2000 में उत्तरप्रदेश से पृथक होने के बाद लोगों को उम्मीद थी कि उनका प्रदेश भी हिमाचल की तर्ज पर आगे बढ़ेगा। मगर शराब-माफिया, खनन माफ़िया, ठेकेदारी से राजनीती के व्यवसाय में उतरे लोगों के भरोसे ये नामुमकिन था। इसके लिए एक दूरगामी सोच की जरुरत थी और ये सोच किसी बाज़ार में नहीं मिलती। आम जन-मानस मानना है कि आज यह राज्य जिस हालत में पहुँच चुका है, उसके लिए यहाँ की सरकारों की अदूरदर्शिता व् नीतियां ही जिम्मेदार हैं। आज प्रदेश के फ़ल उत्पादकों की क्या स्थिति है और क्यों जानिये इस लेख में
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंडी सेब उत्पादक: 10 साल पुराने रेट पर बेचने को मजबूर
भारत में तीन राज्यों में सेब का उत्पादन होता है। इसमें कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखंड है। नॉर्थ ईस्ट के भी कुछ राज्यों में सेब होता है, लेकिन वो बहुत कम है। कश्मीर, हिमाचल और उत्तराखंड में भी सबसे ज्यादा सेब जम्मू कश्मीर में होता है। भारत का कुल 24 लाख टन सेब उत्पादन का साठ फीसद कश्मीर में होता है उसके बाद हिमाचल का नंबर आता है। जहां हर साल ढाई करोड़ पेटी सेब देश और विदेश की मंडियों में जाता रहा है। उसके बाद उत्तराखंड हैं। जहां मुख्य रूप से चार जिलों देहरादून, उत्तरकाशी, अल्मोड़ा और नैनीताल में सेब के बगीचे हैं। उत्तराखंड में पिछले साल तक 62, 407 मीट्रिक टन सेब उत्पादन हुआ है। लेकिन इस बार ये अस्सी हजार मीट्रिक टन तक चला गया है। उत्तराखंड में उत्तरकाशी और दून के पर्वतीय क्षेत्र में होने वाले सेब हिमाचल की ब्रांडिंग के जरिये बिकते हैं। यानी, सेब तो उत्तराखंड का होता है, लेकिन उस पर टैग हिमाचल का होता है। राज्य सरकार गंभीर हो तो राज्य के सेब को अपनी पहचान मिल सकती है टिहरी, अल्मोड़ा, पौड़ी और पिथौरागढ़ में सेब को काश्तकार सीधे बेच रहे हैं। यहां सेब साठ रुपये किलो से सत्तर रुपये किलो तक बेचे जा रहे हैं।
देश में लगातार महंगाई बढ़ रही है. उसका असर देवभूमि में भी पड़ रहा है. घरेलू उत्पादों के दाम भी लगातार बढ़ रहे हैं, लेकिन कुमाऊं की फल पट्टी क्षेत्र के नाम से विकसित रामगढ़ विकासखंड में सेब की खेती करने वाले किसानों को आज भी अपने फलों के उचित दामों नहीं मिल रहे हैं। जिसके चलते पहाड़ के काश्तकार परेशान हैं। दरअसल, इस महंगाई के दौर में पिछले 10 सालों से पहाड़ के सेब के दाम बढ़ने के बजाय कम हो गए हैं। सेब की पैदावार करने वाले किसानों का कहना है कि पिछले 10 सालों से उनको मंडी में वही दाम मिल रहे हैं, जो पहले से मिला करते थे। जबकि महंगाई में किसान बेहतर दाम मिलने की उम्मीद लगाए हुए थे।
कुमाऊं मंडल के नैनीताल जनपद के कई क्षेत्रों में भारी तादाद में किसान सेब की खेती करते हैं। मंडी में अपनी फसल बेचने आने वाले रामगढ़ के काश्तकारों का कहना है कि 10 साल पहले जिस सेब की पेटी की कीमत करीब 400₹ हुआ करती थी, अब वही सेब की पेटी करीब 350 रुपए में मंडी में बेची जाती है, यही वजह है कि सेब काश्तकार फल पट्टी के नाम से मशहूर रामगढ़ क्षेत्र में दिन-प्रतिदिन कम होते जा रहे हैं। इसके पीछे किसान सरकारों का भी दोष मानते हैं। किसानों का कहना है कि इसके लिए राज्य सरकार की नीतियां जिम्मेदार हैं.सेब कारोबारियों की मानें तो पहाड़ का सेब इस समय ₹40 प्रति किलो मिल रहा है। क्योंकि सरकार ने सभी किसानों को बेहतर प्रजाति के सेब के पौधे और नई किस्म की फसल की पैदावार का न तो प्रशिक्षण दिया न ही पौध उपलब्ध कराई। यही वजह है कि जो पुराना काश्तकार है, आज हाशिए पर आने लगा है।
