-थे कितने सारे रास्ते- पुराना दरबार के वास्ते !

जब मालगुडी डेज, हम लोग, बुनियाद या नुक्कड़ देखता था, तो किसे पता था कि टेहरी के बारे में भी कभी कुछ ऐसा ही लिखा जायेगा ।  “ हे बिधाता मेरा पितरु की बसायीं टीरी ”या  “ मेरु मैत पाणी म समाणु छ ” आदि . हमारे लोग ही उसके पात्र / किरदार होंगे और पाठक भी ।  वो शहर ही हमारी बुनियाद था, वहीँ से शुरू हुई थी हमारी कहानी और उसके चौराहों और नुक्कड़ों पर बीती थी जिन्दगी।  जिन्दगी जो अब कई शहरों / हिस्सों में बंट गई है ।

तो फिर बात  कैलाश भाई से ही पकड़कर, शुरू करता हूँ – कैलाश भाई का घर टीरी  के एक छोटे से बरमूडा –त्रिकोण में बसा था, उनकी गली बदामु ताऊ की दुकान की बगल से होकर जाती थी ।  जिसके दूसरी और लाला चंदरसेन भाप्पा की दुकान और कुछ अन्य सामान्य दुकाने थी जिन पर पर झोले आदि लटके होते थे ।  कई लोगों को तो इस गली का पता ही नहीं था कि कहाँ जाती है और कहाँ निकलेगी ? यह गली आगे नैनसिंह  ठेकेदारजी के मकान के ठीक नीचे, लाईन मैंन भगतू के घर के आगे  मुख्य मार्ग में मिल जाती थी ,जो कि स्टेट बैंक जाने का मुख्य मार्ग होता था। शुरू में यही शहर का पहला सरकारी बैंक था।   नैन सिंह जी उस ज़माने के एक बड़े और प्रतिष्ठित ठेकेदार और साथ ही मालदार भी थे और शायद पहले बड़े ठेकेदार भी।   उनका लड़का भगतु हमारे साथ गवर्नर मास्टरजी के स्कूल में पढता था और शायद उसकी दो बहने लछमी और यशोदा भी पढ़ती थी  । उनके घर के ठीक नीचे बीच तिराहे पर एक गेहुआ / सफ़ेद पत्त्थर था ,जिस पर लोग कभी –कभी सिंदूर लगाते थे और तेल चढाते थे. उसके सामने के घर में वेणी भाई और उसके भाई ज्ञानी व हरीश रहते थे । उनके पिता संगीत के फनकार थे और लोग उन्हें शिब्बा –मास्टरजी कहते थे ।  उनकी एक दुकान भी थी, जहाँ संगीत के सुर –तालों को ठोक –बजाकर ठीक किया जाता था  ।  वेणी की बगल में ही एक बुजुर्ग महिला व उसका काला / लाटा बेटा भी रहता था। उन दोनों माँ – बेटे को न जाने कितनी संग्रान्द और मासांतों को अपने दरवाजे पर बढ़ई(नगाड़ा ) बजाते हुए और हमें जिन्दगी की दुआ देते देखा था। उस पवित्र पत्थर के थोडा ऊपर हमारे गावं के मखलोगाजी का घर था।  पत्थर से एक सड़क आजाद  मैदान की ओर जाती थी और एक गली, वेणी की दूकान के बाद, मित्र सुरेन्द्र और अशोक आनंद के घर की बगल से होकर सीधे पुराने डाकखाने के आगे निकलती थी।  इसी के आगे, हर दिन सुबह अहसान का बाप ग्राहकों को आवाज देकर रिझाता व बुलाता रहता था “ हर माल साढ़े पांच आना ” और उसके अब्बा को लोग इसी नाम से ही बुलाते भी थे ।
राजा लोग जब अपना साज –सामान लेकर नए महल में ( कौंसल दरबार ) में रहने चले गए तो फिर जो पीछे छूट गया , वो महल और दरबार पुराना हो गया और उसके साथ शेष रह गई उसकी सहेली “ कांग्चा खोली ” और  भगवती राज-राजेश्वरी का मंदिर, जो राजाओं की कुलदेवी थी ।  संरचना के आधार पर पुराना दरबार टिहरी शहर का सबसे बड़ा मोहल्ला था।  यह जमीन से ऊपर उठा हुआ एक टापूनुमा टीला और भूगोल के हिसाब से दुनिया की तरह गोळ था। हम इसकी कहानी बस अड्डे के समीप बने पावर हाउस उर्फ़ बिजली घर से शुरु करते हैं । हिंदी बोलने वालों ने भी  इसे शायद ही कभी बिजली घर बोला हो।   यहीँ से पूरे शहर को बिजली की सप्लाई होती थी और साथ ही बिजली के बिल भी वहीँ भरे जाते थे।   वहां कई बार  मोहल्ले के शंकर गैरोला के पिताजी, पुराने दरबार का भगतु लाइन मैंन और नवीन भाई भी दिख जाते थे।  नवीन भाई बड़ा कलाकार था। कभी वह साइकिल के पहिये पर  मिटटी तेल से भीगा कपड़ा बाँधकर, आग लगाकर उसे चलाता और घंटी के बदले मुंह से गाड़ी के हॉर्न की टी- टिटीट की आवाज भी निकालता था।  कई बार वह अख़बार भी बांटता और रामलीला में गाना गाता व  मिमिक्री भी करता था  । बिजलीघर के पीछे से एक सड़क डाक्टर विनोद नेगी के घर को जाती तो दूसरी पुराना दरबार को जो आगे 2 हिस्सों में बंट कर एक तरफ से प्रख्यात कामरेड, लेखक, वकील श्री विद्यासागर नौटियालजी के घर के पास से आगे और दूसरी व्यास लोगों के घर की तरफ।  ऐसे ही बस अड्डे से डाक्टर ओमी की दुकान के सामने से भी एक सड़क टूरिस्ट होटल के सामने से होकर पुराना दरबार को चली जाती थी.

