इन ऐतिहासिक धरोहरों पर मंडरा रहा है खतरा।
मध्य हिमालय उत्तराखंड के पर्वतीय भू-भाग मे अनेक उद्यान व बगान ऐतिहासिक धरोहर के रूप में विख्यात रहे हैं। अवलोकन कर ज्ञात होता है, उक्त उद्यान व बगानो की प्रायोगिक शुरुआत, अनुभव के आधार पर, ब्रिटिश हुक्मरानों द्वारा की गई थी। स्थापित उद्यान व बगानों ने मध्य हिमालय उत्तराखंड की प्राकृतिक छटा को ही नही निखारा बल्कि उनसे उत्पादित फल, चाय इत्यादि के उत्पादन से ब्रिटिश हुक्मरानों ने अपनी इच्छित स्वाद पूर्ति के साथ-साथ भरपूर धन लाभ अर्जित कर ब्रिटिश साम्राज्य को आर्थिक समृद्धि भी प्रदान की थी। बेरीनाग मे 300 एकड़ मे पहली चाय नर्सरी 1835 मे तथा देहरादून की बात करे तो, 1844 कौलागढ़ मे 400 एकड़ मे चाय बगान स्थापित किया गया था। असम के बाद वैश्विक फलक पर देहरादून के 1700 एकड़ मे उत्पादित चाय विख्यात थी। इनमे तीन लाख पौंड चाय उत्पादित होती थी। प्राप्त आंकड़ो के मुताबिक सन 1880 तक 10,937 एकड़ क्षेत्र मे कुल 63 चाय बागान, ब्रिटिश हुक्मरान मध्य हिमालय उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र मे स्थापित कर चुके थे। जिसमे 27 प्रमुख चाय बागान थे।
प्राप्त आंकडो के मुताबिक, सन 1897 मे मध्य हिमालय उत्तराखंड का चाय उत्पादन आंकड़ा 17,10,000 पाऊंड था। शीतोष्ण फलों के प्रथम उद्यान व फल शोध केंद्र की स्थापना ब्रिटिश हुक्मरानों द्वारा, 235 हैक्टेयर भूमि मे, सन 1932, चौबटिया, रानीखेत मे स्थापित किया गया था।देश को मिली आजादी के पश्चात, स्थापित इन उद्यान व बगानों से देश-प्रदेश की अर्थव्यवस्था को मजबूत आधार व स्थानीय स्तर पर लोगों को रोजगार के साथ ही पारिस्थतिकी के संतुलन संरक्षण, शुद्ध पर्यावरण तथा जन स्वास्थ्य की दृष्टि से उद्यान व बगानों का महत्व, सर्वोपरि स्तर पर आंका गया। उत्तराखंड की समृद्धि मे उद्यान व बगानों का महत्व जान, उसके संवर्धन हेतु 1953 मे उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री पंडित गोबिंद बल्लभ पंत द्वारा रानीखेत, मालरोड मे उद्योग विभाग निदेशालय, फल उपयोग विभाग, उत्तर प्रदेश के मुख्यालय की स्थापना कर सत्ता के शीर्ष मे पहाड़ी जनमानस के बीच से ही मुख्यमंत्री होने का अहसास कराया था।
इसी क्रम मे, स्थापित प्रयोग एवं प्रशिक्षण केंद्र श्रीनगर (गढ़वाल) मे तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा द्वारा, 1975 मे भू-रसायन एवं मशरूम अनुभागों की स्थापना, इसी अहसास के तहत की गई थी। उत्तराखंड पर्वतीय क्षेत्र के, कृषि विकास की सोच के तहत, सन 1974 मे, फल शोध केंद्र चौबटिया, रानीखेत के अधीन, मटेला, ज्योलीकोट, पिथौरागढ़, श्रीनगर, कोटद्वार, कोटियाल सैण, सिमलासू, डुंडा, ढकरानी, चकरौता तथा रुद्रपुर मे 39 अनुसंधान केंद्र, शीतोष्ण व समशीतोष्ण फलों, सब्जियों, मसालों फसलों पर काश्तकारों की समस्याओं के निदान हेतु, शोधकार्य केंद्र स्थापित किए गए। 1988 मे उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा रानीखेत मे उद्यान निदेशालय भवन की मंजूरी दी गई थी, जो 1992 मे बनकर तैयार हो गया था।सन 1990 मे निदेशालय का नाम बदलकर उद्यान एवं खाद्य प्रशंस्करण विभाग, उत्तर प्रदेश कर दिया गया था। जिसके विभिन्न अनुभागों का संचालन सु-विख्यात विज्ञानिकों द्वारा किया गया। दर्जनों शोधार्थियों ने इस शोध केंद्र से पीएचडी ग्रहण की। पांच सौ से अधिक शोध कार्य किए गए, जिनका उल्लेख समय-समय पर राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय फलक पर किया जाता रहा है।