नई दिल्ली: निर्भया कांड की बदौलत ही क्यों न सही, आज गुलाम और आजाद हिंदुस्तान में फांसी के इतिहास की किताबों के पीले पड़ चुके पन्नों को पलटकर पढ़ने का दिन है, क्योंकि आजाद भारत के करीब 72-73 साल पुराने इतिहास के पन्ने इस बात के गवाह हैं कि दिसंबर, 2012 में जमाने को झकझोर देने वाली हिंदुस्तान की राजधानी में घटी निर्भया हत्याकांड की घटना कोई आम घटना नहीं थी. अब मंगलवार 7 जनवरी, 2020 को जब दिल्ली की अदालत ने निर्भया के चारों हत्यारों की फांसी का वारंट जारी कर दिया. फांसी पर लटकाने की तारीख 22 जनवरी, 2020 और वक्त सुबह 7 बजे मुकर्रर कर दिया. जगह तय की गई है दिल्ली की तिहाड़ जेल नंबर-3 में मौजूद फांसीघर.
ऐसे वक्त में जेहन में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या आजाद भारत में अब से पहले भी कहीं कभी, किन्हीं चार मुजरिमों को एक साथ फांसी पर लटकाए जाने के हुक्म की मुनादी हुई थी? जवाब मिलता है नहीं.
पूर्व आईपीएस (1998 बैच) अधिकारी और यूपी पुलिस के रिटायर्ड महानिरीक्षक (इंटेलिजेंस) आरके चतुर्वेदी (रामकिशन चतुर्वेदी) ने मंगलवार को फोन पर आईएएनएस से विशेष बातचीत में कहा, “मैंने तो साठ-पैंसठ साल की उम्र में और इस उम्र में से भी करीब 35-36 साल की पुलिस और जेल की नौकरी में कभी ऐसा नहीं सुना, जब आजाद भारत में एक साथ चार मुजरिमों को फांसी पर लटकाया गया हो. निर्भया कांड के मुजरिम अगर एक साथ फांसी के तख्ते पर लटकाए जाते हैं, तो देश में फांसी का इतिहास बदल जाएगा. कानून की किताबों में यह सजा एक नजीर के बतौर मौजूद रहेगी.”
आरके चतुर्वेदी सन 1984 से 1987 के बीच की अवधि में इलाहबाद स्थित नैनी सेंट्रल जेल में एडिश्नल जेल सुप्रिंटेंडेंट के पद पर तैनात रहे. सन 2018 में यूपी पुलिस में आईजी-इंटेलिजेंस के पद से रिटायर चतुर्वेदी ने आगे कहा, “कहने को मैंने नैनी जेल में दो-दो मुजरिमों को फांसी पर चढ़ते हुए अपनी आंखों से देखा है. सन 1980 के दशक के मध्य में कभी नहीं सोचा था कि किन्हीं 4-4 मुजरिमों को भी एक जेल में एक साथ फांसी के फंदे पर झुलाने का हुक्म भी जारी हो सकेगा.”
वर्तमान में उत्तर प्रदेश राज्य पुलिस भर्ती बोर्ड के सदस्य व पूर्व आईपीएस चतुर्वेदी और तिहाड़ जेल के पूर्व कानूनी सलाहकार (हाल ही में तिहाड़ जेल की नौकरी के अपने निजी अनुभवों पर आधारित किताब ‘ब्लैक-वारंट’ के लेखक) सुनील गुप्ता के भारत की जेलों में फांसी को लेकर कमोबेश अधिकांश विचार समान ही हैं.
आईपीएस चतुर्वेदी जेल की नौकरी के दौरान, भारतीय सेना के भगोड़े जवान से बाद में भगोड़ा डाकू बने 35 साल के बैंक डकैत और हत्यारे विक्रम सिंह और पांच लोगों की हत्या के जिम्मेदार 45 साल के एक शिक्षक से मुजरिम करार दिए गए कैदी को फांसी दिए जाने के गवाह बने थे. उन दोनों को इलाहाबाद नैनी जेल में फांसी पर चतुर्वेदी की मौजूदगी में ही लटकाया गया था, जबकि सुनील गुप्ता ने तिहाड़ जेल की नौकरी में सतवंत-केहर सिंह (प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हत्यारे), संसद हमले के आरोपी अफजल गुरु, कश्मीरी आतंकवादी मकबूल बट्ट इत्यादि को खुद की मौजूदगी में फांसी पर लटकवाया था.
इन दोनों ही अधिकारियों ने जब हिंदुस्तान में फांसी के इतिहास पर नजर डाली, तो ये दोनों पूर्व जेल अधिकारी बीते करीब सात दशक पीछे तक जा पहुंचे. आईएएनएस से बात करते हुए चतुर्वेदी और गुप्ता ने कहा, “अब से करीब 89 साल पहले जब देश अंग्रेजों की बेड़ियों से आजाद होने के लिए जूझ रहा था, तब ऐसा कभी कुछ हुआ हो, तो वह शायद किसी को याद भी नहीं होगा.”
गुप्ता और चतुर्वेदी के मुताबिक, “अब 7 जनवरी 2020 को जिन चारों मुजरिमों को एक साथ फांसी के फंदे पर अदालत ने लटकाने का हुक्म दिया है, वे क्रूर हत्यारे बलात्कारी हैं. उनकी यही सजा जायज है. हां, यह भी अपने आप में आजाद हिंदुस्तान में दी गई अब तक की फांसी के इतिहास में, एक ऐसा पन्ना जुड़ा है, जिसके ऊपर किन्हीं चार मुजरिमों को एक साथ फांसी के फंदे पर लटकाए जाने की रूह कंपा देने वाली डरावनी कहानी लिखी जा रही है.