डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला (दून विश्वविद्यालय)
उत्तराखंड के गाँधी कहलाये जाने वाले स्वर्गीय इन्द्रमणि बड़ोनी के जन्म दिवस के रूप में मनाया जाता है। जिन्होंने
उत्तराखण्ड पृथक राज्य आंदोलन का अहिंसात्मक नेतृत्व किया और अलग राज्य के लिए आन्दोलित उत्तराखंडियों को अभी दो आज दो-उत्तराखंड राज्य दो के नारे के साथ अपने करिश्माई व्यक्तित्व से एक सूत्र में बांध कर रखा। इन्द्रमणि बड़ोनी सामाजिक और राजनैतिक जीवन में पदार्पण से पहले गाँवों में आयोजित रामलीलाओं और नाटकों में खूब सक्रिय रहे। अपनी
सामाजिक और राजनैतिक प्रतिबद्धताओं के बाद भी उन्होंने रंगमंच से स्वयं को जोड़े रखा। लोक वाद्य, लोक साहित्य, लोक भाषा, लोक शिल्प और लोक संस्कृति के संरक्षण, संवर्द्धन और हस्तान्तरण के लिए वे सदैव प्रयत्नशील रहे। पुराने लोग उनका जिक्र आने पर उनकी दाढ़ी, उनकी आवाज, उनकी सादगी, उनकी फकीरी, लोक भोज्य- पदार्थों के प्रति उनकी चाह और लोक पहनावे में उनकी सजीला छवि का वर्णन करते नहीं अघाते।
इन्द्रमणि बडोनी जी का जन्म 24 दिसम्बर 1925 को टिहरी गढवाल के जखोली ब्लाक के अखोडी ग्राम में हुआ। उनके पिता का नाम श्री सुरेशानंद बडोनी था। अंग्रेजी शासन के खिलाफ संघर्ष में उतरने के साथ ही उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत हुई। अपने सत्याग्रहपूर्ण सिद्धांतों पर दृढ रहने वाले इन्द्रमणि बडोनी जी का जल्दी ही राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति करने वाले दलों से मोहभंग हो गया। इसलिए वह चुनाव भी निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में लडे और सन् 1967,1974,1977 में देवप्रयाग विधानसभा सीट से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीत कर उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य रहे। उत्तर प्रदेश में बनारसी दास गुप्त के मुख्यमंत्रित्व काल में वह पर्वतीय विकास परिषद के उपाध्यक्ष भी रहे थे। इन्द्रमणि बड़ोनी 1956 में जखोली विकासखंड के पहले ब्लॉक प्रमुख बने। इससे पहले वे गाँव के प्रधान थे। 1967 में निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर विजयी होकर देवप्रयाग विधानसभा सीट से उत्तरप्रदेश विधानसभा के सदस्य बने। 1969 में अखिल भारतीय कांग्रेस के चुनाव चिह्न दो बैलों की जोड़ी से वे दूसरी बार इसी सीट से विजयी हुए। तब प्रचार में ” बैल देश कु बड़ू भारी किसान, जोंका कंधो माँ च देश की आन ” ये पंक्तिया गाते थे।
1974 में वे ओल्ड कांग्रेस के प्रत्याशी के रूप में गोविन्द प्रसाद गैरोला जी से चुनाव हार गए। 1977 में एक बार फिर निर्दलीय के रूप में जीतकर तीसरी बार देवप्रयाग सीट से विधान सभा पहुंचे। 1980 में मध्यावधि चुनाव हुए पर वे चुनाव नहीं लड़े। 1989 में ब्रह्मदत्त जी के साथ सांसद का चुनाव वे हार गए थे। उन्होंने जगह -जगह स्कूल खोले। स्कूल के खर्चे उनके द्वारा बनायीं गई रंगमंच की टीम, नृत्य नाटिका, सांस्कृतिक गतिविधियों से प्राप्त धनराशि को विद्यालयों की मूल जरूरतों को पूर्ण करने एवं मान्यता प्राप्त कराने आदि पर खर्च किया जाता था। उनके द्वारा आरम्भ किये गए स्कूल आज खूब फल फूल रहे हैं। कई विद्यालय प्रान्तीयकृत भी हो चुके हैं। श्री इन्द्रमणि बडोनी जी को देवभूमि उत्तराखंड और अपनी संस्कृति के प्रति अगाध प्रेम था।
