समझिये निजीकरण के प्रभाव को

वर्तमान में निजीकरण अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अर्थनीति का एक अभिन्न अंग बन चुका है। कुछ वर्षों पूर्व तक जो देश पूर्ण राजकीय स्वामित्व वाली केन्द्र नियोजित अर्थव्यवस्था चला रहे थे उन देशों में भी निजीकरण की प्रक्रिया जोर पकड़ने लगी है, क्योंकि राजकीय स्वामित्व और केन्द्र नियोजित अर्थव्यवस्था असफल साबित हुई और उन देशों की आर्थिक बदहाली के कारण के रूप में इन्हें देखा जाने लगा। सरकारी स्वामित्व और नियंत्रण वाले व्यवसाय और उद्योग के सम्बन्ध में भारत जैसे मिश्रित अर्थव्यवस्था वाले देश का अनुभव भी अच्छा नहीं रहा।
लोकतांत्रिक देशों में सरकारों का गठन होता है देश को सही तरीके से चलाने के लिए। अक्सर सरकार अपने कर्तव्यों का निर्वाह करती भी है लेकिन सही नीतियों के अभाव में अक्सर ऐसी योजनाओं या कानूनों का अनुपालन होता है, जो किसी भी प्रकार से युक्तिसंगत नहीं होतीं। अक्सर कहा जाता है सरकारों का काम ब्रेड बटर बनाना या बेचना नहीं है। आदर्श रूप में सरकारों से हम निष्पक्ष नीति निर्माता या निगरानी संस्थान के रूप में देखना पसंद करते हैं। देश की आज़ादी के 70 सालों के दौरान, हमारी सरकारों ने गरीबी, अशिक्षा और बेरोज़गारी को रोकने के लिए तमाम तरह के उपाय किए लेकिन उनके सभी प्रयासों में कितनी सफलता मिली, ये बात सिर्फ कागज के आंकड़ो में ही अच्छी लगती है।
स्वतंत्रता के बाद से स्कूल, एयरलाइन, बीमा, डाक, आवास, बैंकिंग, गैस और अन्य क्षेत्रों में सरकार का वर्चस्व रहा अभी भी इनमें से अधिकांश क्षेत्रों में सरकार की दखलंदाज़ी है। याद कीजिए 90 का दशक, जब सरकार ब्रेड निर्माण में भी सक्रिय थी। क्या सरकारीकरण से लोगों की समस्याओं का हल निकल पाया? लोगों को रोजमर्रा की समस्याओं से उदारीकरण और बाज़ारवाद की संभावनाओं के बीच निजात मिली? एक ज़माने में टेलीफोन के कनेक्शन के लिए या स्‍कूटर बुक करने के लिए मंत्री से संत्री तक की सिफारिश लगानी पड़ती थी तब जाकर सालों का काम महीनों में होता था। गैस और ऐसी अन्य सेवाओं का भी कमोबेश यही हाल हुआ करता था। लेकिन क्या आज भी ऐसा होता है?
एक बात और ‘लाईनों में लगना’ जो शायद आज के युवा वर्ग के लिये आश्चर्य की बात होगी लेकिन ये हमारा भूतकाल रहा है जहां हर चीज़ के लिए लाइन में लगना जरूरी था। लेकिन सच मानिए सरकार ने जिस किसी भी क्षेत्र में कदम रखा वहाँ लाईनों में लगे लगे लोगों का बुढ़ापा आ गया। जबकि आज कितनी आसानी से गैस, मोबाइल कनेक्शन, पसंदीदा गाड़ी, अच्छा स्कूल, अच्छा स्वास्थ्य अच्छा होटल कुछ भी आप ले सकते हैं। अब होटल की बात है तो जरा याद करें, दिल्लीे एयरपोर्ट के पास सरकारी नियंत्रण में ‘सेंटूर होटल’ हुआ करता था जिसकी इतनी दुर्दशा हुई कि सरकार को आखिरकार उसको बेचना पड़ा। इसी तरह सरकारी क्षेत्र की दूरभाष और विमानन कम्पनियों की दुर्गति और स्तरहीन सेवाओं के बारे में पूरे विश्व को पता हैै। आज ये सफ़ेद हाथी से अधिक कुछ नहीं जिस पर आम जनता की मेहनत की कमाई से जुटाए टेक्स को बर्बाद किया जाता है। विमानन कंपनी एयर इंडिया पर हर साल करोड़ों रुपए की बर्बादी होती है, उसका घाटा पूरा करने के लिए कभी सब्सिडी तो कभी छूट दी जाती है, फिर भी इसका घाटा आसमान छूता रहता है और जब से इसकी प्रतियोगिता में बाजार में निजी विमानन कंपनियां आई हैं वो बहुत कम दाम पर भी बेहतर सेवा देने का वादा करती हैं।
