कोटद्वार/यमकेश्वर/दुगड्डा। बीस किलोग्राम की गेंद को छीनने का रोमांच है गिंदी कौथिग। इस गेंद मेले का कोटद्वार से लेकर डाडामंडी और यमकेश्वमेलेर ब्लाक के थलनदी में बड़ा महत्व है। यही नहीं बल्कि पूरे पौड़ी जिले में यह अनोखा मेला है। आज यह मेला कई जगह पर आयोजित किया जाता है, लेकिन इस मेले की उत्पत्ति थलनदी से ही मानी गई है। वर्तमान में कोटद्वार के मवाकोट, द्वारीखाल ब्लाक के डाडामंडी आदि स्थानों पर गिंदी मेला आयोजित किया जाता है। शहर के नजदीक होने के चलते भले ही मवाकोट का यह कौथिग अधिक आकर्षक हो सकता है लेकिन मान्यताओं और परंपराओं के अनुसार आज भी थलनदी का कौथिग अधिक प्रसिद्ध है।
कौथिग का ऐतिहासिक महत्व
पौराणिक मान्यता के अनुसार यमकेश्वर ब्लाक के अजमीर पट्टी के नाली गांव के जमींदार की गिदोरी नाम की लड़की का विवाह उदयपुर पट्टी के कस्याली गांव में हुआ था। पारिवारिक विवाद होने पर गिदोरी घर छोड़कर थलनदी पर आ गई। उस समय यहां पर दोनों पट्टियों के गांव (नाली और कस्याली) के लोग खेती कर रहे थे। नाली गांव के लोगों को जब यह पता चला कि कि गिदोरी ससुराल छोड़कर आ रही है तो वे उसे अपने साथ ले जाने लगे जबकि कस्याली गांव के लोग उसे वापस ससुराल ले जाने का प्रयास करने लगे। दोनों गांव के लोगों के बीच संघर्ष और छीना झपटी में गिदोरी की मौत हो गई। तब से थलनदी में दोनों पट्टियों में गेंद के लिए संघर्ष होता है।
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महाबगढ़ का निशान लेकर चलते हैं लोग
मेले का अपना धार्मिक महत्व भी है। पहले गिंदी कौथिक की गेंद मरी हुई गाय की खाल से बनाई जाती थी। अब बकरे की खाल से यह गेंद बनाई जाती है। 20 किलो की इस चमड़े की गेंद के लिए होने वाले खेल के संघर्ष में खिलाड़ियों की संख्या निश्चित नहीं होती। कोई अनर्थ न हो इसके लिए क्षेत्र के महाबगढ़ मंदिर का ध्वज भी खेल के दौरान साथ लाया जाता है।
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30 सालों से बना रहे गेंद
मेले के लिए गेंद बनाने का काम नाली गांव के दर्शन सिह बिष्ट करते हैं। वे इसके लिए कोई पैसा नहीं लेतेे। 1982 से वही गेंद बना रहे हैं।