डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड बर्फीली चोटियों, बुग्यालों व प्रसिद्ध ट्रैकिंग स्थलों से घिरा हुआ है। राज्य में आरोहण की अनुमति के लिए खुली कुल 85 नामचीन पर्वत श्रृंखलाओं में दो दजर्न से अधिक चोटियां उत्तरकाशी की गंगोत्री घाटी में स्थित हैं। 5 हजार से लेकर साढ़े सात हजार मीटर ऊंची इन चोटियों पर आरोहण का न केवल भारतीय बल्कि विदेशी भी सपना संजोए रहते हैं। पिछले कुछ वर्षो में इन चोटियों पर विभिन्न कारणों के चलते अभियान दलों की संख्या में गिरावट देखी गई। किन्तु इस बार लेह में आपदा के कहर के चलते वहां से पर्वतारोहियों का मोहभंग हुआ है। गंगोत्री घाटी में जमकर हुई बर्फबारी के बाद यहां पर्वतारोहियों की रिकार्ड भीड़ जुटी है।

भारतीय पर्वतारोहण संस्थान के अधीन इन चोटियों पर आरोहण को इस बार 18 विदेशी व 20 भारतीय दल पहुंचे हैं। विदेशी दलों में ब्रिटेन, जर्मनी, आस्ट्रिया, फ्रांस, स्विटजरलैंड, स्लोविनिया, रूस, इटली, बांग्लादेश, कजाकिस्तान आदि देशों के दल शामिल हैं।  केंद्र सरकार की संस्तुति के बाद शासन ने 40 चोटियों पर पर्वतारोहण और ट्रेकिंग गतिविधियां संचालित करने की अनुमति दे दी है। शासन की ओर से इस संबंध में गाइडलाइन भी जारी की गई है। इस आशय के आदेश अपर सचिव की ओर से जारी किए गए हैं। प्रदेश में वन विभाग और उत्तराखंड पर्यटन विकास बोर्ड के सहयोग से पर्वतारोहण और ट्रेकिंग चोटियों के संबंध में आवश्यक जानकारी एकत्र की गई थी। दोनों विभागों के संयुक्त अध्ययन के बाद राज्य में 51 चोटियों के सापेक्ष 40 (30 को पर्वतारोहण व 10 को ट्रेकिंग के लिए) चोटियों को उपयुक्त पाया गया। इस आधार पर अपर प्रमुख वन संरक्षक, वन्यजीव व सदस्य-सचिव पर्वतारोहण समिति, उत्तराखंड की ओर से इन चोटियों को खोले जाने की शासन से अनुमति मांगी गई थी। जिस पर सोमवार को शासन ने सशर्त अनुमति प्रदान कर दी। 

पर्वतारोहण गाइडलाइन 2004 के अनुसार, किसी भी पर्वत चोटी पर प्रत्येक माह में दो पर्वतारोही टीमों और एक कैलेंडर वर्ष में कुल 12 टीमों को ही आरोहण की अनुमति दी जाएगी। एक टीम में 10 सदस्य ही अनुमन्य है, जो अतिरिक्त शुल्क के साथ अधिकतम 12 तक हो सकते हैं ।मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक, उत्तराखंड एवं संबंधित प्रभागीय वनाधिकारियों की ओर से पर्वतारोहण के लिए पर्वतारोहियों को अनुमति एवं गाइडलाइन की आवश्यक शर्तों का पालन कराया जाएगा भारतीय पर्वतारोहण संस्थान, नई दिल्ली की ओर पर्वतारोहण अभियानों के लिए अधिरोपित शर्तों के साथ-साथ अन्य सुसंगत वन, वन्यजीव, जैव-विविधता, नियमों, अधिनियमों का अनुपालन सुनिश्चित किया जाएगा।

