राज्य की नई सरकार के सामने जहां विकास योजनाओं को परवान चढ़ाने का दबाव रहेगा, वहीं बड़ी चुनौती नौकरशाही को साधने की भी रहेगी। इसका मुख्य कारण चुनाव के दौरान अधिकारियों की कार्यशैली को लेकर उठे सवाल हैं। नई सरकार को अपनी प्राथमिकताओं को धरातल पर उतारने के लिए नौकरशाही की जरूरत पड़ेगी। यह नई सरकार पर निर्भर करेगा कि वह नौकरशाही का उपयोग किस तरह से सरकार और राज्यहित में करेगी।राज्य गठन के बाद शायद ही कोई सरकार रही, जिसे नौकरशाही से न जूझना पड़ा हो। सत्ता में चाहे कांग्रेस रही हो या भाजपा, अधिकारियों की कार्यशैली को लेकर समय-समय पर विधायक और मंत्री सार्वजनिक मंचों पर अपनी व्यथा उठाते नजर आए। निर्वतमान भाजपा सरकार की बात करें तो शुरुआती दौर में तत्कालीन मुख्यमंत्री ने भी इस बात को खुले मंच पर कहा कि जनप्रतिनिधियों का दर्जा अधिकारियों से ऊपर है। निवर्तमान सरकार में जब मंत्रियों और विधायकों की नाराजगी बढने लगी, तब मुख्य सचिव की ओर से सभी अपर मुख्य सचिवों, प्रमुख सचिवों, सचिवों, मंडलायुक्तों, पुलिस महानिदेशक, जिलाधिकारियों और सभी विभागाध्यक्षों को विस्तृत दिशा-निर्देश जारी किए गए। इसमें सभी सरकारी सेवकों के लिए सांसद व विधानसभा सदस्यों के प्रति शिष्टाचार निभाना अनिवार्य किया गया। इसके बाद भी इसका पूरा अनुपालन नहीं हुआ। मंत्रियों की बैठक में अधिकारियों की अनुपस्थिति बरकरार रही। र्वतमान मुख्यमंत्री के कार्यकाल में भी यह सिलसिला जारी रहा। हालांकि, उनके अल्पसमय को देखते हुए इन मामलों में टिप्पणी करने के स्थान पर अधिकारियों के दायित्वों में परिवर्तन करना ज्यादा उचित समझा। इसका असर चुनाव में तब नजर आया, जब कुछ अधिकारियों पर सत्ताधारी दल के खिलाफ और विपक्ष के लिए काम करने के आरोप लगे। बहरहाल, अब नई सरकार सत्ता संभालने वाली है, तो निश्चित रूप से वह अपनी प्राथमिकताओं को धरातल पर उतारने की कसरत में जुटेगी। इन कार्यों को धरातल पर उतारने में नौकरशाही महत्वपूर्ण कड़ी है। ऐसे में इस पर नियंत्रण रखते हुए विकास कार्यों को आगे बढ़ाना नई सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती रहेगी।

राज्य की अर्थव्यवस्था संतोषजनक स्थिति में नहीं है। आय के साधन न होने की वजह से राज्य पर इस वक्त 65 हजार करोड़ रुपये का कर्ज हो चुका है। हालत यह है कि कार्मिकों के वेतन के लिए अक्सर सरकार को बाजार से कर्ज लेना पड़ता है। कर्ज का ब्याज चुकाने के लिए राज्य को नया कर्ज लेना पड़ता है। आर्थिक स्थिति को पटरी पर लाने के लिए आय के नए स्रोत तलाशने होंगे। पलायन राज्य की बड़ी समस्याओं में शामिल है। रोजगार के अभाव में लोगों को शहरों और दूसरे राज्यों को पलायन करना पड़ रहा है। वर्ष 2011 तक राज्य के 968 गांव खाली हो गए थे। वर्ष 2011 के बाद इनमें 734 गांव और जुड़ चुके हैं। सीमांत क्षेत्रों के विकास के लिए ठोस योजनाएं न होने की वजह से पलायन का सिलसिला लगातार जारी है। कोरोना काल में लौटे प्रवासियों में भी ज्यादातर इसी वजह से वापस लौट चुके हैं। उत्तराखंड वर्षों से बेरोजगारी के दंश से जूझ रहा है। रोजगार दफ्तरों में इस वक्त 8 लाख से ज्यादा बेरोजगार रजिस्टरड हैं।

कोरोना काल में लौटे प्रवासियों को सरकार ने उपनल के माध्य्म से रोजगार देने के लिए रजिस्ट्रेशन खोले थे। जिसमें करीब एक लाख नाम दर्ज हो चुके हैं। पिछले पांच साल में सरकार 11 हजार के करीब ही नौकरियां दे पाई हैं। उत्तराखंड के सरकारी स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मुहैया कराना भी बडी चुनौती है। राज्य के 20 हजार से ज्यादा बेसिक, जूनियर, माध्यमिक स्कूलों में न तो पर्याप्त शिक्षक ही है और न ही पर्याप्त संसाधना। बड़ी संख्या में ऐसे स्कूल हैं जहां न बिजली की सुविधा है और पानी, टायलेट भी नहीं हैं। माध्यमिक स्तर पर ही छह हजार से ज्यादा पद रिक्त हैं। इनमें 4500 पर अतिथि शिक्षकों से काम चलाया जा रहा है। पर्वतीय क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी को दूर करना नए सीएम के लिए चुनौती होगी। इस वक्त राज्य के सरकारी अस्पतालों की स्थिति रैफरल सेंटर जैसी हो चुकी है। 515 डाक्टरों की कमी के कारण लोगों को उपचार के लिए प्राइवेट अस्पतालों की शरण लेनी पड़ती है। राज्य में 56 ऐसे अस्पताल हैं जहां अब तक जेनरेटर तक की व्यवस्था नहीं है। राज्य में परिवहन सेवाओं की हालत भी संतोषजनक नहीं है। खासकर पर्वतीय क्षेत्रों में रोडवेज की बस सेवाएं बहुत कम हैं और जो हैं भी वो धीरे धीरे बंद होती जा रही है। पिछले पांच साल में रोडवेज की 200 से ज्यादा बसें घट चुकी हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में बस सेवाएं न होने से लोगों को टैक्सी-मैक्सी कैब और प्राइवेट वाहनों पर निर्भर रहना पड़ता है।

