देवभूमि उत्तराखण्ड के पग-पग पर आध्यात्मिक तीर्थ स्थलों की एवं पौराणिक महत्व के देवालयों की भरमार है। जनपद बागेश्वर के गरुड़ नामक स्थान के समीप स्थित मां कोट भ्रामरी का दरबार एक ऐसा दरबार है जहां वर्ष भर स्थानीय श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। वैसे देवभूमि की गरुड़ घाटी आध्यात्मिक रूप से पुराणों में विशेष रूप से उल्लेखित है। हमारे देश के महान ऋषि-मुनियों ने सदियों से हिमालय की गोद में बसे उत्तराखण्ड को अपनी तपस्थली के रूप में चुनकर संसार में ज्ञान का जो प्रकाश बिखेरा वह देवभूमि उत्तराखण्ड की महिमा का ही सार है। इन्हीं दिव्य   मन्दिरो में से भ्रामरी मंदिर  उत्तराखण्ड के बागेश्वर  में विराजमान हैं। भ्रामरी मंदिर में नवरात्रीयों में विशेष पूजा होती है साथ ही लोगों का मानना  है की सांसारिक मायाजाल में भटका मानव यदि इन देवालयों की शरण में आता है तो समस्त व्याधियों व संतापों से मुक्ति पा जाता है।  कहा जाता है कि माता कोटभ्रामरी के दरबार में जो भी भक्तजन आराधना के श्रद्धा पुष्प अर्पित करता है उससे रोग, शोक, संताप एवं विपदाओं का हरण हो जाता है। यहां पर मांगी गई मनौती कभी भी निष्फल नहीं जाती है। यही कारण है कि क्षेत्र के भक्तजन बड़ी श्रद्धा व आस्था के साथ मां के दरबार में आकर शीश नवाते हैं तथा इच्छा पूर्ण होने के पश्चात पुनः मंगल कामना के साथ बारम्बार यहां आने की इच्छा जताते हैं। इस देवी की पूजा मूल शक्ति पीठ के रूप में विराजमान होना बताया जाता है।

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

मां कोट भ्रामरी मंदिर श्रद्धालुओं की अटूट आस्था का केंद्र है। इसका पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व है। मां नंदा-सुनंदा के इस धार्मिक केंद्र में हर साल चैत्र अष्टमी को विशाल मेला लगता है। इस दौरान श्रद्धालुओं की तरफ से विशेष पूजा-अर्चना की जाती है। माना जाता है कि 2500 ईसा पूर्व से लेकर 700 ईसा तक कुमाऊं पर कत्यूरी राजवंश का शासन था। इसी दौरान कत्यूर घाटी में एक किला स्थापित किया गया। यहीं स्थित है मां भगवती मंदिर, जिसमें मां नंदा की मूर्ति स्थापित है। जन श्रुतियों के अनुसार कत्यूरी राजाओं और चंद वंशावलियों की कुलदेवी भ्रामरी और प्रतिस्थापित नंदा देवी की पूजा-अर्चना इस मंदिर में की जाती है।

कोट भ्रामरी मंदिर की स्थापना के सम्बंध में कहा जाता है कि कत्यूर क्षेत्र में अरुण नामक दैत्य का बेहद आतंक था। उसे वरदान था कि वह न तो किसी देवता, न ही किसी मनुष्य, न ही किसी शस्त्र से मारा जा सकता था। उसी दौरान कत्यूरी राजा आसंति देव और बासंति देव कत्यूर को राजधानी बनाने की सोच रहे थे। दैत्य से पीड़ित जनता ने तब राजाओं से अपनी व्यथा कहीं। कत्यूरी राजाओं का दैत्य से भयंकर युद्ध हो गया। लेकिन राजाओं को पराजय का मुंह देखना पड़ा। कहा जाता है कि तब राजाओं ने भगवती मां से दैत्य के आतंक से निजात दिलाए जाने की प्रार्थना की। राजाओं द्वारा विधि-विधान से पूजा अर्चना करने के बाद मैया भंवरे के रुप में प्रकट हुई तथा मैया ने अरुण नामक दैत्य का वध कर दिया। तब कहीं जाकर राजाओं को दैत्य से मुक्ति मिली और उन्होंने यहां अपनी राजधानी बनाई।

मैया की इसी असीम अनुकंपा के कारण ही कोट मंदिर में कत्यूरी राजाओं की अधिष्ठात्री देवी भ्रामरी तथा चंद वंशावलियों द्वारा प्रतिष्ठापित नन्दा देवी की स्थापना की गई है। भ्रामरी रुप में देवी की पूजा अर्चना यहां पर मूर्ति के रुप में नहीं बल्कि शक्ति के रुप में की जाती है बल्कि शक्ति के रुप में की जाती है जबकि नन्दा के रुप में मूर्ति पूजन, डोला स्थापना व विसर्जन का प्रचलन है। यहां के बड़े बुजुर्ग बताते हैं कि लगभग 200 साल पहले नेपाली आक्रमण से राज्य को बचाने के लिए माँ नंदादेवी की मूर्ति को भी कोट भ्रामरी मंदिर में स्थापित तीर्थाटन के रूप में आज भी यह क्षेत्र कोई विशेष पहचान पर्यटक मानचित्र में नहीं बना पाया है। महान पूजित स्थल की उपेक्षा सरकार की तीर्थाटन एवं पर्यटन नीति पर सवालिया निशान लगाती नजर आती है।

माता कोट भ्रामरी के मंदिर का निर्माण कत्यूरी राजाओं के वक्त का माना जाता है। प्रसिद्ध कवियों, साहित्यकारों, लेखकों ने अपने-अपने शब्दों से इस दिव्य दरबार की महिमा का बखान किया है। प्रसिद्ध साहित्यकार जयशंकर प्रसाद रचित ‘ध्रुव स्वामिनी’ नामक ग्रंथ में चंद्रगुप्त का अपनी सेना की टुकड़ी के साथ इस क्षेत्र में रुकने का उल्लेख मिलता है । इन्हीं कत्यूरी राजाओं ने कत्यूर घाटी के महत्वपूर्ण स्थानों को किले के रुप में स्थापित किया था। वर्तमान कोट मंदिर को भी किले का रुप दिया गया था।

नंदा के रूप में इसका सम्बन्ध नंदा की राजजात से भी सम्बद्ध है। नौटी से आयोजित की जाने वाली नन्दाजात में सम्मिलित होने के लिए अल्मोड़ा से प्रस्थान करने वाली जात का दूसरा रात्रि विश्राम यहीं होता है। यहीं से राजजात में जाने वाली देवी की स्वयंभू कटार को ले जाया जाता है जो कि ग्वालदम, देवाल होते हुए नन्दकेसरी में प्रधान जात में सम्मिलित होती है तथा राजजात की समाप्ति पर पुनः इसे यहीं लाकर स्थापित कर दिया जाता है। कोट भ्रामरी मेले में लोक संस्कृति की झलक देखने को मिलेगी। मेले को भव्य रूप देने के लिए विभिन्न समितियों का गठन किया गया। मेले को पालीथीन व नशा मुक्त बनाने पर जोर दिया गया। कोरोना के बाद इस बार दो साल बाद हो रहे ऐतिहासिक कोट भ्रामरी मेले देखने को मिलेगी।