जिस देश में मुद्दों का एवरेस्ट खड़ा हो और जहां आबादी का ज़्यादातर हिस्सा उस मुद्दों के एवरेस्ट पर चढ़कर फ़तह हासिल करने की बजाए बगल से गुज़रकर, देखकर भी नज़रअंदाज़ करने में विश्वास रखता आया हो, वहां अचानक जेएनयू विवाद का मुद्दा इतना बड़ा क्यों और कैसे हो गया कि न चर्चाएं खत्म हो रही हैं और ना ही लोगों के ख़ून का उबाल। कुछ छात्रों के जमा होकर ऐसे नारे लगाने से जिनपर सवाल उठाए जा सकते हों, पूरा देश अपने जवाब तैयार किए क्यों बैठा है? क्या वाकई उस शाम जेएनयू में कुछ ऐसा हुआ है जिसे लोग चाहकर भी नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते या कर पा रहे?
बीते दस दिन में जेएनयू विवाद देशद्रोह, देशभक्ति, यूनिवर्सिटी की स्वयात्तता, छात्रों के अधिकार, कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी, कुछ वकीलों की गुंडागर्दी, पत्रकारों की पिटाई से होता हुआ न जाने कहां से कहां पहुंच चुका है। लेकिन सवाल अब भी वही है कि इतना सबकुछ हुआ क्यों और कैसे?
दरअसल, पूरा मसला भविष्य के नेताओं और मौजूदा नेताओं की राजनीति की भेंट चढ़ चुका है। उस शाम जिन छात्रों को अफ़ज़ल गुरु की फांसी में न्यायिक कत्ल की शक्ल नज़र आ रही थी उनमें से एक तबका ऐसा था जिसे उस चर्चा में अपनी भविष्य की राजनीति दिख रही थी, तो कुछ उस चर्चा को विवाद की शक्ल देने में अपना भविष्य तलाश रहे थे। चर्चा और विवाद के बीच की महीन दूरी उन नारों ने मिटाई जिनमें कश्मीर की आज़ादी की गूंज थी तो हर घर से अफ़जल गुरु के निकलने की बात भी। ये नारे किन्होंने लगाए ये भले न साफ़ हो, लेकिन इतना साफ़ है कि नारे लगाने की हवा देने वाले अपना फ़ायदा देख रहे थे। लड़ कर आज़ादी लेने की बात करने वालों में से ज्यादातर ने चेहरे क्यों ढक रखे थे, सोचिएगा।
जेएनयू में अगर ऐसी चर्चाओं का इतिहास पुराना है तो फिर उन ढके चेहरों के पीछे कौन सा डर छिपा था? भीड़ कई बार सिर्फ़ चलती है, बिना दिशा सोचे और देखे। ये गुमनाम चेहरे उस भीड़ को चला रहे थे और अब गायब हैं। कहां गए वो, क्या पहचान थी उनकी और क्यों छिपाई गई पहचान, सोचिएगा।
उधर, वीडियो बनाने वाले अगर इतने ही गंभीर थे तो यूनिवर्सिटी प्रशासन के पास जाने की बजाए वीडियो को वायरल करने में क्यों लग गए? जिस जेएनयू का सच या कथित सच वो बताना चाह रहे थे, वो सच अगर उनकी नज़र में इतना विभत्स है तो वो वहां पढ़ क्यों रहे हैं? जेएनयू अगर देशद्रोहियों का गढ़ है तो वो उस गढ़ में क्या कर रहे हैं? वीडियो वायरल होकर हंगामा तो खड़ा कर सकता था, लोगों को राजनीति चमकाने का मौका तो दे सकता था लेकिन मसले का हल नहीं निकाल सकता था, ये वो भी जानते थे, लेकिन उन्हें भी हल नहीं मुद्दा चाहिए था जो उन्होंने हासिल कर लिया। इसपर भी सोचिएगा।
जो मसला यूनिवर्सिटी प्रशासन के अंदर ही सुलझाया जा सकता था, छात्रों को बुलाकर समझाया जा सकता था या फिर उनपर दंडात्मक कार्रवाई हो सकती थी, वो मसला थाने और कचहरी तक पहुंच गया। और सिर्फ़ वहीं तक नहीं, हर ड्रॉइंगरूम और बेडरूम तक भी पहुंच गया। हर न्यूज़ चैनल अपने हिसाब से और अपने अपने हिस्से का सच दिखाने लगे। क्या आपको पूरा सच कभी भी परोसा गया, इसपर भी सोचिएगा।
