डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

पर्यावरण को समर्पित ‘‘हरेला‘‘ पर्व उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक परम्परा का प्रतीक है। यह त्योहार सम्पन्नता, हरियाली, पशुपालन और पर्यावरण संरक्षण का सन्देश देता है। हरेला पर्व हमारी लोक संस्कृति, प्रकृति एवं पर्यावरण के साथ जुडाव का प्रतीक है।उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों विशेषकर कुमाऊं अंचल में हरेला मनाने की परम्परा सदियों से चली आ रही है। उमंग और उत्साह के साथ मनाये जाने वाले इस पर्व को ऋतु उत्सवों में सर्वाच्च स्थान प्राप्त है। हरेला पर्व श्रावण के प्रथम दिन यानि कर्क संक्रान्ति को मनाया जाता है। श्रावण मास में पावन पर्व हरेला उत्तराखंड में धूमधाम से मनाया जाता है।

समूचे कुमाऊँ में हरेला का त्यौहार अति महत्वपूर्ण त्यौहारों में से एक माना जाता है। इस पर्व को मुख्यतः कृषि और शिव विवाह से जोड़ा गया है। हरेला, हरियाली अथवा हरकाली हरियाला समानार्थी है। देश धनधान्य से सम्पन्न हो, कृषि की पैदावार उत्तम हो, सर्वत्र सुख शान्ति की मनोकामना के साथ यह पर्व उत्सव के रुप में मानाया जाता है। कुछ विद्वान मानते हैं कि हरियाला शब्द कुमाऊँनी भाषा को मुँडरी भाषा की देन है।पुराणों में कथा है कि शिव की अर्धांगिनी सती न् अपनेे कृपण रुप से खिन्न होकर हरे अनाज वाले पौधों को अपना रुप देकर पुनः गौरा रुप में जन्म लिया। इस कारण ही सम्भवतः शिव विवाह के इस अवसर पर अन्न के हरे पौधों से शिव पार्वती का पूजन सम्पन्न किया जाता है। श्रावण माह के प्रथम दिन, वर्षा ॠतु के आगमन पर ही हरेला त्यौहार मनाया जाता है। यह त्यौहार मुख्य रुप से किसानों का त्यौहार है।

 आज होता है डिकारों का पूजन

कुमाऊँनी जीवन में भित्तिचित्रों के अतिरिक्त भी महिलाएँ अपनी धार्मिक आस्था के आयामों को माटी की लुनीई के सहारे कलात्मक रुप से निखारती हैं। हरेला के त्योहार पर, जो प्रतिवर्ष श्रावण माह के प्रथम दिवस पड़ता है, बनाये जानेवाले डिकारे सुघड़ परन्तु अपरिपक्व हाथों की करामात हैं जिसमें शिव परिवार को मिट्टी में उतारकर पूजन हेतु प्रयोग में लाया जाता है।डिकारे शब्द का शाब्दिक अर्थ है – प्राकृतिक वस्तुओं का प्रयोग कर मूर्तियाँ गढ़ना। स्थानीय भाषा में अव्यवसायिक लोगों द्वारा बनायी गयी विभिन्न देवताओं की अनगढ़ परन्तु संतुलित एवं चारु प्रतिमाओं को डिकारे कहा जाता हैं। डिकारों को मिट्टी से जब बनाया जाता है तो इन्हें आग में पकाया नहीं जाता न ही सांचों का प्रयोग किया जाता है। मिट्टी के अतिरिक्त भी प्राकृतिक वस्तुओं जैसे केले के तने, भृंगराज आदि से जो भी आकृतियाँ बनाई जाती हैं, उन्हें भी डिकारे समबोधन ही दिया जाता है।

