गढ़वाल में वह रिखोला लोदी के नाम से जाना गया। उसका पूरा नाम लोदी सिंह रिखोला नेगी था। पहले की जाति कुछ और रही होगी लेकिन गढ़वाल राजा से नेगीचारी मिलने से नेगी हुए। वह गढ़वाल रियासत के बदलपुर के बयेली / बयेला गांव में भौसिंह रिखोला नेगी के घर में जन्मा था। यहीं रिखणीखाल भी है। रिखोला का रिखणीखाल। उसके पिता भी भड़ (योद्धा) हुए। भड़ थे और थोकदार राजा मान साह ने 1605-1606 के दौरान भौ सिंह को सिरमौर के राजा को पराजित करने के लिए भेजा। क्योंकि सिरमौर की ओर से गढ़वाल रियासत के सीमा क्षेत्र जौनसार व रवांई की तरफ आक्रमण होते रहते थे।
भौ सिंह रिखोला नेगी युद्ध जीत गया। लेकिन लौटते हुए धोखे से सिरमौर के राजा ने मरवा दिया। सिरमौर से बद्रीनाथ के जिस ध्वज और कैलापीर के नगाड़े को लेकर भौ सिंह लौट रहा था, वह फ़िर से सिरमौर का राजा छीन ले गया। पूर्व में तपोवन के युद्ध में यह ध्वज और नगाड़ा सिरमौर का राजा छीन ले गया था।
रिखोला लोदी तब 16 साल का था। बाद के वर्षों में जब राजा महीपत साह ने गढ़वाल का शासन संभाला तब तक रिखोला की ख्याति काफी हो चुकी थी।
भौ सिंह ने पहले ही अपनी पत्नी से वचन ले लिया था की युद्ध में उसके मारे जाने पर भी वह सती नहीं होगी और बालक रिखोला की देखभाल करेगी।
गढ़वाली में एक पंवाड़ा लोकगीत है –
” लाड करी प्यार तू रानी रिखोला माल को
तेरो रिखोला छ रानी अबि सोला साल को ………….”
1625 – 26 के दरमियान सेनापति रिखोला लोदी ने पहले दापा घाट तिब्बत का युद्ध जीता। इस युद्ध में राजा भी साथ गया था। वे संभवत नेलंग – जादुंग होते हुए दापा गढ़ तक पहुंचे थे। इसी रास्ते दापा के सरदार टकनौर, उत्तरकाशी पर आक्रमण करते रहते थे। युद्ध गढ़वाल ने जीत लिया। भीम सिंह बर्त्वाल और उनके भाई दापा के सरदार नियुक्त हुए।
इसके बाद महीपत साह ने रिखोला को सिरमौर के राजा से बद्रीनाथ का ध्वज और कैलापीर का नगाड़ा जीतकर वापस लाने को भेजा। सेना लेकर रिखोला गया और शेरगढ़, काणीगढ़, कालसी और बैराटगढ़ से सिरमौर के राजा को खदेड़ दिया। बद्रीनाथ का ध्वज और कैलापीर का नगाड़ा भी छीन ले आया ……..
वैराटगढ की राजकुमारी मंगलाज्योति ने घोषणा की थी कि जो सिरमौर को जीतेगा उसी योद्धा से विवाह करेगी। तब रिखोला, मंगलाज्योति को ब्याह कर ले आया। उनके दो पुत्र हुए। भानू रिखोला और मोती रिखोला। इनके वंशज अब भी बदलपुर क्षेत्र के कुछ गांवों में रहते हैं।
लोक में मान्यता है कि तिब्बत युद्ध जीतने के बाद रिखोला के लौटने पर मंगसीर की दिवाली मनाई गई और उसे रिख बग्वाळ कहा गया। अर्थात रिखोला की बग्वाळ। हालांकि इसका संबंध सिरमौर के युद्ध से अधिक जान पड़ता है। क्योंकि तिब्बत के युद्ध में राजा स्वयं साथ था और वहां बर्त्वाल भाई जैसे योद्धा भी थे। जबकि सिरमौर का युद्ध मुख्य रूप से रिखोला के शौर्य से जुड़ा हुआ है।
और आज भी मंगसीर की बग्वाल जौनसार, रवाईं और कैलापीर के क्षेत्र – बुढ़केदार में ही सबसे ज्यादा उत्साह से मनाई जाती है। अर्थात जिनका मान सम्मान सिरमौर युद्ध से सीधा जुड़ा हुआ था। कैलापीर का नगाड़ा आज भी प्रसिद्ध है। और बूढ़ा केदार में मौजूद है।
रिखोला ने गढ़वाल रियासत की पश्चिम और दक्षिण की सीमाओं का निर्धारण भी किया। दिल्ली की मुगल सल्तनत के मल्लों को पराजित कर उसने “दिल्ली दर्जा” प्राप्त किया था। वह कोई भी युद्ध नहीं हारा। अपराजेय रहा।
बाद के वर्षों में रिखोला लोदी भी रियासत के एक अंदरूनी षड्यंत्र का शिकार हुआ और धोखे से मारा गया।
इतिहास के संदर्भ लिए रिखोला की कहानी लंबी है। बहुत सी किंवदंतियां भी हैं। विस्तार से फिर कभी ……..
टिहरी के प्रतापनगर और भिलंगना के कुछ गांवों में भी आज रिख बग्वाल मनाई जा रही है …….
नोट : यह लेख वरिष्ठ पत्रकार महिपाल नेगी जी द्वारा 4 दिसंबर 2021 उनकी फेसबुक से अवतरित है।