डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
श्रावण मास चल रहा है और हरिद्वार से शिव भक्त कांवड़ लेकर गंगाजल लेने जाते हैं, फिर उस जल से भोलेनाथ का जलाभिषेक करते हैं.शास्त्रों में हरिद्वार ब्रह्मकुंड से जल ले जाकर भगवान शिव को अर्पित करने का विशेष महत्व माना गया है. दरअसल, वैश्विक महामारी के कारण दो साल के अंतराल के बाद हो रही इस कांवड़ यात्रा में हालांकि कोई कोविड प्रतिबंध नहीं लागू किया गया है और अधिकारियों को उम्मीद है कि यात्रा के दौरान कम से कम चार करोड़ शिवभक्त गंगा जल लेने के लिए उत्तराखंड के हरिद्वार तथा आसपास के क्षेत्रों में पहुंचेंगे।
ऐसे में अपनी धार्मिक यात्राओं के लिए प्रसिद्ध उत्तराखंड आजकल एक तरफ़ तो सावन की फुहारों से सराबोर है, तो दूसरी तरफ़ दूसरे राज्यों से लाखों की संख्या में कांवड़ियां हर की पैड़ी पहुँच रहे हैं। जहां से वह गंगाजल लेकर शिवरात्रि पर अपने-अपने क्षेत्रों के शिवालयों में जलाभिषेक करते हैं। कांवड़ यात्रा को लेकर लोगों में खासा उत्साह देखा जाता है। कांवड़ यात्रा कैसे शुरू हुई, किसने शुरू की, कितने प्रकार की होती है और कांवड़ के दौरान नियम क्या होते हैं।
मान्यता है कि पहला कांवड़िया रावण था। वेद कहते हैं कि कांवड़ की परंपरा समुद्र मंथन के समय ही पड़ गई। तब जब मंथन में विष निकला तो संसार इससे त्राहि-त्राहि करने लगा। तब भगवान शिव ने इसे अपने गले में रख लिया। लेकिन इससे शिव के अंदर जो नकारात्मक उर्जा ने जगह बनाई , उसको दूर करने का काम रावण ने किया। रावण ने तप करने के बाद गंगा जल से महादेव मंदिर में भगवान शिव का अभिषेक किया था, जिसके बाद शिव इस नकारात्मक उर्जा से मुक्त हो गए । वैसे अंग्रेजों ने 19वीं सदी की शुरूआत से भारत में कांवड़ यात्रा का जिक्र अपनी किताबों और लेखों में किया। कई पुराने चित्रों में भी ये दिखाया गया है। लेकिन कांवड़ यात्रा 1960 के दशक तक बहुत ताम-झाम से नहीं होती थी ।कुछ साधु और श्रृद्धालुओं के साथ धनी मारवाड़ी सेठ नंगे पैर चलकर हरिद्वार या बिहार में सुल्तानगंज तक जाते थे और वहां से गंगाजल लेकर लौटते थे, जिससे शिव का अभिषेक किया जाता था। 80 के दशक के बाद ये बड़े धार्मिक आयोजन में बदलने लगा । अब तो ये काफी बड़ा आयोजन हो चुका है।
पंचक समाप्त होते ही गंगोत्री धाम में गंगा जल भरने के लिए बाइक और ट्रकों के जरिये कांवड़ यात्री पहुंचने लगे हैं। लेकिन, अधिकांश कांवड़ यात्री यातायात के नियमों को ताक पर रखकर अपनी जान जोखिम में डाल रहे हैं। ऐसे में कभी बड़ी घटना घट सकती है। एक अगस्त 2010 को भटवाड़ी के डबराणी के पास कांवड़ यात्रियों का एक ट्रक गिरा था। जिसमें 27 कांवड़ यात्रियों की मौत हुई थी। इसके अलावा कई छोटी घटनाएं भी हो चुकी हैं। लेकिन, इन घटनाओं से ना तो कांवड़ यात्रियों ने सबक लिया और ना प्रशासन ने सख्ती बरती। कांवड़ शुरू होते ही गंगोत्री और गोमुख से गंगा जल लेने के लिए डाक कांवड़ यात्रियों की संख्या बढ़ने लगी है। बाइक के जरिये जो कांवड़ यात्री आ रहे उनमें हेलमेट कोई भी कांवड़ यात्री नहीं पहन रहा है। जबकि पहाड़ों में वर्षाकाल के दौरान पहाड़ी से पत्थर गिरने का खतरा लगातार बना रहता है। इसके अलावा दुर्घटना होने पर सुरक्षा के लिहाज से हेलमेट पहनना काफी महत्वपूर्ण है। परंतु हेलमेट पहनने के लिए कोई भी कांवड़ यात्री तैयार नहीं है।
इसके आलावा कई बाइकर्स कांवड़ यात्रियों ने अपने बाइक के साइलेंसर भी निकाले हुए हैं। जिससे उत्तरकाशी और गंगा घाटी की शांत वादियों में बाइक के आवाज बहुत अधिक गूंज रही है। जो आमजन के लिए डरावनी है। जबकि ट्रकों में आने वाले कांवड़ यात्री यातायात नियमों का ताक में रख रहे हैं तथा नियम विरुद्ध डीजे बजा रहे हैं। साथ ही ट्रक में लदकर अपनी जान जोखिम में डाल रहे हैं। भारत में हर साल सड़क दुर्घटना में तीन फीसदी का इजाफा हो रहा है. इसकी चपेट में आने वाले 78 फीसद लोग 20-44 आयु वर्ग के हैं। दो पहिया वाहन चलाने वाले सैकड़ों युवा हर साल सिर की गंभीर चोटों से जान से हाथ धो बैठते हैं। इन्हें सिर की गंभीर चोटों से केवल हेलमेट ही बचा सकता है। उसके बावजूद ज्यादातर लोग हेलमेट पहनने को शान के खिलाफ समझते हैं ।
WHO के आंकड़े बताते हैं कि भारत में होने वाली मौतों में सड़क दुर्घटना एक बड़ा कारण है। देश में हर साल 5 लाख लोग सड़क हादसे के शिकार हो रहे हैं। जिसमें से एक लाख 10 हजार की मौत हो जाती है। इनमें हेलमेट न पहनने वाले युवाओं की संख्या सबसे अधिक है। युवा कांवडीये सिर्फ ट्रैफिक पुलिस को देख कर ही उनसे से बचने के लिए हेलमेट पहनते हैं , बाकि यात्रा बिना हेलमेट के ही होती है तेज रफ्तार से वाहन दौड़ाने वाले लोग सड़क के किनारे लगे बोर्ड पर लिखे वाक्य ‘दुर्घटना से देर भली’ पढ़ते जरूर हैं, किन्तु देर उन्हें मान्य नहीं है, दुर्घटना भले ही हो जाए।
यह लेखक के निजी विचार हैं ।
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