारा विभिन्न माध्यमों से कोरोना पर नियंत्रण पाने के लिए बढ़-चढ़कर अपनी अपनी-अपनी भागीदारी निभाई जा रही थी वहीं अब संभावना है कि कोरोना का प्रकोप आने वाले कल बुलेट ट्रेन की रफ्तार पकड़ने को आतुर होगा। वही पारिवारिक हिंसा घर करेंगी। लूट , हत्या , बलात्कार के साथ-साथ महिलाओं व बच्चों का सभी शराबी जीना दूभर करेंगे । बड़ी-बड़ी बातें करने वाले हम सभी लोग शायद नहीं समझ पा रहे हैं कि जब एक पुरुष शराब पीकर शाम को घर में वापस लौटता है तो बीवी – बच्चों संग मारपीट , गाली गलौज के साथ ही चूल्हा – चौका भी तितर-बितर करेगा उन महिलाओं व बच्चों का जिम्मेदार कौन है? जो सुबह से आस लगाए बैठे हों कि शाम को दो वक्त की रोटी खाकर भूख मिटायेंगे …… होता यही है इन बातों को गहराई से सोचता कौन है । कभी इसे करीब से महसूस करके देखिए कि उस महिला पर क्या बीतती होगी जो ऐसे शराबियों का शिकार बनती है। बेवजह मारपीट, गालियों व हत्या आदि की शिकार बनती है। और इसका बच्चों पर भी क्या असर पड़ेगा। जिनको हम कल आने वाली पीढ़ी के मेहराब व राष्ट्र के पिलर बताकर उपदेश देते थकते नहीं हैं । क्या हमारे पास अर्थव्यवस्था बढ़ाने के अन्य उपाय नहीं हैं ? या यूं कहें कि क्या हमारे अर्थशास्त्र में तमाम बड़े बड़े-बड़े अर्थशास्त्रियों ने केवल शराब ही उपचार लिखा है ? जरा सोचना चाहिए…… माध्यम अनेक हो सकते हैं । कुछ उदाहरण के तौर पर सोशल फंडिंग हो सकती है , बड़े-बड़े फिल्मी सितारे , उद्योगपति , दानदाता , समाजसेवी संस्थाएं पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी के आदर्श कि एक समय का खाना बंद करके व सप्ताह में एक दिन उपवास रखकर , हर खाली पड़ी जमीन पर कुछ न कुछ खाद्यान्नों को उगाकर जो जल्दी तैयार हो बंजर पड़े गांवों को फिर से आबाद करना आदि बढ़-चढ़कर आगे आ सकते हैं । सरकारी नौकरशाहों के वेतन से कटौती की जा सकती है। इसके लिए सभी लोग खुशी-खुशी आगे आ सकते हैं । साथ ही जहां हम एक तरफ स्वच्छ भारत के नाम पर गांधीजी के सिद्धांतों पर चल रहे हैं तो क्यों ना उन्हीं के दिए गए सिद्धांत मधनिषेध को भी अपनाते चलें जिसका संविधान निर्माताओं ने भी हमारे नीति – निदेशक तत्वों में जिक्र किया है । जहां करीब दो-तीन माह से लोग बिना शराब , गुटखा , बीड़ी-सिगरेट के खुश रह सकते हैं और जिंदा भी ! तो ताउम्र भी वे खुश और जिंदा रह सकते हैं । बिहार जैसे गरीब कहे जाने वाले राज्य से हम सभी को सबक लेना चाहिए । कानून बनाकर उसी की तरह सख्ती लानी चाहिए । यदि मधनिषेध होगा तो करीब 50 से 60% लोग स्वयं ही गरीबी से बाहर निकल जाएंगे। स्वच्छता जो हमारा ध्येय बना हुआ है उसके लिए भी हम सड़क मोहल्ले, गली, दिवार में गुटखा आदि थूकना , कूड़ा- करकट फेंकना , अभद्रता आदि पर आसानी से लगाम लगा सकते हैं यह अभी हमारे पास बहुत अच्छा मौका है और सही समय भी ।
साभार – सम्भावना पन्त
पिथौरागढ़ ( उत्तराखंड) जी की वाल से
https://jansamvadonline.com/in-context/benefits-of-drinking-alcohol-by-civil-society/