अब बाजार की ओर से चलो तो साईं की दुकान और गुरुद्वारा के आगे  कोआपरेटिव बैंक के पास से भी एक पतली सड़क भी पुराना –दरबार को जाती थी, जो जसवंत भाई के घर के सामने, टूरिस्ट होटल से आ रही सड़क से जुड जाती थी।  फिर बाजार -बाजार  ही चलो तो लिपटिस के पेड़ के आगे  बाली के पिता सागर साहब की दुकान की बगल से भी एक सड़क / गलि, कुछ दायाँ –बायाँ होकर पुराना दरबार को जाती थी। यह अधिकतर लोगों को एक बंद गली लगती थी मगर इसके थोडा ही आगे यह   गली  जहां पुराना पोस्ट ऑफिस था की तरफ मुड जाती थी ।  जिसमें हमारे बचपन में चौधरी नाम का एक लोकप्रिय पोस्ट-मैन भी होता था। पोस्ट ऑफिस उर्फ़ डाकखाने में ही एक तारघर भी था और वहाँ से दोस्त या रिश्तेदार लोग  परदेश में नौकरी करने वाले बेटों को यह संदेश भेजने जाते थे कि “ फादर सीरियस कम सून ” ।  अब तो तार भी टेहरी की तरह ही विलुप्त हो गए  और वो सड़क भी जो यहाँ से पुराना दरबार जाती थी।  इसी पोस्ट ऑफिस के नीचे टेलीफोन एक्सचेंज भी था।  कालांतर में यहाँ भगवती भाई जोशी ने एक चाय की दुकान भी खोली थी, जिसके पहले उनके पिता यहाँ वैद्यकी करते थे।  यहीं पर एक छोटा सा थोड़ा ऊँचा चौक था जिसमे खड़े होकर नेता लोग अक्सर जनता को लेक्चर देते थे और जिसे जनसभा कहते थे।   वहीँ बगल में प्रसिद्ध कपडा विक्रेता कस्तूरी भाई दमीर, कस्तूरी अंडा -मुर्गी व बाद में पकोड़ी ,लाला सूरज प्रकाशजी की राशन दुकाने भी थी, लाला अमरनाथ भी था।  अमरनाथ,साबिर घड़ीसाज और मुन्ना (धुणा) के पिता मुल्लाजी, नदी पार तीतर,बटेर ,चकोर मारने या शिकार खेलने भी जाते थे, एक बार रामपुर –डोब में गलती से किसी भैंस को छर्रे लग गए थे वो फिर कभी ।

