गढकवि जीवानन्द श्रीयाल जिनकी आज, 94 वीं जयंती है। उन्होंने अपनी चार बेटियों का नाम रखा।
भाषा, वााणी, हिन्दी और भारती ……….
गढवाली भाषा साहित्य के विकास में जिनका बडा़ योगदान है, उनमें एक नाम जीवानन्द श्रीयाल का भी है। उन्हें गढकवि के नाम से जाना गया। 12 जनवरी 1926 को टिहरी जिले के जखन्याली गांव में जन्में थे श्रीयाल। पिता श्री शंभुलाल श्रीयाल और माता लक्ष्मी देवी के घर। 10 मार्च 2004 को निधन हुआ। कभी स्कूल न जा सके, लेकिन साहित्य सृजन की अद्भुत प्रतिभा थी। घर पर ही पढना लिखना सीखा। जंगल और खेतों में काम करते ही ज्यादातर कवितायें लिख डाली। चिपको आन्दोलन से भी जुडे़ थे। कविताओं पर इसका असर भी दिखता है। उनकी सारी कवितायें छन्दबद्ध हैं और गाई जा सकती हैं। वे स्वयं भी कवि सम्मेलनों में स्वरबद्ध गाते थे।साहित्य के ऐसे रसिक थे कि चार बेटियों के उक्त प्रकार से साहित्यिक नाम के साथ ही बेटों के नाम भी भजमोहन, भारद्वाज , श्रीराघव व चक्रपाणी रख दिये। सबसे छोटे चक्रपाणी इंटर कोलेज ढून्गीधार नई टिहरी में लेकचरर हैं l
श्रीयालजी ने 300 से अधिक कवितायें लिखी। गढ साहित्य सोपान, गंगा जमुना का मैत बिटी और मुण्ड निखोलू प्रमुख संकलन हैं। गढवाल विश्वविद्यालय के पाठ्क्रम में उनकी कुछ कवितायें पढाई गई हैं।
नये रचनाकार जो गढवाली या कुमाऊंनी में गीत व कवितायें लिख रहे हैं, उन्हें श्रीयाल को पढना चाहिये। भाषा और छन्दों की समझ बढेगी। मिट्टी की खुशबू मिलेगी। एक कविता की कुछ पंक्तियां यहां दे रहा हूं –
औंदी सुबेर्यों बण जांद देखी,
डाली कु तख्मू कखि नौं बि नीं।
मुंडखो जरासी पटकैक काट्यूं,
बोलेंदु मुख सि झट राम बि नीं।
हाथू की जूड़ी छुटि दाथड़ी बि,
बोल्दी सुभागा तब बैठी भ्वां मां।
दोणी जनु पापि चुलै बि दूणे,
काटी छ डाली इनि जैन यामू।
अर्थात – सुबह जंगल जाते समय सुभागा देखती है कि यहां पर एक वृक्ष था, अब नामों निशान भी नहीं। ठूंठ भी नहीं दिख रहा। हाथ से दरांती व घास की रस्सी छूट पड़ी। जमीन में बैठ गई। वह बोल उठी। दोगुना पाप लगे जिसने इस तरह वृक्ष काटा।
( श्रीयाल जी व उनके साहित्य को अधिक जानने के लिये विन्सर प्रकाशन देहरादून द्वारा प्रकाशित संकलन ‘मुण्ड निखोलू’ पढ सकते हैं)
साभार – वरिष्ठ स्तम्भकार महिपाल नेगी (टिहरी)
# Gadhakavi Jeevanand Sriyal whose today, is 94th birth anniversary.
He named his four daughters.
Language, Vani, Hindi and Bharti ..........
One of the major contributors to the development of Garhwali language literature is
Jivananda Sriyal. He was known as Gadhakavi.