कुमाऊं की सबसे बड़ी हल्द्वानी मंडी से सेब का बड़ा कारोबार होता था। किसानों से सेब खरीदने वाले कारोबारियों का कहना है कि हिमाचल सहित अन्य राज्यों से सेब यहां पहुंच रहे हैं। उनकी क्वालिटी भी बेहतर है। यही वजह है कि उत्तराखंड के सेब की खरीद कम हुई है। सेब कारोबारियों की मानें तो पहाड़ का सेब इस समय ₹40 प्रति किलो मिल रहा है। हिमाचल सहित अन्य राज्यों के सेब भी इसी कीमत पर मंडियों में मिल रहे हैं, जो उत्तराखंड के सेब की क्वालिटी से बेहतर हैं। यही कारण है कि उत्तराखंड के सेब की डिमांड अन्य मंडियों से नहीं आ रही है।
कृषि व उद्यान विभाग के कर्मचारियों को कोरोना वारियर के रूप में प्रोत्साहन राशि दी पहले उत्तराखंड में सेब उत्पादन के प्रति ध्यान नहीं दिया गया, लेकिन अब एप्पल मिशन के बाद इस दिशा में अच्छा काम हुआ है। प्रदेश का सेब गुणवत्ता में हिमाचल और जम्मू कश्मीर से पीछे नहीं है। ब्रांडिंग और मार्केटिंग को बढ़ावा देने की जरूरत है। उत्तराखंड सरकार ने साल 2022 के लिए सी ग्रेड सेब का न्यूनतम समर्थन मूल्य 11 रुपये प्रति किग्रा घोषित किया है। यह योजना केवल किसानों के लिये होगी ठेकेदार और बिचौलिये इस योजना में शामिल नहीं होंगे। जिले में हेलंग, जोशीमठ, तपोवन, मलारी और घेस में संग्रह/क्रय केन्द्र बनाये गये हैं। सरकार द्वारा किसानों का विकास करने का निरंतर प्रयास किया जाता है। जिसके लिए सरकार विभिन्न प्रकार की योजनाएं संचालित करती है। भारत सरकार द्वारा फसल की खरीद पर एक न्यूनतम मूल्य का भुगतान किया जाता है। इस मूल्य को न्यूनतम समर्थन मूल्य कहा जाता है। पहाड़ी राज्य उत्तराखण्ड में इस वक्त कई प्रकार की फल एवं सब्जियों का उत्पादन होता है। यहाँ के किसान इसी फल-सब्जियों के उत्पादन से होने वाली आय से वर्ष भर अपनी रोटी चलाते हैं। वैसे तो विगत कई वर्षों से इस पहाड़ी राज्य के किसानों की स्थिति सोचनीय बनी हुई है। लेकिन इस वक्त स्थिति काफी भयावह है।
मंडियों में किसानों को फल व सब्जियों की उपज का उचित दाम नहीं मिल पा रहा है। जो थोड़ा बहुत मिल रहा है, उससे किराये भाड़े और बारदाने का खर्च तक निकालना मुश्किल हो गया है। ऐसे में किसान निराश एवं हताश है। वह पहले ही कर्ज में दबा है और अब ऐसी परिस्थितियों में वह अपना कर्ज कैसे चुकाये और कैसे अपने परिवार का पालन करें? यह सबसे बड़ी चुनौती है। फल उत्पादन के लिए प्रसिद्ध नैनीताल जनपद के रामगढ़, धारी, मुक्तेश्वर, सतबुँगा, धानाचूली, नथुवाखान आदि क्षेत्रों में सेब और नाश्पाती उत्पादन का एक बड़ा रकबा है। इस क्षेत्र में लगभग 1244.67 हेक्टेयर भूमि में सेब के बागान हैं। जिससे लगभग 8550 मीट्रिक टन सेबों का उत्पादन होता है। लेकिन जब इस उत्पादन को बाजार उपलब्ध कराने की बात आती है तो खरीददार न मिलना, उचित दाम न मिलना, मार्केट के अनुसार गुणवत्ता का न होना जैसे तर्क देकर किसान के साथ नाइंसाफी की जाती है।