  माना कि अभी दिन में ३-४ बजे के करीब का समय है तो आपको  “हर माल साढ़े पांच आना ” की स्वर-लहरी के साथ संगम रोड की तरफ आगे बढ़ते हुए दिवंगत पुर्णु भाई की पहाड़ी दाल व सब्जी की दुकान की बगल में श्यामू भाई भी उनकी दुकान से झांकते दिख जायेंगे ।  श्यामू भाई को लोग प्यार से श्यामू पहलवान भी कहते थे पर वे कभी दंगल नहीं लड़ते थे, बस खाली एक्सरसाइज़ ही करते थे और वो भी आजाद मैदान के पार्क की पैरलल बार पर।   उनकी दुकान के आगे या नाईयों के शहंशाह, लक्खू नाई की दुकान के आगे आपको मामा शकुनी वाले चौपड की बिसात भी बिछी नजर आएगी और हमारे रैठु बुढाजी कौड़ी फेंकते हुए दिख जाएंगे।  प्यार से दोस्तों को दी गई बुढाजी की गालियाँ बड़ी मौलिक होती थी ,“ तेरी —- का तबला मारूं ” उनकी मिठाई की दुकान थी, जिसकी खासियत थी कि वहां उनके स्टाफ या दूधियों को छोडकर बाकि पब्लिक के लिए ,चाय नहीं बनती थी।  अब वहीँ से थोडा बाएं घूम जाएँ तो नाम अब संगम रोड हो जाता है। ,नुक्कड़ पर ही लामा होटल था , साधारण और सिंपल खाना।  उसके बाद मेरे काफी बाद के परम सखा अमीचंद की दुकान थी। एक झटका और बकरे की आत्मा आसमान में ।  अमीचंद के ज्येष्ठ भ्राता  लक्खी बाबू अपने सहपाठी थे।  भोले का भगत अमीचंद, लक्स की सफेदी की तरह आज भी अपनी सुस्ती के लिए भी प्रसिद्ध है। नौ दिन चले, अढ़ाई कोश  वाली कहावत उस पर एकदम फिट बैठती है ।  यहीं जादू का खेल दिखाने वाले नाथ साहब भी थे और लाखी उर्फ़ घ्यालू भाई भी अख़बार व किताब बेचता था।   थोडा आगे देबू के पिताजी की लकड़ी के सामान की दुकान थी जो बाद में उनके भाई हरी भाई ने अध्यापक होने के कारण काफी समय तक पार्ट –टाइम जॉब के रूप में बरक़रार रखी।  वहीँ पर हमारा दोस्त मुन्ना धुना भी रहता था और बाद में उसने चक्की भी खोली।  वहीँ कामरेड लाला हुकम लाल का घर फिर प्रेम की प्रेस की दुकान व एक रुई धुनने की दुकान तथा कोने में लाला नेमचंद का घर था जहां से पुराने दरबार को जाती सड़क भी थी।   नेमचंद का नाम टिहरी की लिम्काबुक आफ लाटरी में दर्ज होना चाहिए। लाटरी का दूसरा कोई इतना बड़ा धस्की टिहरी में मुश्किल ही रहा होगा ।