उत्तराखंड हिमालय भ्रमण के दौरान उन्होंने ही भिलंगना नदी के उद्गम स्थल खतलिंग ग्लेशियर को खोजा था। उनका सपना पहाड को आत्मनिर्भर राज्य बनाने का था और उन्ही के प्रयासों से इस क्षेत्र में दुर्लभ औषधियुक्त जडी बूटियों की बागवानी प्रारम्भ हुई। उनका सादा जीवन देवभूमि के संस्कारों का ही जीता-जागता नमूना था। वे चाहते थे कि इस पहाडी राज्य को यहां की भौगोलिक परिस्थिति व विशिष्ट सांस्कृतिक जीवन शैली के अनुरूप विकसित किया जाए।
वर्ष 1958 में राजपथ पर गणतंत्र दिवस के अवसर पर बडोनी जी ने केदार नृत्य की ऐसी कलात्मक प्रस्तुति की थी कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी उनके साथ थिरक उठे थे। युग पुरुष इन्द्रमणि बडोनी जी हिमालय के समान दृढ निश्चयी,गंगा के समान निर्मल हृदय,नदियों और हरे भरे जंगलों की भांतिपरोपकारी वृत्ति के महामानव थे। उत्तराखंड के इस सच्चे सपूत ने 72 वर्ष की उम्र में 1994 में राज्य निर्माण कीनिर्णायक लड़ाई लड़ी, जिसमें उनके अब तक के किये परिश्रम का प्रतिफल जनता के विशाल सहयोग के रूप में मिला।
बडोनी जी आंदोलन के दौरान गांधीवादी विचारों, सत्याग्रहपूर्ण सिद्धांतों और आंदोलन को नेतृत्व देने की अपनी विशिष्ट शैली के कारण स्वतंत्रता आंदोलन के पुरोधा बनकर एक क्रातिकारी नेता के रूप में भारतीय राजनीति में छाए रहे। वह अहिंसक आंदोलन के प्रबल समर्थक थे। उनके इसी क्रातिकारी व्यक्तित्व को रेखांकित करते हुए तब अमरीकी अखबार ‘वाशिंगटन पोस्ट’ ने स्व.इन्द्रमणि बडोनी जी को ‘पहाड के गॉधी’ की उपाधि दी थी। ‘वाशिंगटन पोस्ट’ ने लिखा था “उत्तराखण्ड आंदोलन के सूत्रधार इन्द्रमणि बडोनी की आंदोलन में उनकी भूमिका वैसी ही है जैसी आजादी के संघर्ष के दौरान ‘भारत छाड़ो’ आंदोलन में राष्ट्रपिता महात्मा गांधीवादी ने निभायी थी। जिसकी परिणति अंततः उत्तरांचल की स्थापना के रूप में हुई।
उत्तराखंड राज्य आन्दोलन पूरे पहाड में आग की तरह फैल चुका था। उत्तराखंड की सम्पूर्ण जनता अपने महानायक के पीछे लामबन्द हो गयी थी। बीबीसी ने तब कहा था, ‘‘यदि आपने जीवित एवं चलते फिरते गांधी को देखना है तो आप उत्तराखंड की धरती पर चले जायें। वहाँ गांधी आज भी अपनी उसी अहिंसक अन्दाज में विराट जन आंदोलनों का नेतृत्व कर रहा है।’’ बडोनी के अनोखे अंदाज से पूरे प्रदेश में उनकी ख्याति फैल गई और लोग उन्हें उत्तराखंड का गांधी कहने लगे । इस तरह वें उत्तराखंड का गांधी बने ।
उनके कार्यों एवं व्यक्तित्व को देखते हुए यह सम्मान कदाचित गलत नहीं है आज समय की मांग है कि इंद्रमणि
बडोनी जिस शिद्दत के साथ उत्तराखंड के लिए लड़े । उन्होंने जैसे उत्तराखंड का सपना देखा था जिस प्रकार से पहाड़
को विकास की ऊंचाइयों तक पहुंचते हुए देखना चाहते थे सरकारें उस दिशा में कार्य करें तो बेशक उत्तराखंड देश के
अग्रणी राज्यों में शुमार हो सकता है । राज्य निर्माण आंदोलन और उनके पर्वतीय विकास की संकल्पना के योगदान
को कभी भुलाया नहीं जा सकता है।