शैलेन्द्र शैली स्मृति व्याख्यान-2021
प्रख्यात आलोचक वीरेंद्र यादव ने कहा कि आज देश के जो हालात हैं, उसमें तमाम वर्ग समाज को बचाने के लिए मोर्चे पर हैं। एक साहित्यकार और जनबुद्धिजीवी बतौर संविधान और जनतंत्र को बचाने के लिए हमें हस्तक्षेपकारी भूमिका निभानी होगी, जैसी कि प्रेमचंद ने निभायी थी। आजादी के आंदोलन के दौर में एक वक्त ‘करो या मरो’ का नारा बुलंद किया गया था, आज हमारे सामने फिर वही स्थिति है।
वरिष्ठ आलोचक जीवन सिंह ने रेखांकित किया कि साम्राज्यवादी पूंजी के हितों को साधने के लिए ही वर्तमान सरकार काम कर रही है, जिससे किसान और असंगठित मजदूर सबसे ज्यादा पीड़ित है और यही वर्ग किसी देश-समाज की संस्कृति निर्मित करते हैं। वर्ग-चेतना को मजबूत करने के मोर्चे पर काम कर के ही हम वर्तमान चुनौतियों का मुकाबला कर सकते हैं।
दलित स्त्रियों के सवालों पर सक्रिय रहने वाली वरिष्ठ लेखिका हेमलता महीश्वर ने इस बात पर जोर दिया कि देश का ‘लोक’ जिस ‘तंत्र’ को बनाता है, आज संकट में है। लोकतंत्र को ‘जतन’ से रखने की जिम्मेदारी में लेखकों को हिस्सेदारी करनी होगी।
कवि, कथाकार और पत्रकार प्रियदर्शन ने कहा कि हमारी स्मृति पर लगातार हमला किया जा रहा है। अचंभित होने की हमारी प्रकृति पर हमला किया जा रहा है। हमारे अनुभव पूर्व निर्धारित कर दिए जा रहे हैं। ऐसे में साहित्यकारों का मोर्चा क्या होगा? कविता, कहानी या उपन्यास लिखना। मगर उसके लिए कच्चा माल समाज से जीवंत संपर्क से ही मिल सकता है।
आलोचक आशुतोष कुमार ने विचार व्यक्त किया कि आज सत्ता ने दमन करने की अभूतपूर्व शक्ति अर्जित कर ली है। प्रेमचंद ने साहित्य को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल कहा था, लेकिन अब साहित्य को और आगे की भूमिका निभानी होगी। जब चारों तरफ लोहे की दीवार खड़ी कर दी जाए, तो कला-साहित्य ही विकल्प हो सकते हैं।
आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी ने स्पष्ट किया कि जब स्त्री, दलित, आदिवासी या अन्य अस्मिताओं ने साहित्य के माध्यम से अपना आक्रोश व्यक्त किया, तब प्रगतिवाद ने सुझाया कि साधन-सम्पन्न विरोधी से मुकाबले के लिए मुक्ति की तमाम धाराओं को एकजुट होना होगा। इसी एकता से साथ आज साहित्यकार मोर्चे पर डटा हुआ है।
युवा कहानीकार संदीप मील ने किसानों के मोर्चे में साहित्यकारों की प्रत्यक्ष हिस्सेदारी के अपने अनुभव साझा किए। किसान धरने पर पुस्तकालय बना कर साहित्यिक हिस्सेदारी के अलावा उन्होंने बताया कि किसान आंदोलन के प्रभाव से कैसे पंजाबी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में वर्तमान साहित्य रचा जा रहा है।
परिसंवाद का संयोजन-संचालन जनवादी लेखक संघ के मनोज कुलकर्णी ने किया।
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