छोरे बड़े छित्ते होते हैं, ये डॉयलोग अक्सर आपने भी सुना होगा ? छित्ते का मतलब छिद्दर और छिद्दर का मतलब शरारती और शरारती का मतलब उत्पाती और उत्पाती का मतलब कई बार नुकसानी भी होता है ?
जैसे कि ,शिवरात्रि और जन्माष्टमी या होली में दुकानदारों की खाली पेटियां जलाना ? रामलीला या कृष्णलीला के मौसम में लोगों के आम, अमरुद, गन्ने ,अनार,चकोतरे के पेड़ों की रांडी-मूंडी करना ? कोई मोटर साइकिल  
सवार गाड़ी में चाबी लगी छोड़कर चला गया तो उसे निकालकर किसी बंद नाली के अंदर फेंक देना ? गाड़ी के टायरों की हवा निकाल देना ? साईलेंसर में आलू घुसा/ फिट कर देना, पेट्रोल की टंकी में रेत डाल देना,
इसके आगे , कुत्ते की पूंछ में खाली कनस्तर या टिन बाँध देना, किसी की कमीज पर पीछे से पेन की स्याही छिड़क देना, ककड़ीवाले की ककड़ी उठाकर भाग जाना, रात में बारात में बैंडवालों को चूरन के नोट थमा देना, किसी होटल में भीड़ देखकर चाय पीकर चुपके से खिसक जाना या किसी सांस्कृतिक –कार्यक्रम के बीच में पटाखा फोड़कर भाग जाना , किसी सोए आदमी की चारपाई के पाए में कुत्ते बाँध देना और फिर पटाखा फोड़कर भाग जाना ?
शरारतें यहाँ भी ख़तम नहीं होती थी —– रात में सोए हुए आदमी की मच्छरदानी के ऊपर बर्फ का टुकड़ा रख देना, सड़क पर धार मारकर अजगर बनाना आदि ? इन नीचकर्मो को उटबद्र की संज्ञा दी गई है ?
अभी अतीत के किसी कल में ——कल सुबह डिस्ट्रिक –रेली या जिला खेलकूद प्रतियोगिता का उद्घाटन है, प्रताप कालेज का मैदान खेल का मैदान है ? आज की शाम ,कल के लिए फ़ाइनल  रिहर्शल  है —-पर रात में  विभिन्न  ब्लोकों / स्कूलों के तंबुओं पर लगे सब झंडे गायब ?
उधर 200 मीटर की दौड़ के लिए प्रतियोगियों को ट्रैक पर खड़े होने    के लिए अंतिम पुकार की घोषणा हो रही है और तभी कोई आकर कहता है, पहले स्वीपर बुलाना पड़ेगा सर ट्रैक पर गंदगी पड़ी है ? ये कारनामे किसी के घरवाले सिखाते नहीं थे पर छोकरों के अपने दिमाग की उपज होते थे ?
ऐसे ही हमारी अपनी भदेश भाषा की अलग टर्मनलौजी अर्थात शब्द संसार भी होता था जैसे – मक्खी अर्थात अपरिचित, अवांछित या संदिग्ध व्यक्ति —- “ अबे मक्खी आ रही है बंद कर ”, इतना लंबा वाक्य न कहकर खाली “ मक्खी ” का सावधानी सूचक शब्द कह दिया जाता था ? कभी –कभी गंदी – मक्खी शब्द का भी प्रयोग किया जाता था ( जैसे कि अंग्रेजी में ood,Better,Best प्रयोग किए जाते हैं ?

मक्खी फुर्र होने दे का मतलब, अबे इसे जाने दे यार  . कई बार वो बंदा या दोस्त समझ जाता था तो स्वयं ही कह देता था, “ अच्छा बेटा, मेरी मक्खी फुर्र करने के   चक्कर में हो ”?
लुक्कर — यह शब्द हमनें पंजाबी बोली से अपनाया था . जिसका शाब्दिक अर्थ दुश्मन होता था . ऐसे ही एक  बहुअर्थी  अशिष्ट शब्द “ पथेरी ” भी था ? जिसका मतलब  कभी माशूका होता था तो कभी कोई भी लकड़ी ?
ऐसे ही एक शब्द — “ औखई ” भी था , जिसका एक मतलब खामखा तो दूसरा मतलब किसी की क्लास लेना या खिंचाई करना होता था, जैसे कि —— “ लुक्कर की औखई ठिंग ”?
ऐसे ही किसी के सर पर पीछे से, चुपके से चपत मारना “ टिक्की ठिंगना ” कहा जाता था .किसी फंक्शन या रामलीला आदि में दोस्तों और अपरिचितों को ऐसे ही टिक्की / चपत मारी जाती थी और कई बार इसी स्टाईल से बाल भी खींचे जाते थे ?
   पुलिसवालों को उत्तर भारत के अन्य शहरों  की भांति हम भी ठुल्ला ही कहते थे ? ऐसे ही  1,2,5,10 के सिक्कों को डॉलर कहते थे ,जैसे कि — एक का डॉलर या दस का डॉलर आदि ? 
                                          
