ऐसे में कैसे करें ‘निशंक’ पर यकीन ?
देश में नयी शिक्षा नीति को लेकर विमर्श का दौर चल रहा है । सरकार नयी नीति का मसौदा तैयार कर उस पर सुझाव मांग रही है । एक ओर इस मसौदे के तमाम प्राविधानों पर गंभीर सवाल भी उठ रहे हैं तो केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखिरयाल ‘निशंक’ इसे बुनियादी बदलाव वाला बता रहे हैं । इसका जिक्र इन दिनों वह अपने तकरीबन हर संबोधन में कर रहे हैं । यह सही है कि शिक्षा नीति के मसौदे में बहुत कुछ अच्छा भी है, खासकर निजी संस्थानों की मनमानी पर नियंत्रण की बात काफी अहम है । मगर सवाल यह कि ‘निशंक’ की बातों पर यकीन कैसे किया जाए ? शिक्षा नीति के मसौदे की धज्जियां तो खुद मानव संसाधन विकास मंत्री निशंक के अपने ‘घर’ में ही उड़ रही हैं ।

जिस प्रदेश में वह मुख्यमंत्री रहे, जहां से वह सांसद हैं, वहां आयुर्वेदिक मेडिकल कालेजों के छात्र पढ़ाई के बजाय न्यायालय के चक्कर काटने और सड़कों पर धक्के खाने को मजबूर हैं । निजी कालेजों की मनमानी से तंग छात्र और अभिभावक सरकार से गुहार लगा रहे हैं, मगर देहरादून से दिल्ली तक उनकी कोई सुनवाई नहीं है । सैकड़ों छात्रों का भविष्य बर्बादी की कगार पर है फिर भी निजी आयुर्वेदिक मेडिकल कालेज अराजक बने हुए हैं । इन कालेजों को न तो सरकार और विश्वविद्यालय का भय है और न ही न्यायालय की परवाह ।

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अराजकता का आलम यह है कि कालेजों के संचालक विश्वविद्यालय को तो ठेंगे पर रखे ही हुए हैं, उच्च न्यायालय नैनीताल के आदेश भी मानने को तैयार नहीं हैं । न्याय हक की बात करने वाले छात्रों और उनके अभिभावकों को खुलेआम धमकाया जा रहा है, छात्रों का भविष्य बर्बाद करने का भय दिखाया जा रहा है । आश्चर्य देखिए, जीरो टालरेंस और सुशासन की बात करने वाली डबल इंजन सरकार भी ‘मौन’ है और शिक्षा में बदलाव की बात करने वाले मंत्री भी ।

कहते हैं न ‘बात निकलेगी तो दूर तक तो जाएगी’ यह किस्सा भी कुछ ऐसा ही है । सवाल दरअसल शिक्षा नीति का नहीं, सवाल नीति बनाने और उसे लागू कराने कराने वालों का है । जिस तरह राज्य के निजी आयुर्वेदिक मेडिकल कालेज उत्तराखंड में खुलेआम ‘गुंडई’ पर उतरे हैं और सरकार मौन है, उसे देखकर तो कतई नहीं लगता कि छात्रों के भविष्य और शिक्षा व्यवस्था की किसी को परवाह भी है । मनमानी देखिए कि राज्य के निजी आयुर्वेदिक मेडिकल कालेज साढ़े चार साल के कोर्स में छात्रों से पांच साल की फीस लेते हैं, गैर कानूनी तरीके से शुल्क वृद्धि कराते हैं और उसे भी बैक डेट से लागू कर देते हैं ।

हालत यह है कि अधिकांश संस्थानों में पढ़ाने के लिए न फैकल्टी पूरी है और न दूसरी जरूरी व्यवस्था । छात्र और अभिभावक न्याय की बात करते हैं तो उन्हें कहा जाता है कि ‘जहां जा सकते हो जाओ, उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा’ । हक की बात करने वाले छात्रों को चर्चित व्यापम घोटाले के हश्र का उदाहरण देकर डराया जाता है । राजनैतिक पकड़ की धौंस देते हुए भविष्य बिगाड़ने की धमकी दी जाती है ।

दरअसल इन संस्थानों का मकसद शिक्षा नहीं सिर्फ व्यवसाय है, यह हकीकत किसी से छिपी नहीं है । बीस साल में प्रदेश में ऐसे निजी संस्थानों की संख्या सोलह तक पहुंच चुकी है । हाल ही में यह खबर भी आयी है कि प्रदेश के कई कालेजों को इस साल सीसीआईएम यानी सेंट्रल काउंसिल आफ इंडियन मेडिसिन ने मान्यता नहीं दी है । जिसमें प्रदेश के बड़े नेताओं से जुड़े कालेज भी शामिल हैं ।