डिकारे की मूल सामग्री सोंधी सुगन्ध वाली लाल चिकनी मिट्टी है। महिलाएँ इस मिट्टी में कपास मिलाकर इसे कूटती हैं। जब मिश्रण एक सारहो जाता है और गढ़ने में सरल तब उनसे डिकारे गढ़ने का क्रम आरम्भ होता है। पहले शिव-पार्वती के प्रतीक के रुप में मिट्टी के ढेले को प्राण प्रतिष्ठा कर पूजा जाता था। डिकारे हाथ से गढ़ने का चलन सम्भवतः बाद में हुआ होगा। इन डिकारों को हलकी धूप या छाया में इस प्रकार से सुखाया जाता है कि उसके चटकने का डर ना रहे। सुखने के बाद चावल के घोल सेहल्के श्वेत रंग का लेप किया जाता है। कई बार गोंद मिले रंगों से उनके ऊपर अवयवों का निर्माण किया जाता है। प्राकृतिक रंगों का प्रयोग भी सम्भवतः बाद में हुआ होगा। ये रंग किलमोड़े के फूल, अखरोट व पांगर के छिलकों से तथा विभिन्न वनस्पतियों के रस के सम्मिश्रण से तैयार किया जाता है। लेकिन वर्तमान में बाजार में बिकने वाले सिन्थेटिक रंग ही प्रयोग में लाये जाते हैं। रंगों से रेखायें उभारने के लिए तुलिका के श्थान पर लकड़ी की तीलियों का प्रयोग किया जाता है। प्रायः माचिस की तीली और उस पर बंधी रुई का भी प्रयोग होता है।

डिकारे में शिव को नीलवर्ण और पार्वती को श्वेतवर्ण से रंगने का प्रचलन है। आँख, नाक व कान इत्यदि उभारने के बाद का कार्य भी पहले कोयले को पीसकर किया जाता था।डिकारों में चन्द्रमा से शोभित जटाजूटधारी शिव, त्रिशूल एवं नागधारण किये अपनी अद्धार्ंगिनी गौरी के साथ बनाये जाते हैं। अग्रपूज्य देवता गणेश को भी इनके साथ बनाये जाने का प्रचलन है। कालान्तर में इनके साथ ॠद्धि – सिद्धि, कौटिल्य कभी-कभी गुजरी तो कभी-कभी भिखारिन बनायी जाने की भी परम्परा प्रचलित है। यह कोई निश्चित नहीं है कि डिकारे शिव-पार्वती आदि के अलावा इनके परिवार के कौन-कौन सदस्य बनाये जायें। यह प्रायः कलाकार के अपने क्षमता पर निर्भर करता है। पूजा के उपरान्त इन को जल में प्रवाहित करने की भी यदा-कदा परम्परा है।

आज से इस पर्व की शुरुआत हो गई है। मानव और प्रकृति के परस्पर प्रेम को दर्शाता यह पर्व हरियाली का प्रतीक है। सावन लगने से नौ दिन पहले बोई जाने वाली हरियाली को दसवें दिन काटा जाता है और इसी दिन इस पावन पर्व को हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।2016 के बाद से कुमाऊं के सांस्कृतिक हरेला पर्व को प्रदेश में एक व्यापक स्तर के पौधरोपण अभियान का रूप दिया गया और लोगों ने भी इस पहल को हाथों-हाथ लिया और अब हरेला एक तरह से प्रदेश में सामाजिक स्तर पर व्यापक पौधारोपण अभियान का पर्याय बन गया है।

परम्परानुसार पर्व से नौ अथवा दस दिन पूर्व पत्तों से बने दोने या रिंगाल की टोकरियों में हरेला बोया जाता है। जिसमें उपलब्धतानुसार पाँच, सात अथवा नौ प्रकार के धान्य यथा- धान, मक्का, तिल, उड़द, गहत, भट्ट, जौं व सरसों के बीजों को बोया जाता है। देवस्थान में इन टोकरियों को रखने के उपरान्त रोजाना इन्हें जल के छींटों से सींचा जाता है। दो-तीन दिनों में ये बीज अंकुरित होकर हरेले तक सात-आठ इंच लम्बे तृण का आकार पा लेते हैं।हरेला पर्व की पूर्व सन्ध्या पर इन तृणों की लकड़ी की पतली टहनी से गुड़ाई करने के बाद इनका विधिवत पूजन किया जाता है। कुछ स्थानों में इस दिन चिकनी मिट्टी से शिव-पार्वती और गणेश-कार्तिकेय के डिकारे (मूर्त्तियाँ) बनाने का भी रिवाज है। इन अलंकृत डिकारों को भी हरेले की टोकरियों के साथ रखकर पूजा जाता है।

हरेला पर्व के दिन देवस्थान में विधि-विधान के साथ टोकरियों में उगे हरेले के तृणों को काटा जाता है। इसके बाद घर-परिवार की महिलाएँ अपने दोनों हाथों से हरेले के तृणों को दोनों पाँव, घुटनों व कन्धों से स्पर्श कराते हुए और आशीर्वाद युक्त शब्दों के साथ बारी-बारी से घर के सदस्यों के सिर पर रखती हैं।इस दिन लोग विविध पहाड़ी पकवान बनाकर एक दूसरे के यहाँ बाँटा जाता है। गाँव में इस दिन अनिवार्य रूप से लोग फलदार या अन्य कृषिपयोगी पेड़ों का रोपण करने की परम्परा है। लोक-मान्यता है कि इस दिन पेड़ की टहनी मात्र के रोपण से ही उसमें जीवन पनप जाता है।

