देवभूमि के लिए एक और गर्व का मौका आया है। पिथौरागढ़ के छोटे से गांव बसड़ी की रहने वाली बसंती देवी का जिक्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यक्रम मन की बात में किया है। बता दें पीएम मोदी ने पद्मश्री से सम्मानित की जाने वाली उत्तराखंड की बसंती देवी की सराहना की। रविवार को मन की बात में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि पद्म पुरस्कार पाने वाले कई लोग ऐसे हैं जिनके बारे में हम नहीं जानते हैं।
पिथौरागढ़ की बसंती देवी के संघर्ष की कहानी भी कुछ ऐसी है। 14 वर्ष की उम्र में पति को खोने के बाद, ससुराल द्वारा ठोकर मारे जाने के बाद भी जल जंगल और जमीन को बचाने का संघर्ष जारी रखा। समाजसेवा और कोसी नदी को पुनर्जदीवित करने में उनके उल्लेखनीय कार्यों के लिए उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया है।पिथौरागढ़ जिले के बस्स्ड़ी सिंगाली निवासी बसंती देवी का विवाह छोटी उम्र में हो गया था। महज 12 साल की उम्र में वह विधवा हो गईं। इसके बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। पति की मृत्यु के बाद वह सरला बहन के लक्षी आश्रम में चली गईं और किशोरावस्था कौसानी के उसी लक्षी आश्रम में बिताई। वहां से उन्होंने इंटर तक की पढ़ाई की। वर्ष 2003 में एक लेख पढ़ा, जिसमें वनों की कटाई से नदियों पर होने वाले प्रभाव के बारे में बताया गया था और जंगलों की कटाई से कोसी के 10 साल में मर जाने का जिक्र था। इस लेख को पढ़ने के बाद बसंती कोसी को बचाने में जुट गईं। उनकी ओर से किए गए सामूहिक प्रयास से कोसी को संरक्षित करने में बहुत हद तक सफलता मिली। उन्होंने महिलाओं को अपने जंगल के संरक्षण के लिए समुदाय आधारित संगठन बनाने के लिए राजी किया। उन्होंने वन अधिकारियों के साथ समझौता किया, जिसके बाद न तो वन विभाग और न ग्रामीणों ने लकड़ी काटी। वन विभाग की सूखी लकड़ी पर ग्रामीणों के अधिकार को मान्यता मिली।
11 जनवरी 2016 में केंद्रीय मंत्री सुषमा स्वराज के हाथों देवी पुरस्कार प्राप्त करने के बाद मार्च 2016 में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा राष्ट्रपति भवन में बसंती देवी को नारी शक्ति पुरस्कार से सम्मानित किया। 2017 में उन्हें पर्यावरण के लिए फेमिना वूमन जूरी अवार्ड प्राप्त हुआ। किसी ने सही कहा, मेहनत इतनी खामोशी से करो कि सफलता खुद शोर मचा दे।
राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया। साधारण सूती साड़ी और चप्पल पहनें बसंती देवी जब पद्मश्री ग्रहण कर रही थी तो उत्तराखंडियत की सादगी और सरलता उसे झलक रही थी। बसंती देवी को समाजसेवा में उल्लेखनीय कार्यों के लिए पद्म पुरस्कार से नवाजा गया है। लेकिन बसंती देवी के संघर्ष की कठोर दांस्ता रही है। डीडीहाट तहसील की रहने वाली 64 वर्षीय बसंती देवी आधुनिकता की चकाचौंध भरी जिंदगी से कोसों दूर हैं। वह आज भी साधारण सा की-पैड वाला मोबाइल फोन चलाती हैं। उसे भी वह ठीक से इस्तेमाल करना नहीं जानती हैं।
बसंती देवी का पूरा जीवन संघर्षमय रहा है। 14 वर्ष की उम्र में ही उनके पति के निधन के बाद ससुराल द्वारा ताने, प्रताड़ना मिलने लगे, जिसके बाद वह पिता का साथ वापस मायके आ ग़ईं और पढ़ाई में जुट गईं। इंटर पास करने के बाद बसंती गांधीवादी समाजसेविका राधा के संपर्क में आईं और उनसे प्रभावित होकर कौसानी के लक्ष्मी आश्रम में ही आकर बस गईं। आश्रम में रहकर ही उन्होंने नदी बचाने के लिए प्रयास किया और पर्यावरण संरक्षण के लिए असाधारण योगदान दिया। महिला सशक्तीकरण के क्षेत्र में भी उन्होंने काफी काम किया है। बसंती देवी को लोग बसंती बहन के नाम से ही जानते हैं। समाजसेवा की शुरुआत उन्होंने अल्मोड़ा जिले के धौलादेवी ब्लॉक मे बालबाड़ी कार्यक्रमों के माध्यम से की। यहां उन्होंने महिलाओं के संगठन भी बनाए। 2003 में लक्ष्मी आश्रम की संचालिका राधा बहन ने उन्हें अपने पास बुलाया और कोसी घाटी के गांवों में महिलाओं को संगठित करने की सलाह दी। बसंती बहन के प्रयासों से कौसानी से लेकर लोद तक पूरी घाटी के 200 गांवों में महिलाओं के सशक्त समूह बने हैं। महिलाओं और पंचायतों के सशक्तिकरण के लिए उन्होंने 2008 में काम शुरू किया। गांवों में महिला प्रतिनिधियों के साथ निरंतर संपर्क रखकर उन्हें आत्मनिर्भर बनाया। वर्तमान में 242 महिला प्रतिनिधि सशक्तीकरण अभियान से जुड़ी हैं। हिमालय ट्रस्ट के संचालक लक्षी आश्रम से जुड़े वरिष्ठ समाजसेवी सदन मिश्रा ने कहा कि कोसी बचाओ अभियान सहित महिलाओं और पंचायतों के सशक्तीकरण को बसंती बहन ने अभूतपूर्व काम किए हैं। बसंती देवी पर्यावरण संरक्षण, देश की संस्कृति और लोगों के जीवन में सुधार के लिए अपना जीवन लगा देने वाली बसंती देवी को हाल ही में पद्म पुरस्कार 2022 से सम्मानित किया गया। पर्यावरण को बचाने के लिए उनका प्रयास अतुलनीय है। बसंती देवी ने पर्यावरण और कोसी नदी को बचाने से लेकर समाज की कई कुरीतियों को दूर करने के लिए महिला समूहों का आह्वान किया था। उत्तराखंड में महिला समूहों के माध्यम से उन्होंने जंगल को बचाने की मुहिम शुरु की। वहीं घरेलू हिंसा और महिलाओं पर होने वाले प्रताड़नाओं को रोकने के लिए भी जनजागरण किए। बसंती देवी के प्रयास से पंचायतों के सशक्तिकरण में महिलाओं की भूमिका बढ़ी। कौसानी स्थित लक्ष्मी आश्रम की बसंती देवी को समाज सेवा के क्षेत्र में पद्मश्री सम्मान मिलने से उत्तराखंड का मान बढ़ा है। वाकई में बसंती देवी जैसी महिलाएं हमारे समाज के लिए प्रेरणा की स्रोत हैं।
ये लेखक के निजी विचार हैं
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं।
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