किसी भी महकमे का मुखिया महीने-दो महीने में कैसे बदला जाता है, परिवहन निगम यानी रोडवेज इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। करोड़ों के घाटे में चल रहे रोडवेज को शायद सरकार ही पटरी पर नहीं आने देना चाहती। स्थिति यह है कि महीने-दो महीने में मुखिया यानी प्रबंध निदेशक को बदला जा रहा। रोडवेज की स्थिति संभलना तो दूर की बात बल्कि इस कारण और बिगड़ती जा रही। बीते पौने तीन साल में आठ बार प्रबंध निदेशक बदल दिए गए। चिंताजनक तो यह है कि इनमें से सात प्रबंध निदेशक को महज एक साल के भीतर बदला गया। एक अधिकारी जब तक महकमे की कार्यप्रणाली समझे, उससे पहले ही उसकी कुर्सी छीन जा रही। मौजूदा दिनों में रोडवेज का संचालन सरकार के लिए बड़ी चुनौती बना हुआ है, लिहाजा नए मुखिया के लिए यहां की जिम्मेदारी किसी जोखिम से कम नहीं होगी। वहीं, कर्मचारी संगठन भी बार-बार प्रबंध निदेशक बदले जाने पर सवाल उठा हैं उत्तराखंड परिवहन निगम के अन्य कार्यालय तो अपने भवनों में चल रहे हैं,बजट की उपलब्धता होने पर ही यहां निर्माण शुरू हो पाएगा।

देश भर में भले चीन निर्मित उत्पादों का बहिष्कार सरकार व निजी स्तर पर हो रहा हो लेकिन उत्तराखंड में हालात अलग हैं। उत्तराखंड परिवहन निगम ने 1300 ई-टिकटिंग मशीनें मंगाई हैं, जिन्हें अलग-अलग डिपो में बांटा जा रहा है। कुमाऊं मंडल के खाते में 655 मशीनें आई हैं। जबकि इससे पहले हैदराबाद में निर्मित मशीन का उपयोग किया जा रहा था। लंबे समय से सभी डिपो मशीनों की मांग कर रहे थे। लेकिन रोडवेज प्रबंधन ने जो ई-टिकट मशीन परिचालकों को थमाई है, वह मेड इन चाइना है। यह मशीन के बाहर ही साफ-साफ लिखा है। जबकि इससे पहले मेड इन इंडिया मशीनें ही परिचालकों को दी गई थीं। ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि स्वदेशी उत्पाद व तकनीक को बढ़ावा देने के दौर में परिवहन निगम ने मेड इन चाइना की मशीनें 450 रुपये रोजाना के हिसाब से किराए पर क्यों ली होंगी। दावा इन मशीनों के और ज्यादा अपडेट होनेे का है। लेकिन कई परिचालकों का कहना है कि इनकी बैट्री जल्द डिस्चार्ज हो रही है।

परिवहन निगम में मैन्युअल हाथ से टिकट काटने का दौर करीब 10 साल पहले खत्म हो गया था। इसके बाद मशीन से टिकट काटा जाने लगा, मगर सालों पुरानी मशीनें होने के कारण अक्सर इनमें तकनीकी दिक्कत आ जाती थीं। जिसके बाद इन्हें मरम्मत के लिए देहरादून मुख्यालय भेजना पड़ता था। दूसरी तरफ इमरजेंसी में मैन्युअल टिकट काटने पर संचालन प्रभावित हो जाता। इस वजह से डिपो अफसरों से लेकर कर्मचारी तक नई ई-टिकट मशीनें खरीदने की मांग कर रहे थे। निगम प्रबंधन ने नई मशीनें खरीदने के बजाय इन्हें किराये पर ले लिया, मगर यह सभी मेड इन चाइना माडल है। जबकि इससे पहले भारतीय मशीनें थी, जो हैदराबाद में निर्मित थीं। 

एक मशीन का किराया 450 रुपये महीना है। तीन साल में 16200 का बिल बनेगा। ऐसे में 1300 मशीनों का अनुबंध सीमा में कुल किराया दो करोड़ 10 लाख 60 हजार रुपये बनता है। वहीं निगम अफसर खुद मानते हैं कि मेड इन चाइना मार्का की इस एक मशीन की कीमत अधिकतम 18 हजार रुपये होगी। यानी तीन साल में जितना एक मशीन का किराया बना। उसमें 1800 रुपये और जोडऩे में मशीन ही आ जाएगी। जिन पुरानी मशीनों को रोडवेज ने हटा दिया है। उनका 10 साल तक इस्तेमाल किया गया था। खरीद के वक्त उनकी कीमत करीब आठ हजार थी। परिवहन निगम के महाप्रबंधक का कहना है कि एंडरायड मशीनें भारत में नहीं बनतीं। एम स्वाइड नाम की कंपनी एंडरायड मशीनें उपलब्ध कराती है। जयपुर की एक कंपनी से तीन साल का अनुबंध कर यह मशीनें मंगाई गई हैं। पुरानी मशीनों के मुकाबले तकनीकी तौर पर यह काफी अपडेट है। टच स्क्रीन मशीन में कार्ड स्वैप करने के अलावा स्कैनर के माध्यम से भी टिकट भुगतान करने का विकल्प होगा। इन मशीनों को किराए पर लेने से रोडवेज को नुकसान नहीं होगा। क्योंकि, खराब होने पर उस अवधि का किराया भी नहीं जोड़ा जाएगा। तीन साल तक ठीक कराने की जिम्मेदारी भी अनुबंधित कंपनी पर होगी। सुखद संदेश नहीं है। 

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला (दून विश्वविद्यालय)  

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