आगे जाकर संगम रोड, आजाद मैदान के साथ  जुड़ जाती थी  ओर  सड़क के पार कोने पर ही सुंदरु भाई की धोबी की दुकान थी। वो दोस्त बन गया तो वहां पर गप्प मारने का अड्डा भी बन गया,  लेकिन भाभी बड़ी कुढती थी ।  सुंदरु भाई का मकान मालिक राजू भाई असवाल और उसकी बगल में माननीय चिरंजीलाल असवालजी का भी घर था।  हम जब मॉडल स्कूल में थे तो असवाल जी नार्मल स्कूल के प्रिंसिपल थे। वे विद्वान आदमी लेकिन सख्त मिजाज और अनुशासन पसंद थे।  उनके घर के ऊपर ही एक अन्य घर था जहाँ 2-3 बेर के पेड़ थे और लोग बेर खरीदने वहां जाते थे।  फिर आगे गर्ल्स स्कूल था ,जिसके पहले विनोद भाई ने मिट्टीतेल की दुकान खोली और किराये पर उपन्यास देने भी शुरू किया ।

  नैपालिया गर्ल्स हाई स्कूल बहुत पुराना था  इसे टेहरीके राजा ने नेपाल से आई किसी रानी के नाम पर बनाया था व शुरू में बेटी पढाओ की सुविधा देनेवाला यह जिले का एकमात्र सरकारी स्कूल था।   उसकी बगल से सटी एक सड़क भी पुलिस वायरलेस ऑफिस होकर सीधे पुराना दरबार को जाती थी। सड़क के पार पंडित राधेश्यामजी का घर था उनका लड़का महिमा और उसके 2 -3 अन्य भाई थे। राधेश्याम जी बद्रीनाथ मंदिर के पुजारी भी थे ।  मै और जुग्गी चचा कभी –कभी मंदिर में उनके धोरे बैठा करते थे। आगे नीरू रहती थी फिर नर्मदेश्वर नाम का शिवमंदिर था ,जिसे भट्टों का महादेव भी कहते थे, उसके पुजारी पानवाले महंतजी थे।

मंदिर की बगल में एक गली थी वह भी  आगे जाकर पुराना दरबार जानेवाली रोड में मिल जाती थी । गली के पास ही गौरा रहती थी जो औपचारिक तौर पर मिट्टी ( लाल ) बेचने का काम करती थी और बाकी तो फिर गौरा, गौरजा ही थी । उसके घर के सामने संगम रोड विभक्त होती थी एक हिस्सा राम नाम सत्य है की धुन के साथ गंगातट को जाता था और दूसरा हिस्सा मुड़कर बदरीनाथ मंदिर को चला जाता था।  जिस पर थोडा मुड़ते ही काली फिर एक मंदिर था किसी देवी का उसके अहाते में कई कमरे भी थे, जहां पटवारी चौकी भी थी ।  इस मंदिर में लम्बे चोगे वाला एक काला/ गूंगा रहता था, जो माथे पर एक लंबा तिलक लगाता था और स्वामी रामतीर्थ विद्या मंदिर के बच्चो को प्रसाद भी देता था । बच्चे अक्सर उसके  पीछे से चोगा उठाकर उसे छेड़ते भी  थे।  मंदिर की बगल से भी एक रास्ता सीधे पुराना को दरबार जाता था जो अन्य 2 छोटे रास्तों को अपने में मिलाकर वकील ध्यानी जी के घर के पास निकलता था व नीचे से ही दूसरा रास्ता पुराने दरबार के पिछले हिस्से में जाता था।  मंदिर के सामने सड़क के उस पार कवि  व लोक गायक गुणानन्द पथिक जी रहते थे , उन्होंने कई गीत व किताबें लिखी।  जीवन यापन के लिए वह उन्हें बाजार में गाकर सुनाते और किताबें बेचते थे । अभावों में जी रहे ऐसे स्वाभिमानी फनकार को देखकर बड़ा अफ़सोस होता था, उनके घर से चंद क़दमों के फासले पर दक्खिन काली का मंदिर था , जहाँ नुकटी की माँ पुजा – पाठ किया करती थी।