बहुत से लोगों को याद होगा कि राज्य बनने के कुछ समय पहले तक फर्जी माने जाने वाले आयुर्वेदिक कालेज मात्र दो दशक में उत्तराखंड में बड़ा साम्राज्य खड़ा कर चुके हैं ।अब तो देखादेखी कई और कालेज खड़े हो गए । आयुर्वेदिक के साथ ही होम्योपैथ और यूनानी कालेज भी खुलने लगे हैं । कोई भी निजी कालेज मानकों पर नहीं है, सोसायटी या ट्रस्ट की आड़ में चल रहे ये कालेज सिर्फ व्यावसायिक अड्डे बने हुए हैं । जहां डाक्टरी की पढ़ाई के नाम अभिभावकों से मोटी वसूली तो होती है मगर न पढ़ाई है और न माहौल ।

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खैर इन सब पर तथ्यों के साथ फिर कभी, अभी तो मसला यह है कि निजी आयुर्वेदिक कालेजों की मनमानी सीमाएं क्यों पार कर रही है । बीते दिनों न्याय की मांग कर रहे इन छात्रों पर पुलिस का कहर भी बरसा । कई छात्र गंभीर रूप से घायल हैं तो कई चोटिल हैं । आखिर क्या अपराध है उनका ? क्या यह कि वे निजी संस्थानों की मनमानी और अराजकता के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं ?

मसला यह है कि वर्ष 2015 में इन कालेजों की फीस अचानक 80 हजार रुपये से बढ़ाकर 2 लाख 15 हजार कर दी गयी थी । यह शुल्क वृद्धि पिछली तिथि से लागू कर दी गयी । बताते चलें कि अचानक हुई यह शुल्क वृद्धि शुल्क निर्धारण समिति की सिफारिश पर नहीं हुई थी, छात्रों और अभिभावकों ने इसका विरोध भी किया मगर कहीं कोई सुनवाई नहीं हुई ।

हिमालय आयुर्वेदिक मेडिकल कालेज के कुछ छात्र इसके खिलाफ न्यायालय पहुंचे तो न्यायालय ने पहले शुल्क वृद्धि पर रोक लगायी और उसके बाद अंतिम निर्णय देते हुए शासनादेश को रद्द भी कर दिया । यही नहीं उच्च न्यायालय ने छात्रों के साथ न्याय करते हुए कालेजों को बढ़ा हुआ शुल्क लौटाने के निर्देश भी दिये । आश्चर्यजनक यह रहा कि कालेजों के संचालक सिंगल बेंच के इस फैसले पर अमल करने के बजाय फैसले के खिलाफ डबल बेंच में अपील में चले गए । डबल बेंच ने भी पूर्व के आदेश को सही ठहराया और चार दिन के भीतर कोलजों को बढ़ा शुल्क वापस करने को कहा ।

अब यहां से शुरू होती है आयुर्वेदिक कालेजों की गुंडई । अक्टूबर 2018 में स्पष्ट फैसला हो जाने के बावजूद कालेजों ने उच्च न्यायालय के आदेश पर अमल नहीं किया, उल्टा छात्रों और अभिभावकों का उत्पीड़न शुरू कर दिया । छात्रों के पास तमाम कालेजों में छात्रों का उत्पीड़न किये जाने संबंधी स्टिंग हैं, जिनमें कालेजों के संचालक अपनी सियासी ताकत की धौंस देते हुए बदसलूकी कर रहे हैं । कालेज संचालकों से डरे छात्र इन स्टिंगों को सार्वजनिक करने से भी डर रहे हैं । वे अपने भविष्य का लेकर चिंतित हैं । मजबूर छात्र अपने हक के लिए, न्याय के लिए लगातार विश्वविद्यालय से लेकर सरकार तक गुहार लगा रहे हैं ।

