आलेख : राजेंद्र शर्मा
मात्र 2 दशक पूर्व ही बिजली के नाम पर एक पूरे शहर टिहरी को जलसमाधि लेनी पड़ी थी।आज भी लोग उस झील के कटाव से प्रभावित है। झील का पानी लगातार मिट्टी काट रहा है जिसके चलते ऊपर बसे गाँव नीचे धसक रहें है, हो सकता कल उनका हाल भी जोशीमठ की तरह हो जाये तो क्या होगा ?
उत्तराखंड में जोशीमठ की त्रासदी ने कम से कम फिलहाल‚ पूरे देश को अपनी ओर देखने के लिए मजबूर कर दिया है। और यह तब है, जब चमोली जनपद के इस अत्यधिक धार्मिक–सांस्कृतिक महत्व के शहर के पांच हजार में से करीब सात सौ घरों और अन्य इमारतों के लाल निशान लगाकर रहने के लिए असुरक्षित तथा इसलिए‚ गिराए जाने के योग्य घोषित किए जाने और पचास हजार की आबादी में से करीब पांच हजार यानी दस फीसद लोगों का विस्थापन तय हो जाने के रूप में जो संकट आज हमारी आंखों से सामने आ खड़ा हुआ है‚ वह वास्तविक संकट का सतह पर नजर आ रहा छोर भर है।
अचरज नहीं कि हर रोज चौड़ी होती दरारों के चलते‚ खतरनाक घोषित इमारतों के असुरक्षित होने को पहचानते हुए भी‚ हजारों लोग हाड़कंपा ठंड में खुले आसमान के नीचे रात–दिन धरने पर बैठे हैं‚ जिससे प्रशासन‚ समुचित मुआवजे का वचन दिए बिना‚ उनके घरों आदि को नहीं गिरा दे। उनकी मांग‚ केदारनाथ त्रासदी विस्थापितों को दी गई दर से मुआवजे की है‚ जिसका आश्वासन कम से कम इन पंक्तियों के लिखे जाने तक पीडि़तों को नहीं मिला था और इसके चलते खतरनाक घोषित इमारतों को गिराने का काम लाल रंग से काटे का निशान लगाने से आगे नहीं बढ़ पाया है।
वैसे‚ प्रधानमंत्री तक के गहरी चिंता प्रदर्शित करने और मुख्यमंत्री के खुद प्रभावित क्षेत्र का दौरा करके‚ जोशीमठ नगर पालिका क्षेत्र में हर तरह के निर्माणों पर रोक लगाने समेत कई आदेश देेने के बावजूद‚ शासन–प्रशासन की संवेदनहीनता बने रहने में खास अचरज की बात भी नहीं है। यह संवेदनहीनता संस्थागत है। बहरहाल‚ शासन–प्रशासन की संवेदनहीनता या लापरवाही तो इस संकट का सिर्फ ऊपर से दिखाई देने वाला हिस्सा है। असली संकट तो विकास की उस अंधी संकल्पना का है‚ जिसका आंख मूंदकर‚ हिमालयी क्षेत्र जैसी नाजुक भू–संरचनाओं पर थोपा जाना‚ हमें ऐसी ज्यादा से ज्यादा उग्र त्रासदियों की ओर ही धकेल रहा है। यह कम से कम नीति–निर्धारकों से छुपा हुआ नहीं था कि सबसे युवा तथा कच्ची पर्वत श्रृंखला माने जाने वाले हिमालयी क्षेत्र में भी‚ जोशीमठ की भू–संरचना और भी नाजुक है।
