कल्हण कश्मीरी इतिहासकार तथा विश्वविख्यात ग्रंथ राजतरंगिनी (1148-50 ई.) के रचयिता थे। कल्हण (1150 ई.) कश्मीर के महाराज हर्षदेव (1068-1101) के महामात्य चंपक के पुत्र और संगीतमर्मज्ञ कनक के अग्रज थे। मंखक ने श्रीकंठचरित (1128-44) (सर्ग 25, श्लो. 78-20) में कल्याण नाम के इसी कवि की प्रौढ़ता को सराहा है और इसे महामंत्री अलकदत्त के प्रश्रय में “बहुकथाकेलिपरिश्रमनिरंकुश’ घोषित किया है।
वास्तव में कल्हण एक विलक्षण महाकवि थे । उसकी “सरस्वती’ रागद्वेष से अलेप रहकर “भूतार्थचित्रण’ के साथ ही साथ “रम्यनिर्माण’ में भी निपुण थे , तभी तो बीते हुए काल को “प्रत्यक्ष’ बनाने में उसे सरस सफलता मिली है। “दुष्ट वैदुष्य’ से बचने का उसने सुरुचिपूर्ण प्रयत्न किया और “कविकर्म’ के सहज गौरव को प्रणाम करते हुए उसने अपनी प्रतिभा का सचेत उपयोग किया। इतिहास और काव्य के संगम पर उसने अपने “प्रबंध’ को शांत रस का “मूर्धाभिषेक’ देते हुए अपने पाठाकों को राजतरंगिणी की अमंद रसधारा का आस्वादन करने को आमंत्रित किया है।सच तो यह है कि कल्हण ने “इतिहास’ (इति+ह+आस) को काव्य की विषयवस्तु बनाकर भारतीय साहित्य को एक नई विधा प्रदान की है और राष्ट्रजीवन के व्यापक विस्तार के साथ-साथ मानव प्रकृति की गहराइयों को भी छू लिया। शांत रस के असीम पारावार में श्रृंगार, वीर, रौद्र, अद्भुत, वीभत्स और करुण आदि सभी रस हिलोरें लेते दिखाए गए हैं और बीच-बीच में हास्य और व्यंग के जो छीटे उड़ते रहते हैं वे भी बहुत महत्वपूर्ण हैं। क्षेमेंद्र के बाद कल्हण ने ही तो सामयिक समाज पर व्यंग कसकर संस्कृत साहित्य की एक भारी कमी को पूरा करने में योग दिया है।
इतिहासकार के नाते नि:संदेह कल्हण की अपनी सीमाएँ हैं, विशेषकर प्रारंभिक वंशावलियों और कालगणना के बारे में। उसके साधन भी तो सीमित थे। पर खेद की बात है कि अपनी विवशता से सतर्क रहने के बजाए उसने कुछ लोकप्रचलित अंधविश्वासों को अत्युक्तियुक्त मान्यता दी, जैसे रणादित्य के 300 वर्ष लंबे शासन की उपहास्य अनुश्रुति को। किंतु यह भी कम सराहनीय नहीं कि चौथे तरंग के अंतिम भाग से अपने समय तक अर्थात 3886 लौकिक शक (813-14 ई.) से 4225 लौ॰ शक (1146-50 ई.) तक उसकी कालगणना और इतिहास सामग्री विस्तृत और विश्वसनीय है। अपने पूर्ववर्ती “सूरियों’ के 11 ग्रंथों और “नीलमत’ (पुराण) के अतिरिक्त उसने प्राचीन राजाओं के “प्रतिष्ठाशासन’, “वास्तुशासन’, “प्रशस्तिपट्ट’, “शास्त्र’ (लेख आदि), भग्नावशेष, सिक्के और लोकश्रुति आदि पुरातात्विक साधनों से यथेष्ट लाभ उठाने का गवेषणात्मक प्रयास किया है; और सबसे बड़ी बात यह कि अपने युग की अवस्थाओं और व्यवस्थाओं का निकट से अध्ययन करते हुए भी वह अपनी टीका टिप्पणी में बेलाग है। और तो और, अपने आश्रयदाता महाराज जयसिंह के गुण-दोष-चित्रण (तरंग 8, श्लो. 1550–) में भी उसने अनुपम तटस्थता का परिचय दिया है। उसी के शब्दों में “पूर्वापरानुसंधान’ और “अनीर्ष्य (अर्थात् ईर्ष्याशून्य) विवेक’ के बिना गुणदोष का निर्णय समीचीन नहीं हो सकता।
संभवत: इसीलिए कल्हण ने केवल राजनीतिक रूपरेखा न खींचकर सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेश की झलकियाँ भी प्रस्तुत की हैं; और चरित्रचित्रण में सरस विवेक से काम लिया है। मातृगुप्त और प्रवरसेन, नरेन्द्रप्रभा और प्रतापादित्य तथा अनंगलेखा, खंख और दुर्लभवर्धन (तरंग 3) अथवा चंद्रापीड और चमार (तरंग 4) के प्रसंगों में मानव मनोविज्ञान के मनोरम चित्र झिलमिलाते हैं। इसके अतिरिक्त बाढ़, आग, अकाल और महामारी आदि विभीषिकाओं तथा धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक उपद्रवों में मानव स्वभाव की उज्वल प्रगतियों और कुत्सित प्रवृत्तियों के साभिप्राय संकेत भी मिलते हैं।
कल्हण का दृष्ठिकोण बहुत उदार था; माहेश्वर (ब्राह्मण) होते हुए भी उसने बौद्ध दर्शन की उदात्त परंपराओं को सराहा है और पाखंडी (शैव) तांत्रिकों को आड़े हाथों लिया है। सच्चे देशभक्त की तरह उसने अपने देशवासियों की बुराइयों पर से पर्दा सरका दिया और एक सच्चे सहृदय की तरह देशकाल की सीमाओं से ऊपर उठकर, सत्य, शिव और सुंदर का अभिनंदन तथा प्रतिपादन किया।
समूचे प्राचीन भारतीय इतिहास में जो एक मात्र वैज्ञानिक इतिहास प्रस्तुत करने का प्रयत्न हुआ है वह है कल्हण की राजतरंगिणी। अपनी कुछ कमजोरियों के बावजूद कल्हण का दृष्टिकोण प्राय: आज के इतिहासकार जैसा है। स्वयं तो वह समसामयिक स्थानीय पूर्वाग्रहों के ऊपर उठ ही गये , साथ ही घटनाओं के वर्णन में अत्यंत समीचीन अनुपात रखा है। विवरण की संक्षिप्तता सराहनीय है।
साभार – विकिपीडिया
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