हालांकि सरकारी अधिकारी और स्थानीय जन प्रतिनिधि इन सके पीछे सेब की पुरानी वैराईटी होने, बागवानी के तरीकों का पारंपरिक होना आदि को गुणवत्ता कमी का मुख्य कारण मानते हैं। हिमाचल प्रदेश जैसे अग्रणि फल उत्पादक राज्य की तर्ज पर उद्यान नीतियों को अपनाने की बात कही जाती है। लेकिन जब उस क्षेत्र में एक ठोस नीति बनाने और ग्राउंड में योजनाओं के क्रियांवयन की बात आती है, तो बिना किसी ठोस वैज्ञानिक आधार के योजनायें प्रारंभ कर दी जाती हैं। योजना का लाभ लेने वाले मुक्तेश्वर क्षेत्र के किसानों ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि प्रदेश में सेब की सघन बागवानी को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार द्वारा योजना प्रारंभ की गईं। जिसका जिम्मा प्रदेश के उद्यान विभाग को दिया गया। जिसने आनन फानन में कुछ लाभार्थियों का चयन किया और योजना का क्रियांवयन प्रारंभ कर दिया। जब उद्यान स्थापना के लिए गुणवत्ता पूर्ण प्लाटिंग मैटेरियल की व्यवस्था की बात आई तो विभाग ने अपने हाथ खड़े कर दिये। यहाँ किसानों को इंनपुट मैटेरियल और प्लाटिंग मैटेरियल की व्यवस्था स्वयं करने को कह दिया गया।
इन सबके कारण किसानों को योजना के क्रियान्वयन में काफी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। इस संबंध में मुक्तेश्वर क्षेत्र में बागवानी विकास पर विगत 8 वर्षों से कार्य कर रहे विशेषज्ञ का कहना है कि ‘‘सरकार द्वारा संचालित इस योजना का एक बड़ा ड्रा-बैक यह है कि इस योजना के तहत कम से कम एक एकड़ क्षेत्रफल में किसान को बाग स्थापित करना है। जिससे एक एकड़ से कम भूमि वाले किसान इस योजना के लाभ से वंचित हो जाते हैं। यदि राज्य सरकार वास्तव में किसानों को लाभ प्रदान करने की इच्छा रखती है तो उसे एक छोटी जोत के किसान को भी ध्यान में रखकर योजनाओं का निर्माण करना होगा। यह योजना को विस्तार देने के साथ ही क्षेत्र को पुनः बागवानी बहुल एवं चहुमुखी विकास में मदद प्रदान कर सकता है।
बहरहाल कृषि सेक्टर को मंदी से बचाना है तो एक ऐसी ठोस योजनाओं को लागू करने की जरूरत है, जिसका सीधा फायदा किसानों को हो। केंद्र की ऐसी कई योजनाएं हैं जिसका सीधा लाभ किसानों को मिल सकता है और उन्हें उनकी फसल का बेहतर मुनाफा प्राप्त हो सकता है। लेकिन केवल योजनाएं बनाने से नहीं बल्कि उन्हें धरातल पर वास्तविक रूप से लागू करने से ही परिवर्तन संभव है। इस वक्त किसान ही एक ऐसा माध्यम है जो देश को आर्थिक संकट से उबारने में सबसे बड़ी भूमिका निभा सकता है। ऐसे में उन्हें सरकारी नीतियों में उलझाने से कहीं अधिक योजनाओं का सीधा लाभ पहुँचाने में है। जिसकी तरफ केंद्र से लेकर राज्य और पंचायत स्तर तक को गंभीरता से सोचने की आवश्यकता है। इस वक्त जरूरत है एक ऐसी योजना की जिसका सीधा लाभ छोटे स्तर के किसानों को भी मिल सके।
लेखक के निजी विचार हैं ।
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