नाम सार्वजनिक न करने का अनुरोध करते हुए एक छात्र का कहना है कि बाहर साफ और सौम्य छवि दिखाने वाले कालेज संचालक कालेज में खलनायक के अंदाज में पेश आते हैं ।दरअसल कुछ तो है जो कि निजी कालेज अराजक बने हैं । शासन प्रशासन आयुर्वेद विश्वविद्यालय को कार्यवाही के लिए लिखता है, विश्वविद्यालय भी कालेजों को कई बार उच्च न्यायालय के आदेश पर अमल करने को लिख चुका है । मगर न्यायालय से लेकर विश्वविद्यालय तक का हर आदेश इन कालेजों में पहुंचकर दम तोड़ देता है । बात इतनी आगे बढ़ चुकी है कि जिन छात्रों के लिए एक-एक दिन कीमती है वे सड़क पर भूख हड़ताल और आमरण अनशन पर बैठने को मजबूर हैं, कोई आत्मदाह की कोशिश कर रहा है ।

दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इतना सबकुछ होने के बावजूद सरकार संवेदनहीन बनी हुई है । सवाल यह है कि आखिर क्यों ? क्या इसलिए कि सोसायटी और ट्रस्ट की आड़ में चलने वाले इन कालेजों के असल मालिक बड़े राजनेता और अफसर हैं ?
बात नई शिक्षा नीति के ध्वजवाहक मानव संसाधन विकास मंत्री निशंक से शुरू हुई थी । सवाल उठता है कि उनका इससे क्या संबंध है ? संबंध है, और बहुत गहरा संबंध है । जिन कालेजों की बात हो रही है उनमें कुछ एक के साथ मानव संसाधन विकास मंत्री का सीधा संबंध है । उनसे संबंधित कालेज के संचालकों का व्यवहार छात्रों और अभिभावकों के साथ कतई ठीक नहीं है ।

निसंदेह निशंक आज अपने आप में बड़ी राजनैतिक ताकत हैं, उनसे अब प्रदेश ही नहीं देश को भी बड़ी उम्मीदें हैं । वह चाहते तो बात कतई इतनी आगे नहीं बढ़ती, कालेजों के अंदर की बात निकलकर आज चौराहों पर नहीं आती । मगर नहीं, वह तो सब कुछ जानते हुए भी कालेज संचालकों की ताकत बने हुए हैं । यह भी सही है कि आज निशंक निजी कालेजों की अकेले ताकत नहीं हैं, प्रदेश सरकार के कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत और योग गुरू रामदेव भी इसी फेहरिस्त में शामिल हैं । निजी आयुर्वेदिक कालेजों से इन तीनों का तकरीबन एक जैसा ही सीधा संबंध है ।

विडंबना देखिए, निशंक केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री हैं तो हरक सिंह राज्य के आयुष मंत्री हैं, आयुर्वेदिक चिकित्सा शिक्षा उन्हीं के अधीन है । जिस आयुष मंत्रालय को छात्रों की समस्या का समाधान करना और उन्हें न्याय दिलाना था, आज वही आयुष मंत्रालय निजी कालेजों की मनमानी को ‘शह’ दे रहा है । यही कारण है कि सरकार मौन है, न्याय की मांग कर रहे छात्रों और अभिभावकों का दमन हो रहा है ।

अपनी जायज मांगो को लेकर सड़क पर उतरे आयुष के छात्रो पर हुए लाठी चार्ज पर कामरेड इंद्रेश का लेख पड़ने के लिए – यहाँ क्लिक करें ।

स्थिति बेहद गंभीर है । सवाल यह है कि जो खुद से जुड़े कालेजों में छात्रों के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं, उनसे क्या किसी पारदर्शी और पाक साफ नीति की उम्मीद की जा सकती है ? जो निजी हितों से ऊपर न उठ पा रहे हों, क्या उनसे यह उम्मीद की जा सकती है कि वे देश या प्रदेश के लिए कुछ अच्छा सोच या कर पाएंगे ? शायद नहीं, कभी नहीं । इसीलिए सवाल सिर्फ व्यक्तिगत ‘निशंक’ पर ही नहीं शिक्षा नीति के मसौदे पर भी है । कैसे यकीन किया जाए दोनों पर ?

अंत में ‘निशंक’ और हरक सिंह रावत से सिर्फ इतना ही कि निजी कालेज जनता के भरोसे और उम्मीदों से बड़े नहीं हैं, निजी कालेजों से होने वाली कमाई सियासी और सामाजिक प्रतिष्ठा के आगे कुछ भी नहीं है । सोचिए…खूब सोचिए…गहराई से सोचिए और फिर ‘नतीजे’ पर पहुंचिए ।

साभार -योगेश भट्ट वरिष्ठ पत्रकार