दुनिया जहां फाइव जी इंटरनेट नेटवर्क की ओर बढ़ रही है, उत्तराखंड के कई सीमांत गांवों के लिए फोन की घंटी सुनने के लिए मीलों चलना पड़ता है। राज्य में इस वक्त 465 गांव ऐसे भी जहां संचार की कोई सुविधा ही नहीं है। वर्षों से इन गांवों से संचार सुविधा से जोड़े जाने की मांग की जा रही है, लेकिन कोई भी सरकार कामयाब नहीं रही। भ्रष्टाचार उत्तराखंड में हमेशा से एक बड़ा मुद्दा रहा है। समाज कल्याण छात्रवृत्ति, एनएच मुआवजा, भर्ती, बस खरीद, निर्माण कार्य, खनन-शराब समेत तमाम कई घोटाले हैं जो हर सरकार में आते रहे हैं। अब जबकि भ्रष्टाचार जोंक बनकर उत्तराखंड को चूस रहा है, नई सरकार को इस जोंक के खात्मे के लिए सुशासन का तीखा नमक तैयार करना होगा। राज्य के 6.46 लाख घरों में अब तक पेयजल कनेक्शन नहीं है। इसके साथ ही राज्य के 100 में से 80 शहरों में लोगों को 135 एलपीसीडी के तय मानक से काफी कम पानी मिल रहा है। गरमियों में स्रोत सूख जाने की वजह से पर्वतीय क्षेत्रों में पानी का संकट और विकराल हो जाता है। अफसरशाही को साधकर चलना भी हर सरकार के लिए चुनौती रहा है। उत्तराखंड माना जाता रहा है कि नौकरशाही कभी सरकार के नियंत्रण में नहीं रही। पिछली सरकार में तमाम मंत्री अफसरों के सामने अपनी लाचारी की पीड़ा सार्वजनिक रूप से जाहिर करते रहे हैं। अफसरों को नियंत्रित रखना और उनमें पब्लिक सर्वेट की भावना जागृत करना सीएम के लिए बड़ा टास्क रहेगा।चुनावी घोषणा पत्र पर अमल कराना भी सीएम के लिए बड़ी चुनौती होगा।

भाजपा चुनाव घोषणा पत्र में कामन सिविल कोड लागू करने का बड़ा वादा किया। इसके साथ ही बीपीएल महिलाओं को साल में तीन मुफ्त सिलेंडर, कामगारों और गरीब महिलाओं को मासिक पेंशन, किसानों को केंद्र के समान सम्मान निधि समेत कई वायदे किए हैं। राज्य की कमजोर माली हालत के बीच इन वादों को पूरा करना सरकार की नैतिक जिम्मेदारी भी है।कर्मचारियों की लंबित मांगों के रूप में नई सरकार के सामने चुनौतियां का बड़ा पहाड़ होगा। पुरानी पेंशन योजना को लेकर कर्मचारी पिछले काफी समय से आंदोलित हैं। राजस्थान और छत्तीसगढ़ पुरानी लाभकारी पेंशन योजना लागू करने की तैयारी से राज्य सरकार पर इसका दबाव होगा। इसके साथ ही स्थायी और आउटसोर्स कार्मिकों की वेतन-मानदेय विसंगतियां भी सरकार के लिए चुनौती से कमन होंगी।

आपदा प्रबंधन उत्तराखंड की बड़ी समस्याओं में से एक है। पिछले कुछ सालों में पहाड़ी जनपदों में आपदा से खासा नुकसान हुआ है, बावजूद इसके कोई ठोस आपदा प्रबंधन नीति राज्य की सरकारें नहीं बना पाई हैं। अगर कुछ हुआ है तो बस सियासता राज्य सरकार आपदा के लिहाज से संवेदनशील तीन सौ के करीब गांवों को चिह्नित करके बैठी है, मगर उनके विस्थापन के लिए अब तक कुछ नहीं हो सका। पूछने पर गेंद केंद्र के पाल में डाल दी जाती है। हर बार आपदा प्रबंधन सिर्फ सियासी मुद्दा बनकर ही रह जाता है। मगर सिंचाई के पर्याप्त इंतजामों की वजह से खेती रूठ गई है। अनाज उत्पादन लगातार घटता जा रहा है। तराई क्षेत्रों में भी गन्ने की पैदावार लगातार घटी है। बागवानी से भी राज्य को खासा फायदा होने की संभावना है, मगर उस ओर ध्यान नहीं है। पहाड़ों पर बेशकीमती जड़ी-बूटियों का दोहन जारी है, मगर उसे रोकने के भी कोई ठोस इंतजाम नहीं हैं। नई सरकार को इस बारे में भी गंभीरता से सोचना पड़ेगा। सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास भाजपा का मूलमंत्र है और नए मुखिया को इस कसौटी पर खरा उतरने की सबसे बड़ी चुनौती है. वहीं योजनाओं की गति बढ़ाने के साथ ही नई योजनाओं चयनको लेकर भी नए मुखिया को खास सतर्कता बरतनी पड़ेगी।

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला (लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरतहैं। )

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