आज, सरकारी स्कूलों में वो सब सुविधाएं हैं जो शिक्षा के अधिकार कानून के तहत तय हुए हैं, बिल्डिंग हैं, स्पोर्ट्स ग्राउंड, लाइब्रेरी, कहीं-कहीं तो स्वीमिंग पूल भी है, नहीं है तो सिर्फ योग्य शिक्षक और अच्छी पढाई करवाने का वातावरण लेकिन बड़े प्राइवेट स्कूलों में भी ये सभी सुविधाएं हैं साथ ही पढ़ाई भी अच्छी है सिर्फ महंगी है तो केवल फीस। ऐसे कितने सरकारी स्कूल हैं जिनसे अभिभावक संतुष्ट हो शायद गिनेचुने या फिर केंद्रीय विद्यालय जैसे संस्थान जहां सरकार की मनमानी सीमित है इसलिए वहां गुणवत्ता प्रभावित नहीं होती। सरकार शिक्षा के लिए नीति भी बनाती है, निगरानी भी करती है और उसी के स्कूल भी है, शायद इसीलिए शिक्षा हाशिए पर है क्योंकि आप दूसरे स्कूलों के पनपने में कहीं न कहीं जाने-अनजाने अवरोधक का काम कर रहे हैं।
21वीं सदी की शुरुआत में देखिए जहां-जहां निजी क्षेत्र ने कदम बढ़ाए हैं लोगों की परेशानियां कम हुई हैं उनकी ज़िंदगी बेहतर हुई हैं, सेवाएं उनको घर बैठे मिल रही हैं और वो पूरी तरह संतुष्‍ट हैं जैसे बीमा, निर्माण क्षेत्र, आवास, बैंक, दूरसंचार, मनोरंजन कहीं भी नज़र दौड़ा लीजिए लेकिन अभी इस दायरे को और अधिक बढ़ाने की जरूरत है, बाकी के बचे क्षेत्रों में निजी क्षेत्र की अपार संभावनाओं को तलाशने की जरूरत है। लेकिन ये तभी संभव है जब सरकार निष्पक्ष ढंग से व्यवहार करे, नीति निर्माता बने, नियामक संस्थान की हैसियत से निगरानी भी करे लेकिन खुद इसका हिस्सा न बने। आज पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप यानि पीपीपी मॉडल के तहत सड़क, रेल, आधारभूत संरचना के निर्माण बदलाव की शुरुआत हो चुकी है, लेकिन अभी भी बहुत दूर तक चलना बाकी है।
अब मुद्दे की बात, एक नज़र से यदि हम देखें तो मालूम होता है कि स्वतंत्र बाजार वाली अर्थव्यवस्था में विश्वास करने वाले देशों में पहले से ही निजी क्षेत्र की प्रमुखता थी। फिर भी कृषि, उद्योग एवं सेवा-क्षेत्र का जो हिस्सा सरकारी नियंत्रण मे था उनसे अपेक्षित परिणाम हासिल नहीं हुए और उन्हें निजी क्षेत्र के हवाले करना पड़ा। मेरी राय में, सरकार को मुनाफे वाले सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण पर भी गौर करना चाहिए, केवल घाटे वाले उपक्रमों को बेचने की बात नहीं होनी चाहिए। उदारीकरण के अर्न्तगत व्यापार, उद्योग एवं निवेश पर लगे ऐसे प्रतिबंधों को समाप्त किया जा रहा है, जिनके फलस्वरूप व्यापार, उद्योग एवं निवेश के स्वतंत्र प्रवाह में बाधा उत्पन्न होती है। प्रतिबंधों को समाप्त करने के अतिरिक्त विभिन्न करों में रियायत सीमा शुल्कों में कटौती तथा मात्रात्मक प्रतिबधो को समाप्त करने जैसे उपाय भी किए जा रहे हैं।
निजीकरण का अभिप्राय यह है कि आर्थिक क्रियाओं में सरकारी हस्तक्षेप को उत्तरोत्तर कम किया जाए, प्रेरणा और प्रतिस्पर्धा पर आधारित निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित किया जाए, सरकारी खजाने पर बोझ बन चुके अलाभकारी सरकारी प्रतिष्ठानों को विक्रय अथवा विनिवेश के माध्यम से निजी स्वामित्व एवं नियंत्रण को सौंप दिया जाए, प्रबन्ध की कुशलता को बनाये रखने के लिए सरकारी प्रतिष्ठानों में निजी निवेशकों की सहभागिता बढायी जाय और नये व्यावसायिक एवं औद्योगिक प्रतिष्ठानों की स्थापना करते समय निजी क्षेत्र को उचित प्राथमिकता दी जाये।
एक खास बात, आखिर हमारी सार्वजानिक कम्पनियाँ घाटे में क्यों रहती हैं? के जबाब में, सरकारी विभागों में अफसरों और उनकी कार्य प्रणाली की कुछ सर्वविदित खास बातों को बिन्दु रूप देना चाहूँगा –

