देहरादून, 7 जनवरी : आरएसएस से जुड़े प्रमुख चेहरे और अयोध्या राम जन्मभूमि के साधु-संतों ने कांग्रेस सांसद राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की न केवल प्रशंसा की है, बल्कि प्रभु रामलला के आशीर्वाद की शुभकामनाएं भी दी हैं। संघ-संतों की इस जमात में सबसे प्रमुख हैं-चंपत राय। वह श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र न्यास के महासचिव हैं। यूं कहें कि अयोध्या में निर्माणाधीन प्रभु राम के भव्य मंदिर के बुनियादी कर्ताधर्ताओं में एक हैं। चंपत राय आरएसएस से जुड़े रहे हैं। उनकी टिप्पणी गौरतलब है कि इतनी सर्दी में 50 साल का एक नौजवान पैदल चल रहा है, यह वाकई प्रशंसनीय है।
राहुल गांधी यात्रा कर देश को समझना चाहते हैं, इसमें कुछ भी गलत नहीं है। ठंड के मौसम में 3000 किलोमीटर चलना बड़ी बात है। उनकी यात्रा की न तो संघ ने और न ही प्रधानमंत्री ने आलोचना की है। राम मंदिर के मुख्य पुजारी महंत सत्येन्द्र दास के अलावा महंत दिव्य कला, महंत जनमेजय शरण, महंत करुणानिधान, महंत मैथिली रमण आदि ने भी श्रीराम के आधार पर राहुल गांधी को आशीर्वाद दिए हैं और उनके स्वास्थ्य, दीर्घायु की मंगलकामना भी की है। ये सभी आध्यात्मिक चेहरे अयोध्या के राम मंदिर से जुड़े हैं। न जाने किस संदर्भ में उन्होंने कांग्रेस नेता को आशीर्वाद और प्रशंसा की शुभकामनाएं दी हैं! ये शब्द और आशीष एकदम राजनीतिक भी नहीं हो सकते, क्योंकि संघ ऐसी राजनीतिक टिप्पणियों से दूर ही रहा है और साधु-संतों का सियासत से क्या सरोकार हो सकता है?
यह जरूर कहा और माना जा सकता है कि ऐसे हिन्दूवादी और राममय चेहरे कोई ओछी टिप्पणी भी नहीं करते। इन आशीर्वचनों में लक्षणा-व्यंजना अथवा किसी प्रकार के तंज को तलाशना भी गलत होगा। ये आशीर्वाद निश्छल और स्वाभाविक हैं, आत्मा की गहराइयों से दिए गए हैं। ऐसी मंगलकामनाओं से राहुल गांधी ‘रामभक्त’ हो जाएंगे या उनकी नफरती भाषा, ज़हरीली सोच बदल जाएगी अथवा राजनीतिक समीकरणों में एक और पार्टी ‘राममय’ हो जाएगी, हम इतनी जल्दी ऐसे निष्कर्ष पर पहुंचने वाले नहीं हैं। अलबत्ता यह एक बेहद सकारात्मक और सुकूनदेय प्रतिक्रिया है, जो प्रथमद्रष्ट्या साबित करती है कि संघ को नफरत और तोडऩे, विभाजित करने वाला संगठन करार देना और बार-बार उस पर लांछन लगाने की राजनीति भी दुराग्रही है।
राहुल गांधी भी कमोबेश इसी राजनीतिक सोच के शिकार रहे हैं। संघ नेता और साधु-संतों का आशीष भरा व्यवहार राहुल को सोचने पर बाध्य कर सकता है। सवाल यह भी उभरा है कि संघ और संतों का कुछ हृदय-परिवर्तन हुआ है अथवा ये आशीर्वाद और प्रशंसाएं भी किसी राजनीतिक रणनीति का हिस्सा हैं? राहुल गांधी की यात्रा अभी उप्र को पार कर हरियाणा में प्रवेश कर चुकी है। उप्र के दौरान यात्रा अयोध्या के करीब भी नहीं आई। बागपत, शामली, कैराना आदि के जाटबहुल, मुस्लिमवादी और दलितवादी इलाकों से यात्रा गुजऱ कर गई है। उप्र प्रवास के दौरान अयोध्या राम मंदिर का कोई मुद्दा भी नहीं उभरा था। फिर भी संघ और संतों ने यात्रा की प्रशंसा की है।
महंत सत्येन्द्र दास ने तो राहुल गांधी को पत्र तक लिखा है। राहुल देश को टूटा हुआ मानकर उसे जोडऩे के प्रयास में निकले हैं, जबकि संघ ‘अखंड भारत’ की बात करता रहा है और हम भी इसी सोच के पक्षधर हैं कि भारत एक विविध और संगठित राष्ट्र है। दरअसल यह यात्रा कांग्रेस के भीतर राहुल गांधी को व्यस्त रखने की जन-संपर्क कवायद है, ताकि देश में उनकी छवि एक परिपक्व नेता की बनाई जा सके। सवालिया तो यह भी है कि उप्र में यात्रा के दौरान मायावती, अखिलेश यादव और ओमप्रकाश राजभर सरीखे प्रमुख विपक्षी नेता शामिल क्यों नहीं हुए? दूर से शुभकामनाएं भेजना तो कोरी औपचारिकता है, लेकिन बुनियादी सवाल राहुल और कांग्रेस के नेतृत्व की स्वीकार्यता का है।
यात्रा को लेकर खुद कांग्रेस और उसके प्रवक्ता ही भ्रम में हैं कि यह राजनीतिक है अथवा सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ जन-आंदोलन है ? यदि राहुल गांधी के अभी तक के संबोधनों और जवाबों को देखें, तो उनके तमाम बिम्ब राजनीतिक रहे हैं। बहरहाल संघ के प्रचारक और अयोध्या के साधु-संतों का राहुल गांधी के प्रति व्यवहार बिल्कुल पारदर्शी, निष्कलंक, निष्कलुष है, जिसकी विभिन्न व्याख्याएं करने की जरूरत नहीं है। आशा की जानी चाहिए कि इस यात्रा में राहुल देश को पूरी तरह समझ पाएंगे, साथ ही आरएसएस के लक्ष्यों को लेकर भी उनके संदेह दूर होंगे। अगर राहुल और संघ एक-दूसरे को समझ पाए, तो इसके दूरगामी परिणाम होंगे।
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