    ऐसे ही हमारी कुछ लोकोक्तियाँ , परम्पराएँ और रिवाज भी थे . जैसे कि, किसी मित्र को उसके बाप के नाम से बुलाने का रिवाज था –अबे ओ फलाने के या XYZ की औलाद ?
हमारा उस पीढ़ी का सबसे बड़ा जोक यह था कि, “ माननीय राजमाताजी को टेहरी के लड़के बड़े पसंद हैं और अच्छे लगते हैं ” जबकि हकीकत में  इसके उल्टा था ?
हमारी कड़की भी हमारे लिए एक किसम की नोटबंदी ही थी, एक सिगरेट पर कई भाई लोग दम मार लेते थे और मांगने की स्टायल भी ऐसी थी कि, ——– “ अबे, सिगरेट सुलगाने को दी थी या पीने को ”? इसे हमारी भाषा में “ मांग के खाना और मरोड़ कर रहना ? ”, नाम दिया गया है .
तितलियों को चिठ्ठियाँ लिखने का चलन था और छोटे- छोटे लड़के डिलीवरी बॉय का काम करते थे, उनकी फीस 2-4 चाकलेट होती थी. जबाब के लिए समय की पाबंदी नहीं थी पर जबाब का बेसब्री से इंतजार रहता था ? कई तितलियाँ भवरों को उनके घर में शिकायत करने का दम भी देती थी ?
जब बेचारी  कोई लड़की किसी छोकरे  को गुस्से में ये कहती कि, घर में माँ –बहन नहीं हैं क्या ? तो मायूस मन में ग्लानी के साथ –साथ ये नकारात्मक सवाल भी उठता कि, यदि दुनियां की सारी लड़कियां बहनें हो जाएँगी तो फिर मोहोब्बत, इश्क और आशिकी का क्या होगा ? लैला –मजनू ,हीर –राँझा के किस्से और उमर खय्याम की रुबाइयाँ को पढने से अच्छा तो झक मारना था ?

मकरैण,वसंत पंचमी, होली, दिवाली किसी-किसी के लिए ये भी थोड़ा –थोड़ा लगभग वेलेंटाईन –डे जैसे ही होते थे ? पहले जानबूझ कर धक्का मारना और फिर किसी ने कहा कि, अँधा है क्या ?  तो फिर सॉरी कहना ,वो भी चिढाने के बेशरम अंदाज में ? एक तो चोरी ,ऊपर से सीनाजोरी ?
       उस ज़माने में ,हमारे कई साथी शिव मंदिर की सीढियाँ  चढ़ते थे, लेकिन भगवान के दर्शन उनमें से कोई एकआध ही करता था, वो  भी पुजारी को देखने के बहाने  वरना सब बाहर ही बाहर से परिक्रमा करते थे ,नहीं तो  फिर पुजारी की इंतजार में बैठे रहते थे ?

ये अलग बात है कि, अब वो 50 के आसपास की गोरियां और छोरियां ,भाई साहब कहती हैं ?

100 मीटर की हमारी सबसे तगड़ी रेस वो होती थी ,जो ककड़ी टपाने     
के बाद लगाई जाती थी ?
घर में , पैन्ट की जेब से बरामद तमाखू का चूरा और माचिस की तीली                का मुंड, बच्चे के बिगड़ने की गवाही देते थे कि — मम्मी देख तेरा मुंडा बिगड़ा जाय  ?
माथे पर  लगा  ,फेल होने का कलंक सबसे बड़ा दुखदाई  होता था ?
मोबाईल जैसा खिलौना और फेसबुक जैसा मुंगेरी लाल का  हसीन सपना नहीं था हमारे पास ?
हमारे ज़माने में ,बस्ते का बोझ कम होता था और माँ –बाप को होमवर्क कराने का टेंशन नहीं होता था ? स्कूल में मुर्गा बनना सबसे अपमानजनक सजा होती थी ?
कंचे, गिल्ली-डंडा,भांचोपाला, तोमड़ी-फट्टा, पंच –पथरी, गेंदताड़ी, रबर या लोहे के टायर चलाना, सिगरेट की डब्बी के ताश खेलना आदि हमारे बी –ग्रेड के खेल होते थे .  
             
तो ऐसे दुष्ट थे हम उस टिहरी की पुरानी पीढ़ी के नौजवान ? बेटों हम शर्मिंदा हैं , पुराने पापी जिंदा हैं ?