जिस लाहोर नई देख्याजिस लाहोर नई देख्या का शुभारम्भ करते मुख्य अतिथिगण
फोटो : जयदेव भट्टाचार्य

त्रिलोचन भट्ट,

शुक्रवार की शाम देहरादून नगर निगम ऑडिटोरियम एक और शानदार प्रस्तुति का गवाह बना। दर्शकों से खचाखच भरे ऑडिटोरियम में संभव मंच परिवार ने जब असगर वजाहत द्वारा लिखित और अभिषेक मेंदोला द्वारा निर्देशित नाटक ‘जिस लाहौर नी वेख्या वो जम्या ही नईं’ प्रस्तुत किया तो लगातार तालियां बजती रही।

यूं तो यह नाटक अब तक विभिन्न नाट्य ग्रुपों द्वारा, अलग-अलग जगहों पर, हजारों बार मंचित किया जा चुका है लेकिन हर बार यह नाटक कुछ ना कुछ खास छोड़ने में सफल रहा है। मंच सज्जा, रूप सज्जा, संवाद अदायगी और कलाकारों की परिपक्वता आज एक बार फिर विभाजन की विभीषिका को जीवंत करने में सफल रही। सांप्रदायिक उन्माद में जकड़े आज के दौर में यह प्रस्तुति पूरी तरह समसामयिक प्रतीत हुई।

कुसुम पंत, नवनीत गैरोला, मिताली पुनेठा, कमल पाठक, भूपेंद्र तनेजा, राहत खान, प्रीति पटवाल, हिमांशु चौहान, राहुल जेवियर, आरती शाह, अभिनव चौहान, अनिल दत्त शर्मा, प्रदीप शर्मा, सार्थक नेगी, वर्णित, प्रशांत सक्सैना और अंकित चौहान ने शानदार अभिनय किया।

अंतराल के दौरान हेमा पंत, सतीश धौलाखंडी, सोनिया गैरोला, संजय गैरोला और अभिमन्यु मेंदोला की आवाज ने जादू बिखेरा। पर्दे के पीछे रहकर नीलम रतूड़ी, मोहित कुमार, सुरेंद्र भंडारी, अमिता आर्य, विजय शर्मा, अजय भटनागर, प्रेम कुमार, केतन प्रकाश, गीता गैरोला और अजय जोशी ने जो मेहनत की वह इस प्रस्तुति को साकार करने में सहायक सिद्ध हुई। समदर्शी भटनागर कहते हैं इस शानदार प्रस्तुति को देखने के बाद मैं लगातार इस सोच से गुजर रहा हूँ, कि आज के दौर में हमें मजहबों के बीच की दीवार को गिरा देने का काम करना है या तमाम मजहबों की झूठ की बुनियाद को ही खोद डालना चाहिए।

फोटो : जयदेव भट्टाचार्य

नैनीताल के वरिष्ठ रंगकर्मी जहूर आलम कहते हैं कि इस नाटक को करते हुए युगमंच को 25 साल हो गए हैं, लेकिन न करने वालों का दिल भरता है और न देखने वालों का।

कथानक

विभाजन के बाद लखनऊ का सिकंदर मिर्जा का परिवार लाहौर पहुंचता है। वहां उसे हिंदू परिवार द्वारा खाली की गई एक कोठी अलॉट की जाती है। मिर्जा परिवार जब कोठी में अपना नया घर बसा रहा होता है तो ऊपर के एक कमरे में आवाज आती है। पता चलता है कि परिवार की एक बुढ़िया, जिसे उम्मीद है कि उसका बेटा रतन लाल एक दिन जरूर लौट के आएगा, अभी भी वहां रह रही है जो अपने बेटे का इंतजार कर रही है। उसे अपने लाहोर से बे-इन्तहा प्यार है जिस कारण वह विभाजन हो जाने के बाद भी उस शहर- उस घर को छोड़ने से इंकार कर देती है, जिससे सिकंदर मिर्जा का परिवार परेशान हो जाता ह और वह बुढ़िया को घर से निकालने की योजना बनने लगते है, लेकिन मिर्जा परिवार जिसके अन्दर विभाजन का ‘तात्कालिक’ जहर भरा हुआ था वह समाप्त होता है उनके अन्दर की ‘स्वभाविक’ मानवता जागती है और वह उस बुढिया को अंगीकार कर लेते हैं धीरे धीरे बुढ़िया मिर्जा परिवार के साथ घुल-मिल जाती है। हालत ये हो जाते हैं कि उस बुढिया की सलाह के बिना सिकंदर मिर्जा के परिवार में कोई काम ही नहीं होता। एक दिन रतन की मां की मौत हो जाती है। सवाल उठता है। उसे जलाया जाए या दफनाया जाए। आखिर उसे हिंदू रीति के अनुसार जलाया जाता है। खुद सिकंदर मिर्जा मुखाग्नि देते हैं। नाटक में सभी पात्रों का अभिनय शानदार रहा विशेष रूप से उदारवादी मुस्लिम के रूप में कमल पाठक, मिर्जा के रोल में नवनीत गैरोला व् बुढिया के परिवेश में कुसुम पन्त,कट्टरपन्थ के रूप में पहलवान के किरदार को लोगों ने विशेष रूप से सराहा। कलाकारों की बेहतरीन रूपसज्जा के लिये वरिष्ठ रंगकर्मी व् निर्देशक श्री सुरेन्द्र भण्डारी का प्रमुख योगदान रहा ।

कार्यक्रम से पूर्व मेयर श्री सुनील उनियाल गामा, वरिष्ठ रंगकर्मी श्री गजेन्द्र वर्मा, एसपी ममगाईं, गीता गैरोला, बलराज नेगी और अनुज जोशी ने दीप प्रज्वलित कर कार्यक्रम का शुभारम्भ किया।