उक्त शोध केंद्र से चल रहे, शोध प्रयोगों के परिणाम ‘प्रोग्रेसिव हॉर्टिकल्चर’ नाम से प्रकाशित, अंग्रेजी त्रैमासिक पत्रिका मे प्रकाशित किए जाते रहे। विभाग से देश के लगभग पर्वतीय राज्यो के साथ-साथ, पड़ोसी देशों नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान इत्यादि को फल रोपड़ सामग्री उपलब्ध कराने के साथ-साथ विभिन्न कार्य विधियों मे प्रशिक्षण भी दिया जाता रहा। अनेकों फलों की उन्नत प्रजाति की किस्मे भी विकसित की जाती रही। पर्वतीय भू-भाग, रानीखेत स्थित उद्यान विभाग का तत्कालीन समय, स्वर्णकाल के नाम से जाना गया। उद्यान विभाग के सभी केन्द्र, फल, पौधों, विभिन्न सब्जीयों व आलू बीज के उत्पादन में आत्मनिर्भर था। कृषकों की सभी मांगो की पूर्ति, समय से पूरा करने में उद्यान विभाग समर्थ रहा। उद्यान विभाग के अंतर्गत आने वाले सभी उद्यानों मे उत्पादित, उन्नत किस्म के फलों में सेब, नाशपाती, पुलम, चेरी, आडू, आंवला, संतरा, किन्नो, अनार, बादाम, पिकन्नट, अखरोट, नीम्बू वर्गीय फल-पौधों की विभिन्न किस्मो व प्रजातियों की पैदावार व रोपण परिणाम, उच्च आकड़ो के तहत, दर्ज होने के प्रमाण हैं।
उत्तराखंड राज्य गठन के बाद, आर्गेनिक चाय उत्पादन को प्रोत्साहन देने के लिए कौसानी, बेरीनाग, चमोली, मल्ला कत्यूर, चौकोड़ी व चंपावत स्थित चाय बगानों की समृद्धि हेतु सोचा गया। इसी क्रम में वर्तमान प्रदेश कृषि मंत्री सुबोध उनियाल अब औद्योगिक पर्यटन की बात कर रहे हैं, जिसके तहत चार राजकीय उद्यानों रामगढ़, धनोल्टी, खिर्सू व चौबटिया रानीखेत को 80 लाख रुपयो के बजट से विकसित करने पर बल दिया जा रहा है। योजना धरातल पर उभर कर आएगी या चकबंदी के ऐलान की तरह ठंडे बस्ते मे पड़ी रहेगी, जनमानस के सम्मुख ज्वलंत सवाल बन कर उभर रहा हैं। अस्तित्व की बाट जोह रहे अन्य उद्यान व छोटे-मोटे बाग बगीचों की फेहरिस्त में देहरादून रामनगर व हल्द्वानी स्थित लीची व आम के लजीज स्वाद के लिए मशहूर रही फल पट्टी भी भू व खनन माफियाओ की विनाशकारी नजरों से जुदा नही रहे हैं। इन फल पट्टी क्षेत्रो को माफियाओं द्वारा उप खनिज स्टाक अड्डा बनाकर, साम-दाम-दंड भेद की नीति से किसानों की भूमि कब्जा, विशाल आबादी की बसावट कर, बर्बाद कर दिया गया है। उदाहरण स्वरूप, रामनगर की फल पट्टी मे 800 हैक्टेयर मे आम प्रजातियों मे लगड़ा, दशहरी, चौसा इत्यादि करीब 20 हजार मीट्रिक टन और 900 हैक्टेयर मे लीची, 10 मीट्रिक टन की पैदावार प्रतिवर्ष की जाती थी। फलो के उत्पादन का यह आंकड़ा, माफियाओं की कारगुजारियो से, प्रतिवर्ष गर्त मे जाता नजर आ रहा है।उत्तराखंड में क्रमशः अदलती-बदलती सरकारों मे शीर्ष नेतृत्व के अभाव, तथा प्रदेश की समृद्धि व जनसरोकारों हेतु स्थापित सरकारों का विजन न होने से, प्रदेश के प्रबुद्ध जनमानस के सम्मुख घोर निराशा ही प्रकट हुई है। हैरत का विषय है, जिस उत्तराखंड से अंग्रेज हुक्मरानों ने चाय उद्योग की शुरुआत की थी, जिस क्षेत्र की चाय के दीवाने दुनियाभर में थे, उत्पादित सेब विश्वभर मे प्रसिद्ध था, आज उन उद्यान व बगानों का नाम प्रमुख उत्पादकों मे कही नही है। प्रदेश की ऐतिहासिक धरोहरों मे स्थान प्राप्त, उद्यान व बगानों का अस्तित्व खतरे में नजर आ रहा है ऐसे स्थलों को देखकर हमें हमारी ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, प्राकृतिक एवं भौगोलिक संपदा पर गर्व होगा और हम गर्व के साथ कह सकते हैं कि हम जिस देश-प्रदेश के निवासी हैं, वह कितनी समृद्ध विरासत अपने में संजोए है।धरोहर को जिदा रखने के लिए सभी को आगे आना होगा।
लेखक : डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला (दून विश्वविद्यालय)
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