* स्थापित और पारम्परिक मानदंडों की उपेक्षा करते हुए बड़े लोगों के चहेतों को विभिन्न पदों पर नियुक्त करने के कारण प्रबन्ध और संचालन अकुशल हाथों में चला गया।

* छोटे-बड़े क्रयों विक्रयों एवं अन्यअनुबंधों में रिश्वतखोरी का बोलबाला रहा।

* सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की मोटरगाडी, हवाई जहाज और अतिथिगहों का निजी प्रयोजनों के लिए प्रयोग किया गया और इनके प्रचार साधनों का दुरुपयोग होता रहा।

* आर्थिक एवं तकनीकी कारकों की अवहेलना करके प्रभावशाली राजनेताओं के राजीनतिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए उनके चुनाव क्षेत्रों में प्रतिष्ठानों की स्थापना को तरजीह दी गई।

* मानवीय स्पर्श तथा सामाजिक उद्देश्यों को अत्यधिक महत्व दिया गया और आर्थिक यथार्थ की उपेक्षा की गई।

* नये आर्थिक वातावरण के व्यवसाय, वित्त और विपणन के क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा की क्षमता विकसित करने में ये प्रतिष्ठान सफल नहीं हो पाये।

* मूल्यवान संसाधनों के उचित प्रयोग के वजाय दुरुपयोग किया जाना। अत्यधिक नियंत्रण एवं नियमन लेकिन प्रबंधकीय उत्तरदायित्व की कमी का होना।

         आज, भारत में निजीकरण को अर्थव्यवस्था के लिए संजीवनी बूटी कहा जा रहा है किन्तु इस नीति के अगुवा रहे ब्रिटेन की जनता का इससे मोहभंग होने लगा है, पिछले दिनों ब्रिटेन में लेबर पार्टी के नेता जेरेमी कॉर्बिन ने ब्रिटिश रेलवे का फिर से राष्ट्रीयकरण करने की संभावना टटोलने की बात कही थी। फिर देश के बिजली क्षेत्र के बारे में भी उन्होंने यही राय जताई तो उनका यह कहकर विरोध किया गया कि वे अतीत में वापस लौटने की बात कर रहे हैं, हालांकि यह सिर्फ उनकी राय नहीं है ब्रिटेन की बहुसंख्यक आबादी आज कुछ इसी तरह से सोचती है क्योंकि योर गवर्नमेंट पोल्स के एक सर्वे के मुताबिक वहाँ की दो-तिहाई आबादी रेलवे और बिजली क्षेत्र के राष्ट्रीयकरण का समर्थन करती है।
आज हमारे देश में अर्थ व्यवस्था जिस दौर में है उसमें प्रतिस्पर्धा है, एक प्रकार से सरकारी नियंत्रण से मुक्ति है, केवल लाभ और हानि ही सब कुछ हैं जिन्हें हमारी सामाजिक दायित्वों से मुह मोड़ती व्यवस्था ने सब कुछ बाजार की निजी ताकतों पर छोड़ दिया गया है। ऐसे में यदि निजी क्षेत्र बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ती करने का जिम्मा उठाता है तो उसके लिए सामाजिक लक्ष्य हासिल करना कोई जिम्मेदारी नहीं होगी बल्कि वह तोे इन सब में भी मुनाफा ही कमाना चाहता है, और इसको रोकना शायद संभव भी नहीं है।

अंत में यहाँ, शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण पर किसी कवि की कुछ लाइनें लिखना चाहता हूँ –

शिक्षा बेचारी है
चिंता न करें …

आज हमारी तो कल सबकी बारी है

नालंदा, तक्षशिला की बर्बादी जैसी साजिश हुईं,

स्कूल सरकारी है
गली, मुहल्ले, कूचों में दो कमरों में स्कूल!

मान्यता नीति न्यारी है…

साभार – शैलेन्द्र भट्ट,