विश्वगुरु और कोरोना

जिस दिन अनलॉक-4 की शुरुआत होनी थी, ठीक उसी रविवार 30 अगस्त को धमाके के साथ कोविद-19 में भारत अंततः विश्वगुरु बन ही गया। एक ही दिन में सबसे ज्यादा कोरोना संक्रमितों की संख्या आने का रिकॉर्ड अभी तक 17 जुलाई को आये 77,636 मामलों के साथ ट्रम्प के अमरीका के नाम था – 30 अगस्त को एक साथ 78,761 मरीजों के आने के साथ इसे मोदी के भारत ने अपने नाम कर लिया। यह अंजाम नहीं आगाज है, क्योंकि दुनिया के 10 सबसे अधिक प्रभावित देशों में जाँच के मामले में ये विश्वगुरु अभी भी काफी पीछे हैं। बस सबसे नीचे वाले मैक्सिको से ऊपर हैं। दस लाख की आबादी पर सिर्फ 30 हजार की जांच हो रही है। जाहिर सी बात है कि जब जांचों की संख्या बढ़ेगी, तो विश्वगुरु के यहां बीमारी का गुरुत्व, घनत्व और आयतन भी कुदाल मारता बढ़ना तय है। एक तरह से यह अनलॉक-4 नहीं, अनलॉक-महामारी का दिन था। चिकित्सा बिरादरी के बुरे-से-बुरे अनुमान सितम्बर तक महामारी के थम जाने के थे। इस एक दिनी विस्फोट ने उन्हें भी सन्न और सुट्ट करके रख दिया।

आंकड़े भयावह हैं। जिस देश में बुखार की मामूली सी गोली पैरासिटामोल भी एक तिहाई जनता की पहुँच में न हो और अगस्त के आख़िरी रविवार को कुल संक्रमितों की तादाद 36,24,613 और मौतें 64,646 तक पहुँच चुकी हों, उस देश के प्रधानमंत्री क्या कर रहे थे? वे ठीक उसी दिन देश के नाम अपनी “मन की बात” में खिलौने बनाने का आव्हान कर रहे थे, घरों में पालतू के रूप में देसी पिल्लों को तरजीह देने के सलाह दे रहे थे। वे क्या करेंगे, यह बताने की बजाय लोगों को खुद अपना ख्याल रखने की समझदारी बता रहे थे।

कोई भी शासक, भले वह कैसा भी क्यों न हो, अपने देश की वास्तविकता और कठिनाईयों से इतना कटा हुआ, उसकी जनता के प्रति इतना संवेदनहीन और निष्ठुर कैसे हो सकता है? आखिर कोई इतना ढीठ कैसे हो सकता है? जो इतने मासूम सवाल पूछते हैं, वे असल में पूँजीवाद के सबसे हिंसक और बर्बर रूप फासिज्म के सोच और व्यवहार को नहीं जानते। बीसवीं सदी के तजुर्बे ताजे हैं कि इस तरह के रुझानों वाले हुक्मरान खुद ही कल्पनालोक में नहीं रहते – पूरी ताकत झोंक कर अपने इर्दगिर्द सिर्फ आभामण्डल ही नहीं खड़ा करते, एक तिलिस्म भी रचते हैं और बड़े धीरज के साथ समूचे देश को उसमे धकेलने की धुन बांधे रहते हैं।

इक्कीसवीं सदी तक की विज्ञान और तकनीक की उपलब्धियाँ मनुष्यता की देखरेख और हिफाजत के काम आयें, न आयें – इन शासकों की जघन्यता को महानता साबित करने के काम जरूर लाई जाती हैं। पहली शताब्दी के बदनाम लूसियस डोमिटियस नीरो के पास भक्तों का समूह और आईटी सैल होती तो असली मसीहा वे ही होते – इधर हिन्दुस्तान का 70 साल का शुरू हुआ है, उधर पूरी दुनिया का कैलेंडर उन्ही से शुरू होता।

यह अकेली आत्ममुग्धता या तूफ़ान के वक्त शुतुरमुर्ग द्वारा दिखाई जाने वाली चतुराई नहीं है। प्याज न खाने वाली वित्त मन्त्राणी सही बोली हैं ; यह सब “एक्ट ऑफ़ गॉड” है, सब ईश्वर का किया धरा है। बस उस ईश्वर या ईश्वरों का नाम बताने में वे सकुचा गयी। पूँजीवादी निज़ाम के इस ईश्वर का नाम है मुनाफ़ा। इसी मुनाफे के लिए ट्रम्प ने उन कारपोरेट्स की मानी, जिनका कहना था कि कुछ हजार लोगों की जिन्दगी से ज्यादा जरूरी है उद्योग धंधों का चलते रहना – यानि उनके मुनाफे का उपजते रहना। इसी ईश्वर के कहे अनुसार ट्रम्प महामारी का मखौल बनाते रहे। बिना किसी बचाव या रोकथाम के अमरीका चलाते रहे, दो लाख मौतें बुलाते रहे। यही काम उनके खासमखास अनुयायी जैर बोलसानारो ने ब्राजील में किया।

