374 वर्षों से यहाँ होली के दिन पसरा रहता है गहरा सन्नाटा
देहरादून, 6 मार्च : जहाँ पूरा देश होली के रंगों में सराबोर होने की तैयारी में है। हर तरफ होली की धूम मची हुई है। उत्तराखंड में भी जगह-जगह होलियार लोकगीतों के साथ होली गाते हुए रैलियां निकाल रहे है। खड़ी और बैठकी होली का आयोजन किया जा रहा है। घर-घर मे गुजिया और तमाम तरह के पकवान की खुशबु से महक रहे हैं। वहीँ उत्तराखंड के कई गांव ऐसे भी हैं जहां रंगों का यह त्योहार नहीं मनाया जाता। आइये जानते हैं कहाँ हैं ये गांव और क्या है इनकी कहानी ?
गढ़वाल के #रुद्रप्रयाग जिले के क्विलि, क़ुर्झण और जौंदला तीन गांव जो आपस में एक-दूसरे से सटे हुए है और यह होली से कोसों दूर है। लोकेशन की बात करे तो ये तीनो गांवों बद्रीनाथ नेशनल हाईवे पर रुद्रप्रयाग से कुछ ही दूरी पर स्थित घोलतीर कस्बे के ठीक सामने दाईं ओर बसे है।यहां ज़्यादातर अनुसूचित जाति और राजपूत समाज के लोग रहते है। इन गांवों में विगत 374 वर्षों से देवी के कोप के डर से अबीर गुलाल नहीं उड़ाया गया है। बताया जाता है कि तीन सदी पहले कश्मीर से कुछ पुरोहित परिवार इन गांवों में आकर बस गये थे। तीन सदी पहले जब ये गांव यहां बसे थे तब यह अपने साथ अपनी इष्ट देवी मां त्रिपुरा सुंदरी की मूर्ति व् पूजा सामग्री भी लाये थे जिसे यह लोग माता “वैष्णो देवी” की बहन मानते हैं। इनका मानना है कि गांव की इष्टदेवी मां त्रिपुरा सुंदरी को होली पर हुड़दंग पसन्द नही है। इसीलिए यहाँ होली प्रतिबंधित है। कई साल पहले किसी ने नियम तोड़ने की कोशिश की थी उसी साल यहां महामारी फैल गयी, जिसमें कई लोगों की जान चली गयी थी। इसके बाद भी यहाँ कई बार होली खेलने का प्रयास किया गया मगर उसके बाद कुछ न कुछ अनहोनी हो गई। जिसके बाद लोगों ने इसे देवी का कोप मानते हुए फिर कभी गांवों में होली का त्योहार नहीं मनाया।
राज्य के सीमांत जिले पिथौरागढ़ के धारचूला, मुनस्यारी और डीडीहाट के करीब सौ गांवों में होली नहीं मनाई जाती है। यहां होली मनाना अपशकुन माना जाता है। इन सबके होली न मनाने के अलग-अलग कारण हैं।
धारचूला के रांथी, जुम्मा, खेला, खेत, स्यांकुरी, गर्गुवा, जम्कू, गलाती सहित कई अन्य लोग शिव के पावन स्थल गांव छिपला-केदार को अपना आराध्य मानते हैं ,यह लोग भी होली नहीं मनाते हैं। यहाँ के स्थानीय लोगों का कहना है कि उनके पूर्वजों के अनुसार शिव की भूमि पर रंगों का प्रचलन नहीं होता है और वह लोग आज तक इसी परंपरा का पालन कर रहें हैं।
चीन और नेपाल सीमा से लगे मुनस्यारी के चैना, पापड़ी, मालूपाती, हरकोट, मल्ला घोरपट्टा, तल्ला घोरपट्टा, माणीटुंडी, पैकुटी, फाफा, वादनी सहित कई गांवों में होली नहीं मनाई जाती है। किसी अनहोनी की आशंका में यहां के ग्रामीण होली नहीं मनाते हैं। चीन और नेपाल सीमा से लगे इन गांवों में होली की धूम की जगह गहरा सन्नाटा पसरा छाया रहता है। पुराने समय से यहां मिथक चला आ रहा है, जिस कारण यहां होली मनाना वर्जित है। स्थानीय लोगों की मानें तो एक बार होल्यार देवी के प्रसिद्ध भराड़ी मंदिर में होली खेलने जा रहे थे। तब सांपों ने उनका रास्ता रोक दिया। इसके बाद जो भी यहाँ होली का महंत बनता था या फिर होली गाता था तो उसके परिवार में कुछ न कुछ अनहोनी हो जाती थी। तब से यहां होली नहीं मनाई जाती .
इस #डीडीहाट तहसील के लगभग 100 गांवों में होली मनाने पर अपशकुन माना जाता है। दूनाकोट घाटी, आटाबीसी और बाराबीसी पट्टी गांवों में लोग में यह मिथक प्रचलित है कि उनकी होली की चीर मथुरा से लाई गई थी, जो चोरी हो गई थी। जिसके बाद से वह सिर्फ आठूं का पर्व मनाते है, जो कि सितम्बर माह में मनाया जाता है। इन गांवों वालों का मानना है कि जिन गांवों में आठूं का पर्व मनाया जाता है वहां होली नहीं मनाई जाती। इसलिए होली के त्योहार में जब अन्य गांवों में गीत, नृत्य की धूम रहती है, तब जौरासी से लेकर चर्मा तक और उस तरफ लखतीगांव, सौगांव तक के गांवों में होली को लेकर लोगों में कोई उत्साह, उमंग नहीं दिखता। इन गांवों में सन्नाटा पसरा रहता है। ये गांव चीर बंधन, होली गायन से इन गांवों के लोग काफी दूर रहते हैं व रंग और अबीर से खेलने में भी परहेज करते हैं। दूनाकोट घाटी में लोग होली के संगीत और साहित्य के बारे में कुछ नहीं जानते। यहां के लोगों का कहना है कि वह आठूं का पर्व धूमधाम से मनाते हैं। आठूं इन गांवों में एक माह तक भी मनाया जाता है।
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