पर्वतारोहण के लिए टीम के सभी पर्वतारोहियों के आईडी कार्ड, टीम का निर्धारित कार्यक्रम, रूट मैप और निर्धारित शुल्क प्राप्त करने के बाद ही सक्षम अधिकारी की ओर से अनुमति जारी की जाएगी। पर्वतारोहियों की ओर से पर्वत चोटी पर निर्धारित बेस कैंपों में ही अस्थायी तंबू लगाए जाएंगे।पर्वतारोहियों की ओर से साथ ले जाई जा रही अजैविक सामग्री के लिए विदेशी टीम से 10 हजार एवं भारतीय टीम से पांच हजार की बंधक धनराशि जमा कराई जाएगी। जो उन्हें वापसी पर चेक-पोस्ट पर अजैविक सामग्री दिखाने पर वापस कर दी जाएगी। उत्तराखंड में अधिकांश साहसिक पर्यटक स्थल और ट्रैक वन क्षेत्र में होने के बावजूद वन विभाग की जिम्मेदारी शून्य है। यहां तक कि वन विभाग पर्वतारोहण की अनुमति तो देता है, लेकिन ट्रैकिग दलों के जाने-आने की सूचना प्रशासन और पुलिस तक नहीं पहुंचती। मौसम विभाग के रेड अलर्ट को देखते हुए प्रशासन ने वन विभाग से पर्यटक दलों के बारे में सूचना मांगी थी। लेकिन, हर्षिल से छितकुल गए दल की सूचना वन विभाग की ओर से समय पर नहीं दी गई। जब दल फंसा और हलचल मची तब वन विभाग की नींद खुली कि एक पर्यटक दल को उन्होंने 12 अक्टूबर को अनुमति दी है।

इस तरह की घटनाएं कई बार हो चुकी हैं। बीते सितंबर माह में त्रिशूल चोटी पर आरोहण के लिए नौसेना का दल गया था। इस दल की जानकारी चमोली डीएफओ और वहां के प्रशासन को नहीं थी। पिछले कुछ सालों में पर्यावरणीय मानदंडों और सामाजिक जवाबदेही के प्रावधानों के बढ़ते उल्लंघन, विस्तृत वैज्ञानिक योजना और प्रभाव मूल्यांकन अध्ययनों के अभाव और निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में कम होते लोकतांत्रिक जन-भागीदारी ने इस स्थिति को और गंभीर कर दिया है। इसलिए केंद्र द्वारा पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (ईआईए) अधिसूचना के तहत कंपनियों और परियोजना डेवलपर्स के लिए पर्यावरण मंजूरी की प्रक्रिया में अधिक छूट का नया प्रस्ताव और घातक है।

आज हिमालय में जलवायु परिवर्तन संबंधित आपदाओं, वनों के दोहन, विलुप्त होती जैव विविधता, भूस्‍खलन, नदियों के सूखने, ख़त्‍म होते भूजल स्रोतों, ग्लेशियरों के पिघलने, पहाड़ों के खोखले किये जाने व  ठोस और संकटमय कचरे से संबंधित प्रदूषण जैसी समस्याएं आम हैं और यहाँ कि पर्यावरणीय स्थिति अत्यंत संवेदनशील है। पहले से ही हिमालय  क्षेत्र  पारिस्थितकीय और भौगोलिक रूप से अत्यंत नाजुक होने के लिए जाना जाता है, जहां प्रकृति से छोटी सी छेड़छाड़ भी व्यापक असर डालती है जिसका लाखों-करोड़ों लोगों के जीवन पर तीव्र प्रभाव पड़ता है। पर्यावरणीय नियम कानून के क्रियान्वयन में ढिलाई और उदासीनता के चलते आज यह  पारिस्थितिक संकट और भी विकट हो गया है ।

पिछले कुछ सालों में पर्यावरणीय मानदंडों और सामाजिक जवाबदेही के प्रावधानों के बढ़ते उल्लंघन, विस्तृत वैज्ञानिक योजना और प्रभाव मूल्यांकन अध्ययनों के आभाव और निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में कम होते लोकतांत्रिक जन-भागीदारी ने इस स्थिति को और गंभीर कर दिया है।इस सन्दर्भ में केंद्र सरकार द्वारा पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (ईआईए) अधिसूचना के तहत कंपनियों और परियोजना डेवलपर्स के लिए पर्यावरण मंज़ूरी की प्रक्रिया में और अधिक छूट का नया प्रस्ताव और भी घातक है। गौरतलब है कि 1986 पर्यावरण संरक्षण अधिनियम के तहत बनायी गई ई.आई.ए कानूनी प्रक्रिया के अंतर्गत किसी भी प्रस्तावित परियोजना या विकास कार्य के संभावित पर्यावरण व सामाजिक-आर्थिक प्रभाव का मूल्यांकन करना अनिवार्य है। इस कानून के तहत परियोजना को मंज़ूरी लेने की निर्णय-प्रक्रिया में प्रभावित समुदायों के साथ जन परामर्श व तकनीकी और वैज्ञानिक विशेषज्ञों द्वारा समीक्षा भी शामिल है ताकि परियोजना की कीमत उससे होने वाले लाभ से ज्यादा न हो।