इन्ही के नक्शेकदम पर उनके भरोसेमन्द नमस्ते करने वाले दोस्त नरेन्द्र मोदी चले और भारत को विश्व कोरोना गुरु बनाकर ही माने। पहले ट्रम्प की अगवानी, फिर प्रदेशों सरकारों की रहजनी और बटमारी के लिए महामारी का मजाक उड़ाया – उसके बाद बिना किसी पूर्व तैयारी के लॉकडाउन थोप दिया। पहले महामारी न्यौता देकर बुलाई, फिर ऐसे हालात पैदा किये कि वह गाँव-गाँव तक पहुँच जाये।

अगर निर्मला सीतारमण के आपदा में अवसर तलाश कर दुनिया में चौथे नम्बर पर पहुंचने वाले ईश्वर प्राथमिकता में नहीं होते, तो हरेक परिवार को साढ़े सात हजार रुपए महीने की नकदी राहत, हरेक के खाने का इंतजाम, घर-घर जाँच जैसे तीन कदम उठाकर कोविद-19 को उल्टे पाँव लौटाया जा सकता था। भारत की जनता की मुश्किलें दोगुनी हैं – यहां पूंजीवादी मुनाफे के अम्बानी-अडानी जैसे देहधारी ईश्वरों के साथ-साथ भक्तों के ब्रह्मा भी हैं, जो सब कुछ के बावजूद कुछ समझने के लिए तैयार नहीं हैं।

विद्यार्थियों और उनके अभिभावकों सहित 6 प्रदेश सरकारों की आपत्ति के बावजूद जी और नीट की परीक्षाएं करवाई जायेंगी। खुद मुख्यमंत्री अपनी मौजूदगी में तीन दिन तक लगातार बारह हजार से ज्यादा की भीड़ इकट्ठा कर ग्वालियर में ग़दर करेंगे और न सिर्फ ग्वालियर बल्कि चम्बल संभाग के गाँवों तक महामारी का उफान करा जाएंगे। शहर की भूख से बचने के लिए गाँव लौटे लोगों को गाँव की भूख दोबारा से वहीँ वापस जाने को मजबूर करेगी, तो कोरोना – जैसा कि भरोसा दिलाया जा रहा है – दीवाली मनाकर भी कहीं नहीं जाने वाला।

इसके बाद भी मोदी और उनकी मंडली मगन और बेपरवाह है, तो इसलिए कि उन्हें मालूम है कि मीडिया उनके साथ है। जब भी विलाप और रुदन की आवाज तेज होगी, रेडियो और घंटे-घंटरियों-शंखों की आवाज तेज करके उसे दबा दिया जायेगा। जब भी लोग बेचैन और व्यथित होकर अपना रोष और क्षोभ अजेंडे पर लाने की कोशिश करेंगे, मीडिया की गटर अपनी दुर्गन्ध से माहौल को बजबजा देगी। उनके जीवन में मची अशांति को किसी सुशांत की जाति-जिंदगी के “सनसनीखेज रहस्यों” के शोरगुल में भटका देगी। रोजगार, कृषि और थाली की रोटी और भात की मौतों की चिंताओं को किसी सेलिब्रिटी की आत्महत्या के फंदे में लटका देगी।

पूँजीवाद इतना ही निर्मम होता है – अपनी लाभ के लिए मरे हुओं की निजता की चिन्दी-चिन्दी करने में भी शर्म नहीं करता। किन्तु सपनों के घोड़े यथार्थ की पथरीली जमीन पर नहीं दौड़ते। कल्पनालोक और तिलिस्म चिरस्थायी नहीं होते। आभास के कोहरे को वास्तविकता के कोहराम ने हमेशा चूर-चूर किया है।

अगस्त के तीसरे और चौथे सप्ताह में देश भर में हुयी प्रतिरोध की कार्यवाहियां, सितम्बर में पहले मजदूर-किसानो की साझी लामबन्दियों और उसके बाद अलग अलग मुहिमों में देश के मेहनतकशों के विश्वास को नयी ऊंचाई देंगे। मीडिया के गटर में मुंह छुपाकर तूफ़ान के टल जाने की गलतफहमी में बैठे शुतुरमुर्ग को असलियत का अहसास कराएंगे।

आलेख : बादल सरोज अभाकि सभा (संयुक्त सचिव)

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