उत्तराखंड का इतिहास पर्यावरण संरक्षण का रहा है और पेड़ों को काटने का जब-जब जिक्र आता है तब-तब चिपको आंदोलन का नाम सबसे पहले लिया जाता है। लेकिन उत्तराखंड के अलग राज्य बनने के बाद से कोई बहुत बड़ा आंदोलन पर्यावरण संरक्षण को लेकर नहीं हुआ है। हवाईअड्डे के विस्तार के लिए काटे जाने वाले थानो के जंगलों को बचाने के लिए जरूर एक आंदोलन हमने देखा, लेकिन वह देशव्यापी तो छोड़िये राज्यव्यापी भी नहीं बन सका । इसी बीच आल वेदर रोड के दौरान काटे जाने वाले पेड़ों को लेकर हमें सरकारों को घेरना चाहिये था, लेकिन हम मूकदर्शक बनकर सिर्फ विकास के ढोल की थाप पर नाचते रहे।
अपना जीवन पर्यावरण के नाम कर देने वाले सुंदरलाल बहुगुणा जी के देहावसान पर हमने उनके पर्यावरण संरक्षण में योगदान और समर्पण को लेकर तमाम बातें हुई, पर्यावरण दिवस पर हमने पेड़ लगाने से लेकर पर्यावरण बचाने तक की सैकड़ों अपीलों से सोशल मीडिया को भर दिया लेकिन उत्तराखंड जैसे अतिसंवेदनशील राज्य में हो रहे पर्यावरणीय विनाश के खिलाफ हम कब उठ खड़े होंगे …पता नहीं ?
80 के दशक में प्रसिद्ध कुमाऊंनी लोकगायक गोपाल बाबू गोस्वामी का गीत सरकारी जंगल लछीमा, बांजा नि काटा लछीमा बांजा, नि काटा । आज भी वनों के प्रति प्रेम का प्रतीक है। इस गीत के माध्यम से लोकगायक ने पहाड़ की जैव विविधता का बखान करने के साथ ही बांज की महत्ता व इसके संरक्षण का संदेश दिया। गीत के माध्यम से बताया गया कि सरकार का आर्डर है, बांज मत काटो, पहाड़ के हरे भरे जंगलों का नाश मत करो। जंगल काट दोगो तो अकाल पड़ जाएगा, पहाड़ पानी का प्यासा रह जाएगा या सूखा पड़ जाएगा। बांज की बजानि या घरा यहां के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। पहाड़ों के डाना काना, हरे भरे जंगल हमारे प्राण हैं। जंगलों को काटते रहोगे तो डाना धूरा सब सूख जाएंगे।
बांज प्रजाति के पेड़ हिमालय की आत्मा हैं। बांज की पत्तियां चारे के काम आती हैं तो लकड़ी जलौनी के साथ ही कृषि उपकरण बनाने के काम आती है। बांज की जड़ें काफी मात्रा में पानी का संग्रह करती हैं। बांज का छोटा जंगल दस हजार ने किलो धूल के कणों को सोख सकता है। यह भू-क्षरण पर रोक लगाता है। पर्यावरणविद् बताते हैं कि बांज की मेडिशनल वैल्यू भी है। बांज की हवा दमा व उदर रोग दूर होता है। बाज का जंगल पर्यावरण संरक्षण का संदेश देता है। प्रेशर नियंत्रण, मधुमेह, तनाव के साथ ही अनिद्रा दूर करता है। यह इम्युनिटी व सांस लेने वाले तंत्र को मजबूत बनाता है। बांज की प्रजातियों में रियांज, फल्यांट, तिलौंज, खसूं आदि हैं।
पर्यावरणविद् के अनुसार सरकारों यूकेलिप्टिस, पापुलर व चीड़ आदि को जल्दी उगने वाली प्रजाति होने की वजह से काफी प्रोत्साहन दिया। राज्य में बांज का क्षेत्रफल 383088.12 वर्ग किमी है, जो वन विभाग के अधीन कुल जंगल का 14.81 प्रतिशत है। जल संरक्षण के लिए बांज बेहद अहम है। उत्तराखंड गौरव गोपाल बाबू भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं परंतु पहाड़ से पलायन के इस दौर में उनके द्वारा गाए हुए ‘घुघुती ना बांसा’, ‘कैले बाजे मुरूली’ जैसे गीतों की याद से बरबस पहाड़ से बिछड़ने की वेदनाएं मार्मिक रूप से उभरने लगती हैं।
गायक गोपाल बाबू गोस्वामी की कला साधना उत्तराखण्ड की महान धरोहर है। उनके द्वारा गाए गीतों में पहाड़ की लोक संस्कृति और उससे उभरी समस्याओं की असली लोकपीड़ा भी अभिव्यक्त हुई है। पर्वतीय जनजीवन में पहाड़, नदी, पेड़, पौधे और घुघुती आदि उनके सुख दुःख के पर्यावरण मित्र हैं। ये ही वे पांच तत्त्व हैं जिनसे किसी कविता या गीत की आत्मा बनती है, जिसे हम शास्त्रीय भाषा में लोकगीत कह देते हैं। बाद में मेले त्योहारों में इनकी सामूहिक प्रस्तुति झोड़े, चांचरी, भगनौल आदि का रूप धारण करके ये लोक संस्कृति का रूप धारण कर लेते हैं। हम कह सकते हैं कि गोस्वामी जी पर्यावरण तथा उसमें हो रहे बद्लावों के प्रति समाज को सचेत करने का कार्य तभी शुरु कर चुके थे जब हमारी सरकार तथा समाज का तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग सोया हुवा था।
यहां गोस्वामी जी के पर्यावरण प्रेम से सम्बन्धित गीतो के बारे उल्लेख किया है, पर गोस्वामी जी का हर गीत कुछ न कुछ सन्देश अवश्य प्रदान करता है। आ़गे हम गोस्वामी जी के गीतों के माध्यम से पहाड़ी समाज के अन्य सरोकारों को भी जानने का प्रयास करेंगे। एक महान कलाकार वही है जो अपनी कला के माध्यम से केवल समाज का मनोरन्जन ही ना करे बल्कि समाज के प्रति अपने अन्य दायित्वों को भी समझे तथा समाज को उसके प्रति अपनी कला के माध्यम से जागरूक करे। गोस्वामी जी ने जिस प्रकार एक बहुत ही साधारण जीवनशैली में जीवन निर्वाह करते हुये अपनी कला के माध्यम से पूरे समाज को मनोरन्जन के साथ साथ उनके सामाजिक उत्तर्दायित्वों का जो सन्देश दिया है पहाड़ी गीतों में बहती है पर्यावरण की बयार वह उनको उत्तराखण्ड ही नही देश के महान कलाकरों की श्रेणी में रखता है। जंगलों के बड़े पैमाने पर जलना और मिट्टी में नमी कम होना चिंता का विषय है। इससे भविष्य में काफी समस्या हो सकती है।
लेखक के निजी विचार हैं
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला (दून विश्वविद्यालय)
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