हालाँकि, पिछले दो दशकों में, व्यापार के लिए इन नियमों को लगातार ढीला कर इस अधिसूचना में संशोधन किया गया। अब यह नया मसौदा, ई.आई.ए प्रक्रिया को एक औपचारिकता मात्र बनाकर कमज़ोर छोड़ देने की दिशा में ही एक और कदम है। जबकि हिमालयी पारिस्थितिक की सुरक्षा और संरक्षण के लिए आवश्यक है कि सरकार और कड़े व मजबूत पर्यावरणीय कानून बनाए न कि इनको खत्म करे।जबकि जलवायु परिवर्तन कार्य योजना के तहत खुद भारत सरकार ने, लगभग 10 साल पहले, हिमालयी पारिस्थितिक तंत्र को टिकाऊ बनाए रखने के लिए एक अलग राष्ट्रीय मिशन की स्थापना की थी. यह स्पष्ट दर्शाता है कि इस क्षेत्र की जैव विविधता, भूविज्ञान और सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने को संरक्षित करना कितना आवश्यक व महत्वपूर्ण है।

पश्चिमी से पूर्वी हिमालय तक हिमालयी क्षेत्र भारत के 12 राज्यों में विस्तार है जिसमें निवासित लगभग 8 करोड़ की आबादी पूरी तरह से किसानी और वन आधारित आजीविकाओं पर निर्भर हैं।लेकिन पिछले तीन दशकों में, सरकारों ने उन नीतियों और परियोजनाओं को आगे बढ़ाया है, जिन्होंने आज बनी गंभीर व प्रलयंकारी पारिस्थितिक संकट में योगदान दिया । बांधों और जल विद्युत् परियोजनाओं, राजमार्गों के अनियंत्रित निर्माण और बढ़ते व्यावसायिक पर्यटन व औद्योगिकीकरण के कारण उलटे सीधे कंक्रीट के ढाँचे अब हिमालयी राज्यों में चारों ओर उभर चुके हैं और इनके कारण होने वाले नकारात्मक प्रभाव और विनाश के चलते स्थानीय समुदायों और पर्यावरणविदों द्वारा प्रतिरोध भी किया गया है। यदि आंकडें देखें तो 115000 मेगावाट बिजली की क्षमता विकसित करने के लिए भारत के पूरे हिमालयी क्षेत्र में अंधाधुंध जलविद्युत विकास को बढ़ावा दिया जा रहा है। यदि सभी प्रस्तावित 292 बड़े बांधों का निर्माण होता है, तो बांधों की वर्तमान वैश्विक संख्या के आधार पर, इस क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर बांधों का सबसे अधिक घनत्व होगा।

भारतीय हिमालय की लगभग 90% घाटियाँ, बांध निर्माण से प्रभावित होंगी और इनमें से 27% बांध घने जंगलों को प्रभावित करेंगे। लद्दाख, कश्मीर, हिमाचल जैसे क्षेत्रों में बढ़ते व्यावसायिक पर्यटन और उत्तराखंड में तीर्थ पर्यटन का अर्थ है बुनियादी ढांचे, सड़क, होटल और रिसॉर्ट का अंधाधुंध व गैर-योजनाबद्ध निर्माण। चार धाम सड़क परियोजना इस तरह के पर्यटन से होने वाली तबाही और आपदा का एक जीवित उदहारण है। इसके साथ ही तराई हिमालयी राज्यों और निचली पहाड़ियों के औद्योगिक क्षेत्रों में प्रदूषित नदियाँ एक खतरा बन रही हैं। जलवायु संकट इस क्षेत्र के लिए पहले से ही अनिश्चित बारिश, मौसम के बदलते मिजाज, और जलवायु प्रेरित आपदाओं के साथ निवासियों के जीवन यापन के लिए खतरा है। हर साल हिमालय के राज्यों में भूस्खलन, फ्लैश बाढ़, अचानक बारिश और जंगल की आग के कारण करोड़ों रुपये के नुकसान होते हैं। मौजूदा निर्माण का स्वरुप और विस्तार तो इन आपदाओं के प्रभाव को और भयावह मोड़ देता है।

यह लेखक के निजी विचार हैं ।