सातवीं सदी में बसा यह शहर‚ वास्तव में ग्लेशियर के साथ बहकर आई मिट्टी के‚ पहाड़ की ढलान पर जमने से बनी जमीन पर बसाया गया था। गढ़वाल के तत्कालीन कमिश्नर एम सी मिश्र की अध्यक्षता में एक कमेटी ने भू–धंसाव के संदर्भ में ही छानबीन कर‚ 1976 में ही शासन को आगाह कर दिया था कि ऐसी नाजुक भूसंरचना‚ ज्यादा वजन नहीं संभाल सकती है‚ और इस क्षेत्र में किसी भी बड़े निर्माण की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए। लेकिन‚ ऐसा नहीं लगता है कि उक्त रिपोर्ट आने के बाद गुजरे करीब 45 साल में‚ इस क्षेत्र से लेकर देश तक‚ किसी भी स्तर पर शासन–प्रशासन के निर्णयों में‚ इस निषेध की सुनी गई हो।
जरूरत से कहीं ज्यादा निर्माण : स्वाभाविक रूप से बढ़ती आबादी तथा उसकी वास्तविक जरूरतों के लिए निर्माणों तक ही बात रहती‚ तो फिर भी गनीमत थी। इसी प्रकार‚ बद्रीनाथ का द्वार माने जाने वाले तथा उसकी शीतकालीन गद्दी के स्थान और शंकराचार्य की पीठ के नाते‚ तीर्थाटन में सामान्य बढ़ोतरी का ही बोझ रहता‚ तब भी गनीमत थी। लेकिन‚ सस्ती जल विद्युत के स्रोत के रूप में पर्वतीय नदियों के दोहन के लालच ने‚ ‘विकास’ – नितांत परायी संकल्पना – को इस भूरचनात्मक रूप से नाजुक क्षेत्र पर लाद दिया। पहाड़ों को खोदकर सुरंग बनाने और नदियों को रोक कर‚ झीलें बनाने का अंतहीन सिलसिला शुरू हो गया।
जितनी बड़ी परियोजना‚ उतनी ही ज्यादा इस नाजुक क्षेत्र में तोड़–फोड़ और उतनी ही ज्यादा‚ जो किया जा रहा था, उसके संभावित नतीजों की ओर से आंखें मूंदने की जिद। पिछली सदी के आखिरी दशक से देश में स्थापित हुई नवउदारवादी व्यवस्था के हिस्से के तौर पर‚ विशेषतः ढांचागत क्षेत्र के बढ़ते निजीकरण ने, विकास के नाम पर विनाश की ढलान पर सरकती गाड़ी को और जबर्दस्त धक्का दे दिया। संबंधित क्षेत्र के लिए विकास पराया तो पहले ही हो चुका था, क्योंकि स्थानीय लोगों की जरूरतों तथा प्राथमिकताओं से‚ विकास के नाम पर लिए जा रहे निर्णयों से शायद ही कोई संबंध था। लेकिन‚ अब विकास खुलकर लोगों के खिलाफ ही हो गया है। अब विकास न सिर्फ निवेश के लिए धन की उपलब्धता तथा इस निवेश से कमाई की संभावनाओं से ही संचालित था‚ बल्कि संबंधित इलाकों के लोग इस विकास के रास्ते में बाधा ही नजर आने लगे‚ जिस पर किसी तरह काबू पाया जाना था। निवेश से कमाई का यह बड़ा खेल‚ सिर्फ जल विद्युत तक सीमित कैसे रहता! जल्द ही बड़े पैमाने पर पर्यटन के लिए चौड़ी–चौड़ी सड़कों का जाल बिछाने से लेकर‚ सुरंगों के जाल बिछाने और पर्यटकों के लिए अन्य सुविधाओं के निर्माण का दौर–दौरा शुरू हो गया।
