उत्तराखंड आंदोलन में स्वर्गीय इंद्रमणि बडोनी के बाद दूसरा बड़ा व सर्वमान्य चेहरा रहे श्री रणजीत सिंह वर्मा का आज सुबह जौलीग्रांट अस्पताल में निधन हो गया है। उनकी पार्थिव देह को उनके निवास स्थान पर पहुंचा दिया गया है। कल सुबह 10:00 बजे लक्खीबाग श्मशान घाट पर अंतिम संस्कार होगा ।
वर्मा जी के निधन की सूचना भाई जयदीप सकलानी के मोबाइल पर उस समय आई, जब हम मसूरी गोली कांड की 25वीं बरसी मनाने के लिए मसूरी स्थित शहीद स्थल पर इकट्ठा थे। जब हम लोग जनगीत गाते हुए शहीद स्थल पहुंचे, तो सांसद अजय भट्ट और मसूरी विधायक गणेश जोशी सहित बीजेपी और कांग्रेस के कई नेता वहां मौजूद थे। भाषणबाजी चल रही थी और नाच गाने का कार्यक्रम भी तय था। शहीदों के नाम पर इस तरह की अशोभनीय हरकतों का हमें विरोध करना था, और हमने किया।
वर्मा जी के निधन का समाचार मिला तो भाई जयदीप सकलानी ने माइक से यह सूचना दी। इसके तुरंत बाद गणेश जोशी बोलने के लिए आये। लेकिन, विधायक साहब के मुंह से यूपी के जमाने में इसी मसूरी क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर चुके अपने पूर्ववर्ती विधायक के सम्मान में एक शब्द तक नहीं निकला।
*अंतिम_यात्रा*
वरिष्ठ राज्य आंदोलनकारी रहे पूर्व विधायक एवं गन्ना परिषद के अध्यक्ष व स्वतंत्रता संग्राम सेनानि परिवार के संरक्षक , उत्तराखण्ड आन्दोलन में संयुक्त संघर्ष समिति के अध्यक्ष स्वर्गीय रणजीत सिंह वर्मा ज़ी के अंतिम संस्कार हेतु यात्रा मंगलवार समय प्रातः 10-15 बजे उनके आवास राजेन्द नगर लेन 1-से कोलागढ रोड़, किशन नगर चौक से होते हुऐ बिंदास पुल , तिलक मार्ग, झंडा चौक होकर सहारनपुर चौक होते हुए लक्खीबाग पहुंचेगी
इसके बाद सांसद अजय भट्ट जी बोले, पर उत्तराखंड के नाम पर राजसत्ता भोग रहे सांसद महोदय ने भी शायद रणजीत सिंह वर्मा का नाम कभी सुना नहीं था। शहीद स्थल पर नाच गाने और कुर्सियां हथियाने के इनके लालच की हमने जिस तरह धज्जियां उड़ाई थी, उससे शायद उन्हें मिर्ची जरूर लगी। इसीलिए तो उन्होंने हमारे विरोध को यह कहकर खारिज किया कि जिन्हें शहीद होना था, वे हो गए अब तो यह अवसर मेलों का है।
श्रीमान अजय भट्ट जी! आपको इतना जरूर बताना चाहूंगा कि शहीदों की चिताओं पर जो मेले लगते हैं, वे ऐसे नहीं होते जैसे आप सजा के बैठे हैं। वे दूसरी तरह के मेले होते हैं और साहब वर्मा जी के निधन की सूचना मिलने के बाद आप एक शब्द उनके सम्मान में कह देते तो वह सम्मान वर्मा जी का नहीं, आपका खुद का होता।
वर्मा जी ने उत्तराखंड आंदोलन पूरी संजीदगी के साथ लड़ा। संयुक्त संघर्ष समिति के अध्यक्ष रहे। लेकिन, राज्य मिलने के बाद उन्होंने तय किया कि अब राजनीति नहीं करेंगे। शायद उन्हें पता था कि आने वाला दौर राजनीतिज्ञों का नहीं लंपटों का है।