अब सवाल ये भी है कि जितना जोश पूरा प्रदेश वृक्षारोपण को लेकर हरेला पर्व पर दिखाता है अगर इसका एक फीसदी प्रयास भी साल में प्रदेशवासी दो से 4 बार करते तो शायद आज जंगलो की स्थिति पहले से बेहतर होती। हाल ही में इस पर्व पर राजकीय अवकाश घोषित किया गया जबकी पहले इस अवसर पर कोई राजकीय अवकाश नही हुआ करता था । वही इस दिन वृक्षारोपण को बेहद अहमियत दी जाती है लेकिन मुसीबत ये है कि व्यापक स्तर पर पौधारोपण होने के बावजूद प्रदेश को इसका फायदा बेहद कम मिल रहा है। कारण ये है कि रोपे गए पौधों की मृत्यु दर अधिक है। यह प्रदेश सरकार के लिए भी चिंता का सबब है वन विभाग के अधिकारियों के मुताबिक कुल मिला कर यह तय है कि लोगों की ओर से रोपे जा रहे पौंधों का सरवाइवल रेट बहुत ही कम है

हालांकि शहरीकरण के चलते अब डिकारे बनाने की परंपरा सीमित हो चुकी है लेकिन गांव में आज भी डिकारे तैयार कर उनकी पूजा की जाती है।मान्यता है कि शिव की अर्धांगिनी सती ने किसी बात पर रुष्ट होकर अनाज वाले पौधों को अपना रूप दिया और फिर गौरा रूप में जन्म लिया। तब से हरेला पर्व से एक दिन पूर्व डिकारे बनाने और उन्हें पूजने की परंपरा चली आ रही है। कृषि के साथ साथ इस त्योहार को शिव विवाह से भी जोड़ा जाता है। हालांकि अब डिकारे घर में बनाने की बजाय लोग रेडीमेड बाजार से खरीद रहे हैं। पहले साफ सुथरी जगह की शुद्ध लाल मिट्टी से डिकारे बनाए जाते थे और घर में इसे विभिन्न रंगों से तैयार किया जाता था।

लोक कलाकार का मानना है कि ग्रामीण क्षेत्रों से पलायन होने के बाद इस परंपरा में कमी देखने को मिली है। दूसरा इसमें मेहनत काफी लगती है लेकिन लोगों के पास अब समय नहीं है। नई पीढ़ी अगर नहीं सीखेगी तो यह परंपरा खत्म हो जाएगी। हमने जो सीखा है नए बच्चे उसे सीखेंगे इसलिए यू ट्यूब में इस तरह की परंपराओं से जुड़ी चीजें डाल रहे हैं। उन्होंने कहा कि परंपरा बचाए रखने को आए दिन सेमिनार, गोष्ठियों का आयोजन होता रहता है लेकिन इससे कोई फायदा नहीं है। अगर नई पीढ़ी को सीखाना है और तस्वीर बदलनी है तो स्कूलों से परंपराओं की शुरुआत करनी होगी। खासकर अंग्रेजी स्कूल के बच्चे इन परंपराओं को निभाने में काफी पीछे हैं। यदि हम गहराई से देखें तो हरेला पर्व सीधे तौर पर प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाने की भूमिका में नजर आता है। मानव के तन-मन में हरियाली हमेशा से ही प्रफुल्लता का भाव संचारित करती आयी है । यह पर्व लोक विज्ञान और जैव विविधता से भी जुड़ा हुआ है। हरेला बोने और नौ-दस दिनों में उसके उगने की प्रक्रिया को एक तरह से बीजांकुरण परीक्षण के तौर पर देखा जा सकता है। इससे यह सहज पूर्वानुमान लग जाता है आगामी फसल कैसी होगी।

