लिंगुडा की सब्जी तो आपने जरूर खाई होगी। शाक प्रकृति का यह पौधा अक्सर बरसात के दिनों में बाजार में बिकने आती है। यदि मैं कहूँ कि लिंगुडा का पेड़ भी होता है तो शायद आप विश्वास नही करेंगे। जी हाँ बात सत्य है जिला चमोली के कंडारा गांव के पास काली नदी के समीप लगभग बारह से चौदह फिट ऊँचा और लगभग ढाई फिट ब्यास का लिंगुडा याने जीवाश्म फर्न का पेड़ स्थित है। आज से दो सौ मिलियन वर्ष पहले जुरासिक पीरियड में फर्न के विशालकाय पेड़ हुआ करते थे लेकिन भौमिक रिवोल्यूशन के कारण ये सब नष्ट होकर पृथ्वी में समा गए। आज ये फर्न शाक के रूप में विद्यमान हैं। पूरी दुनिया में 650 प्रजाति के फर्न आज विद्यमान हैं जिनमें से लगभग 65 प्रजाति के फर्न वृक्ष भारत में विभिन्न राज्यों में बितरित हैं। उतराखंड में सबसे ऊँचा फर्न वृक्ष एक मात्र यहीं पर है। इससे पहले भी इसी घाटी में चीड़ के पेड़ की भाँति फर्न वृक्ष् यहाँ मौजूद था तब मैं गोपेश्वर पी जी कालेज से बनस्पति विज्ञान से पोस्ट ग्रेजुेएट कर रहा था। हमारे बिभागध्यक्ष प्रो बी सी एल शाह जी ने हमें इसकी जानकारी हमें दी थी तथा वहाँ जा कर देखने का निर्देश दिया था। कुछ वर्ष पहले जब कंडारा गांव के आस पास के जंगल नीलाम हुए और बन निगम के कर्मचारियों ने यहाँ पेड़ काटने शुरू किये तो मजदूरों के अज्ञानताबस या यूँ कहिए हमारे सिस्टम की अदूरदर्शिता के कारण वह पेड़ कट गया। स्थानीय लोगों का कहना था कि जब वह पेड़ कटा तो उससे खून जैसा पदार्थ निकला। काश कि वह पेड़ आज जिंदा होता तो वह हमारे राज्य का गौरव होता। हमारे बच्चे उसे देखने आते। उनका प्रकृति के प्रति खोजी भावना और लगाव बढ़ता। दुर्भाग्य है हमारा कि हम अपने बच्चों को मौलिकता से दूर बनावटी दुनिया में धकेल रहे हैं। खैर छोड़िये। 2012 में जब मैं किसी सर्वेक्षण के काम से कंडारा आया था तो महाकाली के दर्शन हेतु गांव से डेढ़ की मी की दूरी पर काली नदी के तट पर स्थित मंदिर में दर्शन हेतु पंहुचा। बहुत ख़ूब सूरत जगह है। काली माँ के नाम पर नदी का नाम भी काली ही है। यह नदी सुनालि गांव के उपर हरे भरे बांज के जंगल से निकलती है और कई स्थानों पर खूबसूरत झरनो का निर्माण करती है। यह सदानीरा नदी है। कई स्थानो पर यह तंग घाटी में से गुजरती है इसलिए घाटी तर आर्द जलवायु का निर्माण करती है। इस नदी के आस पास ब्रायोफायट और टेरिडोफाइट्स काफी मात्रा में उपलब्ध हैं। हॉर्स टेल, सेलजीनेला आदि कई जातियाँ प्रचुर मात्रा में हैं। नदी का पानी स्वछ और मीठा है। मंदिर के पास भी एक नैसर्गिक धारा है जिसका पानी बहुत ही पाचक माना जाता है।