आज की बात होती तो उसे मुस्लिम महिला की हिन्दू आस्था का नाम देकर भुनाया जा सकता था। काली मंदिर और उसकी बगल के छोटे से भैरव मंदिर के बीच से एक पतला रस्ता भी संगम को जाता था।  ये बद्रीनाथ रोड के नीचे से था।  फिर तो आगे बस केदारनाथ और बदरीनाथ मंदिर ही थे।  दोनों अगल बगल में ही थे, इनमे अनेक दुमंजले भवन थे और वहां संस्कृत महा विद्यालय उसका हास्टल व 8 वीं तक का स्कूल स्वामी रामतीर्थ विद्यामंदिर था.। जहाँ मै भी कुछ समय तक पढ़ा था । मंदिरों के प्रांगण में भी पठन –पाठन होता रहता था ,यहाँ स्थानीय भक्त लोग तो नगण्य ही आते थे पर बाहर से टेहरी घूमनेवाले सैलानी मंदिरों को देखने अवश्य आते थे । केदारनाथ मंदिर में फेणी –भगत भी रहते थे , वे भजन गायक व हारमोनियम के मास्टर थे , टेहरी की पचासों रामलीला व कृष्णलीला में उन्होंने हारमोनियम बजाया था।  बदरीनाथ मंदिर में स्वामी बलबीर शाही का डेरा भी था, वो पुराने दरबार के ठाकुर थे ओर  एक अच्छे संगीतज्ञ भी थे।  पढ़े-लिखे अंग्रेजी के अच्छे जानकार व विवाहित भी थे पर विधाता ने नसीब में फकीरी लिख दी थी ।  बदरीनाथ मंदिर परिसर में दो बड़े मंदिर व गंगा मैया का सफ़ेद संगमरमर का छोटा सा मंदिर था जिसमे गंगा माता की सफ़ेद मूर्ति  थी।  मंदिर से नीचे सीधे गंगा तक जाने के लिए तकरीबन 100 सीढियां थी वहाँ पर  नदी का बहाव बेहद  खतरनाक था ।  मंदिर के अंदर पचासों कमरे थे जिनमे पटवारी क्वार्टर्स भी मंदिर में पीछे की तरफ एक दरवाजा था जो दिनभर खुला रहता और रात में बंद कर दिया जाता था और जिसे खोलने पर बस अड्डे तक जाने का रास्ता था,जहाँ से आप फिर से बस अड्डे या पावर हाउस पहुँच जाते थे .

ऊपर पुराना दरबार और नीचे ये सब गोल चक्कर था । स्वामी रामतीर्थ विद्यामंदिर के पीछे से लेकर बस अड्डे तक बहुत झाड़ियाँ थी । यहाँ रात में बाघ का डर लगा रहता था और गौरा के घर के आगे से भूत का डर सताता था । इस तरह कभी यह पुराना –दरबार शहर का दिल होता था,  यहाँ से राजकाज चलता था।  इसके पार्श्व भाग के सामने अठूर की सैण और नीचे पतित पावनी गंगा कल –कल  बहती रहती थी ।  पुराना –दरबार के निचले हिस्सों की भले ही अलग –पहचान थी पर 1-2 हाथ ऊपर चढ़ने के बाद सब पुराना –दरबार कहलाता था। कैलाश भाई के घर के आसपास की अधिकतर आबादी पंजाबी लोगों की थी जो बिजनेस – व्यवसाय से जुड़े थे ।  ये लोग ज्यादातर बाजार के आसपास ही बसे थे ।

                                                                                                            (बाकि पुराना दरबार के अन्दर की बाद  आगे )