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बीते 8 जुलाई तक उत्तराखण्ड के लगभग सभी जिलों में सामान्य से कम बारिश दर्ज की गई थी। लेकिन, बृहस्पतिवार और शुक्रवार की रात को ज्यादातर हिस्सों में तेज बारिश हुई और तीन जगहों पर बादल फटने की घटनाएं भी दर्ज की गई। बादल फटने की इन घटनाओं को क्लामेट चेंज का नतीजा माना जा रहा है। हालांकि वैज्ञानिक इन घटनाओं को बादल फटना मानने को तैयार नहीं हैं। उनका कहना है कि यदि संबंधित क्षेत्र में एक घंटे में 100 मिमी बारिश दर्ज की जाए तभी उसे बादल फटना माना जा सकता है, लेकिन जिन क्षेत्रों में ये घटनाएं हुई हैं, वहां बारिश मापने की कोई प्रणाली नहीं है, इस
वाडिया भूविज्ञान संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक डाॅ. डीपी डोभाल कहते हैं कि पिछले 25-30 वर्षों से बारिश की अनियमितता लगातार बढ़ रही है। साल में होने वाली बारिश का औसत सामान्य होता है, लेकिन साल के ज्यादातर दिनों में सूखे की स्थिति बनी रहती है। वे कहते हैं कि 25 वर्ष पहले तक अतिवृष्टि की वर्ष में औसतन 5 या 6 घटनाएं दर्ज की जाती थी, लेकिन अब नये अध्ययन बता रहे हैं कि अब यह संख्या एक वर्ष में 15 से 20 तक पहुंच गई है।
उत्तराखंड में बादल फटने की पहली बड़ी घटना 1952 में सामने आई थी। जब पौड़ी जिले के दूधातोली क्षेत्र में हुई अतिवृष्टि से नयार नदी में अचानक बाढ़ आ गई थी। इस घटना में सतपुली कस्बे का अस्तित्व पूरी तरह से खत्म हो गया था। वहां खड़ी कई बसें बह गई थी और कई लोगों को मौत हो गई थी। 1954 में रुद्रप्रयाग जिले के डडुवा गांव में अतिवृष्टि के बाद भूस्खलन से पूरा गांव दब गया था। 1975 के बाद से लगभग हर साल इस तरह की घटनाएं होने लगी और अब हर बरसात में 15 से 20 घटनाएं दर्ज की जा रही हैं।
उत्तराखंड वानिकी एवं औद्यानिकी विश्वविद्यालय के पर्यावरण विभाग के अध्यक्ष डाॅ. एसपी सती इंटरगवर्नमेंट पैनल फाॅर क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट का हवाला देते हैं। वे लगातार बढ़ रही अतिवृष्टि की घटनाओं को ग्लोबल वार्मिंग के कारण होने वाले क्लाइमेट चेंज का असर मानते हैं। डाॅ. सती कहते हैं कि अब एक साथ सूखा और अतिवृष्टि का सामना करना पड़ रहा है। वर्ष में ज्यादातर समय सूखे की स्थिति बनी रहती है और कुछ दिन के भीतर इतनी बारिश आ जाती है कि जनधन का भारी नुकसान उठाना पड़ता है। वे कहते हैं अतिवृष्टि से होने वाला नुकसान इस बात पर निर्भर करता है कि उस क्षेत्र में पहाड़ी ढाल की प्रवृत्ति किस तहत की आमतौर पर भंगुर और तीव्र ढाल वाले क्षेत्र में अतिवृष्टि से ज्यादा नुकसान होता है।
डाॅ. सती पर्वतीय क्षेत्रों में बड़ी संख्या में बनने वाली सड़कों को भी अतिवृष्टि से होने वाले नुकसान का कारण मानते हैं। उनका कहना है कि उत्तराखंड में पिछले 20 वर्षों में लगभग 50 हजार किमी सड़कों का निर्माण हुआ है। एक किमी सड़क निर्माण में औसतन 40 घन मीटर मलबा पैदा होता है। इस तरह इन 20 वर्षों में हम 200 करोड़ घनमीटर मलबा पैदा कर चुके हैं। इस मलबे के निस्तारण के लिए भी कोई वैज्ञानिक तरीका नहीं अपनाया जाता। मलबा पहाड़ी ढलानों में ही पड़ा रहता है और तेज बारिश होने पर निचले क्षेत्रों में नुकसान पहुंचाता है।
लेखक व पर्यावरण संबंधी मसलों के जानकार जयसिंह रावत पहाड़ों में अतिवृष्टि के लिए वनों के असमान वितरण को भी एक बड़ा कारण मानते हैं। वे कहते हैं कि उत्तराखंड के 70 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र में वन हैं, लेकिन मैदानी क्षेत्रों में वन नाममात्र के ही हैं। ऐसे स्थिति में मानसूनी हवाओं को मैदानों में बरसने के लिए अनुकूल वातावरण नहीं मिल पाता और पर्वतीय क्षेत्रों में घने वनों के ऊपर पहुंचकर मानसूनी बादल अतिवृष्टि के रूप बरस जाते हैं। वे कहते हैं कि आज जरूरत सिर्फ पर्वतीय क्षेत्रों में ही नहीं बल्कि मैदानी क्षेत्रों में भी तीव्र वनीकरण की आवश्यकता है।