वैसे तो आज देश अँग्रेजों से आज़ाद है फिर भी साम्राज्यवाद से आज़ादी की अब भी दरकार है, पूँजीवाद का फ़ासीवादी तंत्र पूरी तरह अवाम पर हावी है, दलितों, किसानों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर पूंजीवादियों की पिट्ठू बनी सरकार बेबुनियाद आरोप लगाकर उत्पीड़न कर रही है, जमीनें हड़पने की साजिशें रच रही हैं, विरोध करने पर वर्दीधारियों के माध्यम से उत्पीड़न करने की सारी सीमाएं लाँघ रही हैं, सोशियल मीडिया पर पूँजीवादियों के पेड दलाल व सत्ताधारी दल का आईटी सेल निरंतर प्रोपेगेंडा रचकर बदनाम कर ट्रोल कर रहा है, देश की अवाम के सामने आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, दलितों मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को देश के दुश्मन के रूप में प्रचारित कर रहा है!
पेशावर कांड के नायक चन्द्रसिंह गढ़वाली
3 अप्रैल, चन्द्रसिंह का जन्म ग्राम रौणसेरा, (जिला पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड) में 25 दिसम्बर, 1891 को हुआ था। वह बचपन से ही बहुत हृष्ट-पुष्ट था। ऐसे लोगों को वहाँ ‘भड़’ कहा जाता है। 14 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह हो गया। उन दिनों प्रथम विश्वयुद्ध प्रारम्भ हो जाने के कारण सेना में भर्ती चल रही थी। चन्द्रसिंह गढ़वाली की इच्छा भी सेना में जाने की थी; पर घर वाले इसके लिए तैयार नहीं थे। अतः चन्द्रसिंह घर से भागकर लैंसडाउन छावनी पहुँचे और सेना में भर्ती हो गये। उस समय वे केवल 15 वर्ष के थे। इसके बाद राइफलमैन चन्द्रसिंह ने फ्रान्स, मैसोपोटामिया, उत्तर पश्चिमी सीमाप्रान्त, खैबर तथा अन्य अनेक स्थानों पर युद्ध में भाग लिया। अब उन्हें पदोन्नत कर हवलदार बना दिया गया2। छुट्टियों में घर आने पर उन्हें भारत में हो रहे स्वतन्त्रता आन्दोलन की जानकारी मिली। उनका सम्पर्क आर्यसमाज से भी हुआ। 1920 में कांग्रेस के जगाधरी (पंजाब) में हुए सम्मेलन में भी वे गये; पर फिर उन्हें युद्ध के मोर्चे पर भेज दिया गया। युद्ध के बाद वे फिर घर आ गये। उन्हीं दिनों रानीखेत (उत्तराखंड) में हुए कांग्रेस के एक कार्यक्रम में गांधी जी भी आये थे। वहाँ चन्द्रसिंह अपनी फौजी टोपी पहनकर आगे जाकर बैठ गये। गांधी जी ने यह देखकर कहा कि मैं इस फौजी टोपी से नहीं डरता। चन्द्रसिंह ने कहा यदि आप अपने हाथ से मुझे टोपी दें, तो मैं इसे बदल भी सकता हूँ। इस पर गांधी जी ने उसे खादी की टोपी दी। तब से चन्द्रसिंह का जीवन आमूल चूल बदल गया। 1930 में गढ़वाल राइफल्स को पेशावर भेजा गया। वहाँ नमक कानून के विरोध में आन्दोलन चल रहा था। चन्द्रसिंह ने अपने साथियों के साथ यह निश्चय किया कि वे निहत्थे सत्याग्रहियों को हटाने में तो सहयोग करेंगे; पर गोली नहीं चलायेंगे। सबने उसके नेतृत्व में काम करने का निश्चय किया। 23 अप्रैल, 1930 को सत्याग्रह के समय पेशावर में बड़ी संख्या में लोग जमा थे। तिरंगा झंडा फहरा रहा था। बड़े-बड़े कड़ाहों में लोग नमक बना रहे थे। एक अंग्रेज अधिकारी ने अपनी मोटरसाइकिल उस भीड़ में घुसा दी। इससे अनेक सत्याग्रही और दर्शक घायल हो गये। सब ओर उत्तेजना फैल गयी। लोगों ने गुस्से में आकर मोटरसाइकिल में आग लगा दी। गुस्से में पुलिस कप्तान ने आदेश दिया – “गढ़वाली थ्री राउंड फायर” पर उधर से हवलदार मेजर चन्द्रसिंह गढ़वाली की आवाज आयी – “गढ़वाली सीज फायर” सिपाहियों ने अपनी राइफलें नीचे रख दीं। पुलिस कप्तान बौखला गया; पर अब कुछ नहीं हो सकता था।चन्द्रसिंह ने कप्तान को कहा कि आप चाहे हमें गोली मार दें; पर हम अपने निहत्थे देशवासियों पर गोली नहीं चलायेंगे। कुछ अंग्रेज पुलिसकर्मियों तथा अन्य पल्टनों ने गोली चलायी, जिससे अनेक सत्याग्रही तथा सामान्य नागरिक मारे गये। तुरन्त ही गढ़वाली पल्टन को बैरक में भेजकर उनसे हथियार ले लिये गये। चन्द्रसिंह को गिरफ्तार कर 11 वर्ष के लिए जेल में ठूँस दिया गया। उनकी सारी सम्पत्ति भी जब्त कर ली गयी। जेल से छूटकर वे फिर स्वतन्त्रता आन्दोलन में सक्रिय हो गये। स्वतन्त्रता के बाद उन्होंने राजनीति से दूर रहकर अपने क्षेत्र में ही समाजसेवा करना पसन्द किया। एक अक्तूबर, 1979 को पेशावर कांड के इस महान सेनानी की मृत्यु हुई। शासन ने 1994 में उन पर डाक टिकट जारी किया।
गोदी मीडिया नफ़रत के आग भड़काने में पहली पंक्ति में खड़ा है, इस प्रकार का अन्धकार व दमन उस दौर में होता तो पेशावर काँड का कोई नायक बनता क्या? सोचिये कितनी नैतिकता रही होगी तबके वर्दीधारियों में जो उन्होंने मानवता के लिए अपने उच्चाधिकारियों के आदेश तक को नकार दिया!आज के दौर में सुरक्षाकर्मियों में वो नैतिकता दिखती है क्या जो आज ही के दिन 23 अप्रैल, 1930 को #वीर_चन्द्रसिंह_गढ़वाली के नेतृत्व में #रॉयल_गढवाल_राइफल्स के जवानों ने #पेशावर में निहत्थे पठान सत्याग्रहियों पर गोली चलाने के आदेश को ठुकरा कर दी थी? इसी नैतिकता व वीरता ने वीर चंद्र सिंह गढ़वाली को पेशावर काँड का नायक बनाया! कॉमरेड चंद्र सिंह गढ़वाली व उनकी पूरी बटालियन के साहस, वीरता व नैतिकता को याद करते हुए व याद दिलाते हुए लाल सलाम !
साभार – भार्गव चन्दोला, देहरादून
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