‘विकास’ का जिक्र अप्रासंगिक नहीं : जोशीमठ के वर्तमान संकट के संदर्भ में इनमें से दो कथित ‘विकास’ योजनाओं का जिक्र करना अप्रासंगिक नहीं होगा। इनमें एक है 520 मेगावॉट की तपोवन–विष्णुगाड़ परियोजना। यह परियोजना पहले ही 2021 के तपोवन–रैंणी हादसे को न्यौत चुकी है‚ जिसमें 200 से भी अधिक मजदूर टनल में ही जिंदा दफन हो गए थे। एनटीपीसी की इस परियोजना की सुरंग जोशीमठ के नीचे से खोदी ही जा रही है। समझा जाता है कि वर्तमान भू–धंसाव के पीछे‚ इस सुरंग की खुदाई का शायद सबसे ज्यादा हाथ है। इसके अलावा‚ जोशीमठ शहर के नीचे से चार लेन की हेलंग–विष्णुप्रयाग वाइपास रोड का भी निर्माण किया जा रहा है‚ जिसमें पहाड़ काटने के लिए भारी विस्फोट किए जाते रहे हैं‚ जिससे जोशीमठ शहर पूरी तरह से हिल गया है।
खैर! क्या कम से कम अब जबकि जोशीमठ के संकट ने सारे देश का ध्यान अपनी ओर खींच लिया है‚ हम इस विनाशकारी रास्ते से कदम पीछे खींचे जाने की उम्मीद कर सकते हैंॽ कम से कम आसार ऐसी उम्मीद की इजाजत नहीं देते हैं। सचाई यह है कि मोदी सरकार के आठ साल से ज्यादा में‚ इस तरह के ‘पराए विकास’ को पहले से भी ज्यादा आक्रामकता से आगे ही बढ़ाया गया है। यह महज संयोग ही नहीं है कि 2021 के रैंणी हादसे के बाद भी‚ एनटीपीसी की तपोवन–विष्णुगाड़ परियोजना की‚ शायद ही कोई गंभीर समीक्षा की गई होगी। इसी प्रकार‚ चार धाम मार्ग परियोजना के मामले में‚ विशेषज्ञ कमेटी की राय के खिलाफ‚ मोदी सरकार की सड़क ज्यादा चौड़ी रखने की जिद को‚ सुप्रीम कोर्ट में जब चुनौती दी गई‚ तो तीर्थाटन/पर्यटन की जरूरतों के तर्क से शीर्ष अदालत को कायल करने में असमर्थ मोदी सरकार ने‚ अपनी दलील बदल कर‚ प्रतिरक्षा हितोें के तकाजे की दलील पेश कर दी‚ जिस पर बहस करना अदालत को भी मंजूर नहीं हुआ।
सच तो यह है कि मोदी सरकार ने न सिर्फ ऐसी सभी परियोजनाओं पर लगे‚ पर्यावरण से लेकर जन–उपयोगिता तक के अंकुशों को कमजोर किया है‚ बल्कि पर्यावरण से लेकर परियोजना से प्रभावित होने वालों तक के हितों का सवाल उठाने को‚ विकासविरोधी से भी आगे‚ राष्ट्रविरोधी अपराध भी बना दिया है। विकास की हमारी संकल्पना के केंद्र में जब तक उस जनता की जरूरतें तथा हित नहीं होंगे‚ जिसके जल-जंगल-जमीन पर‚ किसी परियोजना का प्रभाव पड़ता हो‚ तब तक कुल मिलाकर वह परियोजना विकास के नाम पर विनाश का ही हथियार बनेगी। लेकिन‚ मोदी सरकार ने तो आदिवासी सघन क्षेत्रों तक में परियोजनाओं के लिए‚ ग्राम सभा की जानकारीपूर्ण सहमति की शर्त को खत्म करने के लिए ही कदम उठाए हैं। साफ है कि विकास के नाम पर जो होगा‚ लोगों की राय से और ज्यादा स्वतंत्र‚ उनके हितों के और ज्यादा विरुद्ध‚ और समग्रता में और ज्यादा विनाशकारी होगा। विकास तो उसे ही कहेंगे जो बहुजन–हिताय हो‚ जो महाजन–हिताय हो वह तो विनाश ही होगा।
10 साल पूर्व डा० सुनील कैंथोला द्वारा लिखे इस लेख पर अगर सरकार संज्ञान ले लेती तो आज यह स्थिति न होती । आप भी पड़ें …….