मंदिर से लगभग सौ मीटर नीचे नदी के बीच में एक पेड़ पर झंडा और धोतियाँ बंधी थी। उत्सुकतावस में उस स्थान तक गया। देखता हूँ कि एक फर्न के पेड़ पर स्थानीय लोगों की आस्था जुड़ी थी। इस संबंध में मैंने गांव के लोगों से बातचीत की उन्हें इस पेड़ के बारे में बताया। यह पेड़ उस समय लगभग आठ फिट ऊँचा था। बनस्पति शास्त्र का विधार्थी होने के बाबजूद मैंने पहली बार फर्न का पेड़ यथार्थ में आज ही देखा था। मुझे चिंता हुई कि यह पेड़ नदी के मध्य में स्थित है, कभी भी बरसात में पानी का तेज बहाव इसे मटियामेट कर सकता है। मैंने गांव वालों की मीटिग बुलाई और प्रधान जी और कठैत जी आदि लोगों से इस धरोहर की सुरक्षl करने की बात कही। मैंने उनसे ये भी कहा कि इस पर कपड़े आदि व तेल न लगाया जाए। ववे लोग सहमत हो गए। बाद में पता चला कि प्रधान जी ने उस फर्न ट्री के आधार पर एक सीमेंट का चबूतरा भी बना दिया था, लेकिन महिलाओं ने आस्था से समझौता नही किया।अभी हाल में जब पुनह मैं उस पेड़ को देखने गया तो वह पेड़ बाहें फैलाये मानो मेरा स्वागत कर रहा हो। अबकी बार उसे देखने के लिए मुझे आकाश की ओर सिर उठाना पड़ा, भला अब वह पेड़ बारह से चौदह फीट ऊँचा हो गया था। उसका तना भी काफी मोटा हो गया था। तने पर पुरानी पतियाँ सूख कर लटक रही थी। शीर्ष पर नई पतिया स्पोरोफिल् घुमावदार अवस्था में विद्यमान थी। निराशा तब हुई जब मैंने देखा कि उस के आधार पर बना चबूतरा आधा टूट चुका है। पेड़की एकओर की जड़ें बाहर लटक रही हैं। भूमि कटाव से जड़ों की पकड़ कमजोर होती जा रही हैं। पेड़ के समीप ही उपर से बह कर आये चीड़ के मोटे तनो का जमवाड़ा लगा हुआ है, शायद ये बरसात में बह कर आयें होंगे शुक्र है कि कोई तना इससे नहीं टकराया वरना इस फर्न ट्री का अस्तित्व ही जमींदोज हो गया होता।
Cyatheaceaceae spinulosa प्रजाति का यह जीवित जीवाश्म फर्न वृक्ष है। हमारे राज्य की प्राकृतिक धरोहर है इसे विशेष पहचान और सम्मान दिया जाना चाहिए। सर्व प्रथम तो इसकी सुरक्ष्l का प्रबंधन किया जाए। इसके पीछे की ओर सुरक्षl दीवाल बनानी आवश्यक है। इस पेड़ से छेड़ छाड़ बंद करनी होगी कही इसका हृस्व वैसे ही न हो जाय जैसे उत्तरकाशी जनपद के मोरी ब्लॉक में किरौली तप्पड़ में एशिया के माहावृक्ष् का हुआ था। पर्यटकों ने उस महावृक्ष् के तने पर खुरच खुरच कर अपने नाम गोदने शुरू कर दिये थे, बाद में संक्रमण हो जाने से हैं उस प्राकृतिक विरासत को नही बचा पाए थे। आज हम नहीं कह सकते कि हमारे पास एशिया का सबसे ऊँचा चीड़ का पेड़ है। कितनी बिडंबना है। समय रहते इस फर्न वृक्ष् को बचाने की पहल होनी चाहिए। से राज्य जीवित जीवाश्म फर्न वृक्ष् घोषित किया जाना चाहिए। यह स्थान rishikesh-badrinath हाई वे पर कर्णप्रयाग से बारह की मी पर स्थित सोनला से दस कि मी, sonala-maikura मोटर मार्ग पर स्थित है। सोनाला में इस पेड़ के सम्मान में एक गेट बनाया जाना चाहिए ताकि पर्यटकों और शोधकर्ताओं को इसकी जानकारी मिल सके। इस स्थान को पर्यटन के साथ साथ स्कूली बच्चों के शैक्षक भ्रमण से जोडा जाना चाहिए। मुझे तो लगता है कि इस भू भाग में गहन अनुसंधान करने की जरूरत है। साइलोटम जैसे प्राचीन दुर्लभ जीवित जीवाश्म यहाँ ढूंढे जा सकते है। इस बाबत पहल userc के निदेशक प्रो दुर्गेश पंत जी कर रहे हैं वे इसे स्कूली बच्चों के शैक्षक ज्ञान और अनुसंधान से जोड़ कर बिकसित करना चाहते है।
साभार – कल्याण सिंह रावत