हरेले में मिश्रित बीजों के बोने की जो परम्परा है वह बारहनाजा अथवा मिश्रित खेती की पद्धति के महत्व को भी दर्शाता है। परिवार व समाज में सामूहिक और एक दूसरे की भागीदारी से मनाये जाने वाला यह लोक पर्व सामाजिक समरसता और एकता का भी प्रतीक है क्योंकि यहाँ के समाज में यह मान्यता रही है कि परिवार चाहे संयुक्त रूप से कितना भी बड़ा हो पर हरेला एक ही जगह पर बोया जाता है।इस मौके पर हरियाली को बढ़ावा देने के लिए पूरे राज्यु में पौधरोपण अभ‍ियान भी चलाए जाते हैं. इसमें बढ़-चढ़कर लोग हिस्सार लेते हैं. इस त्यौहार पर नौकरी-पेशा और घर से दूर रहने वाले छात्रों भी कोशिश करते हैं कि वे घर में मौजूद रहें, अगर किसी कारणवश वो नहीं मौजूद होते हैं तो उनके लिए हरेला के तिनके भेज दिए जाते है. कुमाऊं में तो कहीं-कहीं पूरे गांव का हरेला सामूहिक रूप से एक ही जगह विशेषकर गांव के मंदिर में भी बोया जाता है।

कुछ सालों पहले हरेले पर कई स्थानों में मेले भी लगते थे जहां खूब रौनक रहती थी परन्तु अब यह मेले नाम मात्र को रह गए हैं। इधर वर्तमान में छखाता पट्टी के भीमताल व काली कुमाऊं के बालेश्वर व सुई-बिसुंग के में धूम-धाम से मेले आयोजित होते हैं और इन्होंने सांस्कृतिक मेले का रूप ले लियस है। कुल मिलाकर देखा जाय तो हरेला पर्व में लोक कल्याण की एक बहुत बड़ी व दूरदर्शी अवधारणा निहित दिखाई देती है। समूचे वैश्विक स्तर पर आज पूंजीवादी और बाजारवादी संस्कृति जिस तरह प्रकृति और समाज से दूर होती जा रही है यह बहुत चिन्ताजनक बात है। ऐसे में निश्चित तौर पर लोक के बीच मनाया जाने वाला यह हरेला पर्व हमें प्रकृति और संस्कृति के करीब आने का सार्थक संदेश देता है।समाज और प्रकृति में हरेले की महत्ता को देखते हुए उत्तराखण्ड सरकार कई संगठनों ने भी पिछले दो-तीन सालों से सामाजिक स्तर पर हरेला मनाने की कवायद शुरू कर दी है जिसके तहत राज्य में पर्यावरण और सांस्कृतिक गतिविधियों के जरिये जन चेतना और जागरूता पैदा करने के सार्थक प्रयास हो रहे हैं.. निश्चित तौर पर समाज में इस तरह के प्रयास प्रकृति और संस्कृति के प्रति संवेदनशील होने और संरक्षण की दिशा में सुखद संकेत माने जा सकते हैं।

हरेला पर्व बहू-बेटियों का उनके मायके की भी याद दिलाता है।अल्मोड़ा के समीप जागेश्वर धाम चम्पावत के गौरल चौड़, मैदान भीमताल में रामलीला मैदान, स्थानों में परम्परागत रूप से कौतिक यानि मेले लगते हैं। भीमताल में हरेले के दिन से एक हफ्ते तक लगने वाले मेले की शुरुआत हो जाती है। जागेश्वर में सावन के सम्पूर्ण महीने शिव का जलाभिषेक किया जाता है। इस अवधि में दूर दराज से आये तमाम लोग यहां विधि-विधान से पार्थिव पूजा भी करते हैं। सावन के हर सोमवार को यहां स्थानीय दर्शनार्थियों की भीड़ उमड़ आती है।कुल मिलाकर देखा जाय तो हरेला पर्व में लोक कल्याण की एक समग्र अवधारणा निहित है। समूचे वैश्विक स्तर पर आज पूंजीवादी और बाजारवादी संस्कृति जिस तरह प्रकृति और समाज से दूर होती जा रही है यह बहुत चिन्ताजनक बात है। ऐसे में निश्चित तौर पर लोक के बीच मनाया जाने वाला यह पर्व हमें प्रकृति के करीब आने का सार्थक संदेश देता है। समाज और प्रकृति में हरेले की महत्ता को देखते हुए उत्तराखण्ड सरकार भी पिछले साल से सरकारी स्तर पर हरेला मनाने की कवायद कर रही है जिसके तहत राज्य में पर्यावरण और सांस्कृतिक गतिविधियों के जरिये स्कूली बच्चों व आम जनता के मध्य जन चेतना और जागरूता पैदा करने के प्रयास हो रहे हैं जो कि एक नितान्त सकारात्मक पहल है।

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