दिल्ली पुलिस का मामलों को कायदे से हैंडल न करने का इतिहास है। चाहे रामदेव के आंदोलन में रात में घुसकर लाठियां भांजने वाली दिल्ली पुलिस हो या फिर बिना पूरे सबूत के जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को गिरफ्तार करने वाली दिल्ली पुलिस, हर बार वो आनन फ़ानन में क्यों रहती है? अपना काम करने की बजाय वो किसी को ख़ुश करने वाले कदम या किसी के कहने पर कदम उठाने के सवालों से हर बार क्यों घिर जाती है और इसबार भी ऐसा ही कुछ क्यों हुआ, सोचिएगा।
वकीलों के एक छोटे तबके को इसमें देशभक्ति का मेडल हासिल करने की क्यों सूझी? क्या काले कोट का बोझ इतना हो गया कि भविष्य में सफ़ेद कुर्ते पजामे के साथ लाल बत्ती के सपने दिखने लगे? इसपर भी सोचिएगा।
पत्रकारों की पिटाई पर भी बगल में खड़ी पुलिस मूक दर्शक बनी सबकुछ क्यों देखती रही, क्या संभव है कि उनसे यूं ही तमाशबीन बने रहने के लिए न कहा गया हो? वो भी ये जानते हुए कि हमला अगर मीडिया पर हो रहा है तो सवाल ज़रूर उठेंगे और ज़ोर शोर से उठेंगे, सोचिएगा इस पर भी।
पड़ोसी मुल्क के प्रधानमंत्री को फ़ोन करके भूकंप आने की जानकारी देने वाले प्रधानमंत्री मोदी अगर मसले पर इतने ही चिंतित थे तो एक फ़ोन उठाकर गृहमंत्री से क्यों नहीं पूछ सके कि दिल्ली पुलिस आनन फ़ानन में क्यों कार्रवाई कर रही है? वकीलों की गुंडागर्दी पर तमाशबीन क्यों बनी हुई है? किसी की गिरफ्तारी क्यों नहीं हो रही? पीएम मोदी तो प्रोटोकॉल तोड़कर भी बहुत कुछ करते हैं, तो इस बार भी गृहमंत्री ही क्यों, सीधे कमिश्नर बस्सी को फ़ोन लगाकर ख़ुद पूछ लेते कि जो हो रहा है वो क्यों हो रहा है? एक फ़ोन अमित शाह को भी कर लेते कि सड़क पर पिटाई करने वाले बीजेपी नेता अब तक पार्टी में क्यों हैं? सबकुछ बस ‘निंदा करते हैं’ की एक लाइन तक क्यों सिमट कर रह जाता है? सोचिएगा।
जिस अफ़ज़ल गुरु को कांग्रेस की सरकार में ही फांसी पर लटकाया गया उसी अफ़ज़ल गुरु की फांसी का विरोध करने वालों के साथ राहुल गांधी क्यों खड़े हो गए… लेफ्ट के नेता अचानक यूनिवर्सिटी क्यों पहुंच गए? जिन नेताओं को देश के मरते किसानों के बीच जाने की फुर्सत नहीं होती, वो अचानक एक यूनिवर्सिटी के विवाद में क्यों कूद पड़े? क्या उन्हें मोदी विरोध का बेहतर मौका दिख रहा था इसमें, क्या लेफ्ट को पश्चिम बंगाल के आनेवाले चुनाव दिख रहे थे, क्या राहुल गांधी को देश में बढ़ते ख़ौफ़ का फर्जी सर्टिफ़िकेट बांटने का एक और मौका दिख रहा था? जैसे जेएनयू के कुछ छात्र पूरे जेएनयू की तस्वीर नहीं हो सकते वैसे ही सवा सौ करोड़ की आबादी वाले देश में कुछ सौ या कुछ हज़ार लोगों की गुंडागर्दी से पूरा देश असहिष्णु नहीं हो सकता और ना ही पूरे देश में ख़तरा पैदा हो सकता है। फिर वो डराकर क्या हासिल करना चाहते हैं, इसपर भी सोचिएगा।
और आख़िर में इसपर सोचिएगा कि कितनी आसानी से हर दल ने अपने अपने हिसाब से मुद्दे को बांटकर आपके सामने परोस दिया है। गुस्सा ठंडा हो जाए तो सोचिएगा। आप सोचेंगे तो ऐसी राजनीति नहीं होगी। छात्र सोचेंगे तो ऐसे प्रदर्शन का हिस्सा नहीं होंगे। न्यूज़ चैनल सोचेंगे तो अपने अपने हिस्से का अधूरा सच दिखाने से बच सकेंगे। पुलिस सोचेगी तो अपना काम कानून के दायरे में कर पाएगी। और अब भी नहीं सोचिएगा तो ठगे जाते रहिएगा। ख़ून खौलता रहेगा और आपका बीपी तो ऊपर जाएगा लेकिन देश नहीं।
साभार – सुशांत सिन्हा (NDTV इंडिया में एसोसिएट एडिटर हैं)