ऐतिहासिक घटनाएं व लोक संस्कृति पर्यटन की आत्मा होती है। मगर उत्तराखंड की सैर करने के लिए आने वाले देश-विदेश के पर्यटक उत्तराखंड की ऐतिहासिकता व लोक संस्कृति से अभी भी अंजान हैं। यहां के ऐतिहासिक मेले व ऐतिहासिक स्थलों को पर्यटन के मानचित्र पर अभी भी स्थान नहीं मिल पाया है। इन्हीं में एक है तिलाड़ी कांड, जो आज से 92 साल पहले यमुना के तट पर तिलाड़ी के मैदान में घटी थी।

यूरोप में ब्लैक टूरिज्म काफी तेजी से चल रहा है। जर्मनी में हिटलर की तानाशाही को भी वहां की सरकार ने ब्लैक टूरिज्म से जोड़ा है। ब्लैक टूरिज्म में ऐसी घटनाएं आती हैं। जिसमें जन संघर्ष एवं सामाजिक आंदोलनों में आमजन ने अपना बलिदान दिया हो। उत्तरकाशी के यमुना घाटी में भी इसी तरह की बलिदान की कहानी है। 30 मई 1930 में राजशाही से हक-हकूक बचाने को लेकर ग्रामीणों ने संघर्ष किया। यह संघर्ष यमुना तट पर तिलाड़ी नाम के मैदान में हुआ। तिलाड़ी मैदान में यमुना घाटी के ग्रामीण अपने जंगल से जुड़े हक-हकूक बचाने को बैठक कर रहे थे। इसी बैठक में राजशाही के नौकरशाह ने निहत्थे आंदोलनकारियों पर गोलियां बरसाई। हालांकि उस दौरान महाराजा मौके पर नहीं थे। इस गोलीकांड में 200 से अधिक ग्रामीणों ने बलिदान दिया तथा 100 से अधिक घायल हुए।

जन आंदोलनों में यह आंदोलन पर्वतीय क्षेत्र का पहला युगांतकारी आंदोलन था, लेकिन आज तक इस आंदोलन से उत्तराखंड के लोग भी सही ढंग से परिचित नहीं हैं। यहां आने वाले पर्यटक तो पूरी तरह अंजान हैं। अगर यही स्थिति रही तो हमारी आने वाली पीढ़ी भी इस ऐतिहासिक घटना से अंजान बनी रहेगी। भले ही स्थानीयजन तिलाड़ी मैदान में हर वर्ष 30 मई को एक मेला आयोजित करते हैं। पर, इस मेले को भी प्रसिद्धी नहीं मिल पाई है। जन विरोधी नीतियों के विरुद्ध आवाज उठा कर आमजन को उनके हक हकूक दिलाने के लिए बलिदान हुए बलिदानियों को याद रखने के लिए आज तक कोई ठोस प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। राज्य सरकार की ओर से भी तिलाड़ी के बालिदानियों को वह सम्मान नहीं मिल पाया जो मिलना चाहिए था। केवल 30 मई को बलिदान स्मारक पर श्रद्धांजलि देने तक कार्यक्रम सीमित हो गया है।

जंगलों से जुड़े अपने हकहकूकों की रक्षा के लिए 92 साल पहले किए गए आंदोलन और इसके दमन को याद कर क्षेत्र के ग्रामीण आज भी सिहर जाते हैं। 30 मई 1930 को टिहरी रियासत के अधिकारियों ने तिलाड़ी के मैदान में अपने हकहकूकों को लेकर पंचायत कर रहे सैकड़ों ग्रामीणों को गोलियों से भून डाला था। गोलियों से बचने के लिए भागे कई ग्रामीण यमुना नदी में बह गए थे। तिलाड़ी कांड को रवाईं ढंडक और गढ़वाल के जलियावाला बाग कांड के नाम से जाना जाता है। इससे 21 वर्ष 47 दिन पहले बैशाखी के दिन पंजाब में जालियांवाला बाग में भी अंग्रेजों से स्वतंत्रता की मांग को लेकर एकत्र हुए लोगों पर अंग्रेजी सैनिकों ने गोलियां बरसाई थी जिसमें 1800 से भी ज्यादा लोग मारे गए बताये जाते हैं, हालांकि आधिकारिक संख्या 379 थी। दोनों घटनाओं में अपने हक की आवाज बुलंद करने वाले मासूम लोग क्रूरता का शिकार बने।

आज इस घटना को आज पूरे 92 साल बीत चुके हैं, ब्रिटिश शासन काल में अंग्रेजी हुकूमत ने वन संपदा के दोहन के अधिकार अपने हाथ में ले लिए थे. इसी क्रम में टिहरी रियासत ने वर्ष 1885 में वन बंदोबस्त की प्रक्रिया शुरू की थी. वर्ष 1927 में रवाईं घाटी में भी वन बंदोबस्त लागू किया गया. इसमें ग्रामीणों के जंगलों से जुड़े हकहकूक समाप्त कर दिए गए थे. वन संपदा के प्रयोग पर टैक्स लगाया गया और पारंपरिक त्योहारों पर रोक लगा दी गई. एक गाय, एक भैंस और एक जोड़ी बैल से अधिक मवेशी रखने पर प्रति पशु एक रुपये वार्षिक टैक्स लगाया गया. इससे स्थानीय लोगों में रोष बढ़ने लगा था. लेकिन तिलाड़ी का गोली कांड आज भी यमुना घाटी के लोगों में सिहरन भर देता है। वन कानूनों को सुनिश्चित करने के लिए ग्रामीणों की शहादत ने आने वाले पीढि़यों में भी जोश भरा। रवांई परगना ही नहीं संपूर्ण रियासत में लोगों को वन अधिकार देने की मांग तेज हुई और जिसे आखिरकार राजा को भी मानना पड़ा।

दरअसल उपनिवेशी दबावों के चलते राज दरबार एवं जनता के बीच बदलते आर्थिक संबंधों ने रवाईं के किसानों की तकलीफ बढ़ाई। वे अपने ही संसाधनों से जब बेदखल कर दिए गए तो स्वाभाविक रूप से विरोध ही उनका अंतिम हथियार था। आज रवाईं की ढंडक कृषक संघर्ष का प्रतीक बन गई हैं और आने वाली पीढ़ी के लिए एक भावनात्मक प्रेरणा। खासकर युवा राजनीतिक-आंदोलनकारियों एवं राष्ट्रवादियों के लिए। आज एक बार फिर तिलाड़ी की घटना यह भी सोचने को मजबूर करती है कि अपने स्वार्थ के लिए राज्य अपनी प्रजा पर किस सीमा तक निर्दयी एवं निर्मम हो सकता है !

लेखक के निजी विचार हैं !

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला (दून विश्वविद्यालय)

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